बिहार में भी हिन्दी में होगी एमबीबीएस की पढ़ाई
प्रमोद भार्गव
बिहार में भी हिन्दी में होगी एमबीबीएस की पढ़ाई
बिहार सरकार हिन्दी में चिकित्सा शिक्षा में स्नातक स्तर का पाठ्यक्रम अगले सत्र से शुरू करने जा रही है। मध्य प्रदेश के बाद इस तरह की पहल करने वाला बिहार दूसरा राज्य है। मध्यप्रदेश में तो एमबीबीएस का एक बैच पास करके निकल भी चुका है। अब बिहार में हिन्दी माध्यम से पढ़ाई करने का विकल्प छात्रों को मिलेगा। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जल्द पाठ्य पुस्तकें तैयार करने का भरोसा दिया है। हिन्दी को वैश्विक भाषा के रूप में स्थापित करने में ऐसे उपाय लाभदायी होंगे। ऐसा इसलिए भी किया गया है, जिससे बिहार में हिन्दी माध्यम से पढ़ाई कराने वाले जो 85 हजार सरकारी विद्यालय हैं, उनसे पढ़कर आने वाले छात्रों को चिकित्सा शिक्षा हासिल करने का अवसर मिल जाए।
एमबीबीएस की हिन्दी माध्यम से पढ़ाई समाजिक न्याय के साथ समाज को भाषाई धरातल पर उन्नत व विकसित करने की बड़ी पहल है। विश्व के अधिकतर देश अपनी मातृभाषाओं में चिकित्सा, अभियांत्रिकी एवं अन्य विज्ञान विषयों की पढ़ाई करते हैं। रूस, चीन, यूक्रेन में जाकर जो बच्चे एमबीबीएस करके आते हैं, उन्हें पहले एक वर्ष इन देशों की मातृभाषा ही पढ़ाई जाती है। जापान और जर्मनी में भी यही पद्धति लागू है। चीन और जापान की भाषाएं चित्रात्मक लिपि में लिखी जाने के कारण अत्यंत कठिन मानी जाती हैं। कुछ इसी तरह की लिपि प्राचीन नगर मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की भाषाओं की है। बावजूद मेधावी भारतीय छात्र इन भाषाओं में एक वर्ष के भीतर ही पारंगत हो जाते हैं। ऐसे में हिन्दी भाषा में पढ़ाई छात्रों में स्वत्व की भावना पैदा करेगी। जिस तरह से दूसरे विकसित देशों में ज्ञान, विज्ञान और तकनीक के क्षेत्रों में शोध व आविष्कार अपनी भाषाओं के माध्यम से होते हैं, भारत में भी कालांतर में यह स्थिति बन जाएगी। अभी तो हालात ये हैं कि एमबीबीएस और इंजीनियरिंग में जो छात्र मातृभाषाओं में पढ़कर आते हैं, उन्हें अंग्रेजी नहीं आने के कारण मानसिक प्रताड़ना की ऐसी स्थिति से गुजरना होता है कि आत्महत्या तक को विवश हो जाते हैं। दिल्ली एम्स में अनिल मीणा नाम के एक छात्र ने सुसाइट नोट में यह लिखकर आत्महत्या की थी कि मेरी समझ में अंग्रेजी नहीं आती है और शिक्षक व मेरे सहपाठी मेरी सहायता भी नहीं करते हैं। आईआईटी जैसे संस्थानों में भी कस्बाई क्षेत्रों से आने वाले छात्रों को ऐसे ही हालातों से दो-चार होना पड़ता है। अतएव देर आए, दुरुस्त आए कहावत चिकित्सा शिक्षा में लागू होती है।
हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से विज्ञान की शिक्षा दी जाए, इस दिशा में गृहमंत्री अमित शाह अहम् भूमिका निभा रहे हैं। चिकित्सा शिक्षा की हिन्दी माध्यम की पुस्तकें मध्यप्रदेश में तैयार कराकर एक बैच इनसे पढ़कर एमबीबीएस कर भी चुका है। यही पुस्तकें बिहार में सहायक हो सकती हैं। देश में इंजीनियरिंग की पढ़ाई को आठ भारतीय भाषाओं में कराने की स्वीकृति पहले ही दी जा चुकी है। भारत में हर तरह की उच्च और तकनीकी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। आज भारतीय समाज में ऐसी धारणा बन गई है कि हिन्दी माध्यम से पढ़ाई की तो उत्तम दर्जे के रोजगार प्राप्त करना मुश्किल है, इसलिए जैसे ही परिवार का मुखिया आर्थिक रूप से सक्षम होता है। अपने नौनिहालों को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दिलाने का प्रबंध कर देता है। इस कारण एक तरह से बच्चे न केवल अपनी भाषा से दूर होने लगते हैं, बल्कि अपनी सांस्कृतिक विरासत से भी उनकी स्वाभाविक रूप में दूरी बढ़ने लगती है। इसीलिए स्वाधीनता के बाद से ही भारतीय भाषाओं को विज्ञान व तकनीक विषयों के माध्यम बनाए जाने के प्रयास किए जाते रहे हैं। लेकिन नौकरशाही की चौखट पर जाकर सभी प्रयास दम तोड़ देते थे। किंतु मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चैौहान और अब नीतीश कुमार ने हिन्दी माध्यम से डॉक्टरी कराने का संकल्प ले लिया है।
