मोदी की तीसरी शपथ
अजय सेतिया
मोदी की तीसरी शपथ
नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री के रूप में लगातार तीन बार शपथ लेकर नरेंद्र मोदी ने जवाहर लाल नेहरू की बराबरी कर ली है। वह इंदिरा गांधी से एक कदम आगे और मनमोहन सिंह से दो कदम आगे निकल गए हैं। गांधी परिवार और कांग्रेस को यह बात अच्छी नहीं लग रही कि कोई गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की बराबरी करे। वे चाहते हैं कि भारत के इतिहास में यह कभी नहीं लिखा जाए कि कोई नेहरू से भी अधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्री हुआ। आपातकाल में इंदिरा