इस शुरुआत के बाद राष्ट्रबोध से प्रेरित अनेक चिकित्सक हिन्दी में पर्चे लिख रहे हैं और छात्र किडनी व लीवर की संरचना हिन्दी में जानकर आत्मसंतोष का अनुभव कर रहे हैं। गजराजा चिकित्सा महाविद्यालय के पूर्व अधिष्ठाता डॉ. अक्षय निगम का कहना है कि इस नवाचार को पूरी ईमानदारी से करने की आवश्यकता है। उनका कहना है कि जब हमारे बच्चे चीन, रूस और अन्य देशों में जाकर उनकी भाषा में पढ़ाई कर सकते हैं, तो अपनी भाषा में क्यों नहीं पढ़-लिख सकते? हिन्दी तो आज पूरी दुनिया में बोली और समझी जाती है और हमारी अपनी भाषा है। वैसे भी समूचे हिन्दी क्षेत्र में छात्रों के लिए हिन्दी माध्यम मानसिक रूप से उत्साहित और प्रतिबद्ध करने वाला है। एक तरह से हिन्दी के लिए आदर्श वातावरण है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार केंद्र में जब से है, तभी से हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं के उत्थान और प्रयोग हेतु अनुकूल वातावरण बनाने के लगातार प्रयास हो रहे हैं। इसी कड़ी में नूतन राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अंतर्गत स्कूली शिक्षा हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में देने के प्रावधान किए गए हैं। बावजूद यह विडंबना है कि स्वाधीनता के इन 77 वर्षों में अंग्रेजी का प्रभुत्व कुछ इस तरह से खड़ा किया गया कि समस्त भारतीय भाषाएं शिक्षा और रोजगार से बेदखल होती चली जा रही हैं। यही स्थिति अदालतों, बैंकों और अन्य बड़े वाणिज्यिक संस्थानों में है। इसी का परिणाम रहा कि लोगों की यह मानसिकता अकारण बनती चली गई कि अंग्रेजी के बिना आजीविका के साधन जुटाना मुश्किल है। अंग्रेजी की वकालत करने वालों ने अंग्रेजियत की इस मंशा को कुछ इस ढंग से रचा कि 77 वर्षों में इसका रंग गहरे से गहरा होता चला गया। यह अच्छी बात है कि स्वाधीनता के इस अमृतकाल में हिन्दी विज्ञान की शिक्षा में समरसता एवं सामाजिक न्याय का आधार बन रही है।
वैश्वीकरण के दौर में विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में अनुसंधान और विकास की अवधारणा महत्वपूर्ण है। परतंत्रता की लंबी दासता का अभिशाप झेलने के कारण हमने अपनी ज्ञान परंपराओं को नकारा और हम पश्चिमोन्मुखी हो गए। जबकि हमारे यहां विज्ञान और गणित की श्रेष्ठतम परंपराएं थीं। शून्य और दशमलव की अवधारणा दुनिया को भारत ने दी। जिस सूक्ष्म (नैनो) तकनीक के आविष्कार की बात पश्चिमी देश करते हैं, वह भ्रामक हैं। वर्तमान में 400, 500 और 600 काउंट के महीन धागे देखने में आते हैं। लेकिन स्वाधीनता के पहले के अखण्ड भारत में ढाका और मुर्शिदाबाद में 2400 और 2500 काउंट का भी धागा बनता था। मात्र एक ग्रेन में 29 गज लंबा धागा। लेकिन जब फिरंगियों ने ढाका में सूती वस्त्रों के निर्माण का औद्योगिक कारोबार शुरू किया तो हाथों से महीन धागा कातने वाले कारीगरों के हाथों के अंगूठे काट दिए, ताकि उनका औद्योगिक विकास निर्बाध गति से बढ़ता रहे।
अक्सर कहा जाता है कि हिन्दी के पास शब्द सामर्थ्य कम है। जबकि सच्चाई यह है कि हिन्दी के शब्दकोश में सात लाख शब्दों का भंडार है और संस्कृत में बीस लाख शब्दों का। वृहद संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोश पुणे के डेक्कन कॉलेज में तैयार हो चुका है। इसमें एक-एक अंग्रेजी शब्द के बीस-बीस संस्कृत में पर्यावाची दिए हैं। अभी तक इतना बड़ा शब्दकोश अन्य किसी भाषा में नहीं है। हम जानते है कि संस्कृत ही वह भाषा है, जिससे भारत की अनेक भाषाओं समेत विदेशों की भी कई भाषाओं ने जन्म लिया है। इस शब्दकोश का पहला संस्करण 1976 में छपा था, इस पर आगे भी कार्य जारी है। जबकि अंग्रेजी केवल ढाई लाख शब्दों के कोश के होते हुए भी भारतीय भाषाओं की सिरमौर बनी बैठी है। यह देश और संविधान का दुर्भाग्य है कि संविधान के अनुच्छेद .19, 343, 346, 347, 350 और 351 में कहीं भी अंग्रेजी की अनिवार्यता का उल्लेख नहीं है। अनुच्छेद-19 में भारत के सभी नागरिकों को ‘अभिवयक्ति की स्वतंत्रता’ के अंतर्गत अपनी भाषा में विचार व्यक्त करने का मूल अधिकार दिया गया है। यह अभिव्यक्ति संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किसी भी भारतीय भाषा में हो सकती है।‘ किंतु संविधान द्वारा प्राप्त यह मूलाधिकार उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों के दरवाजे पर जाकर ठिठक जाता है।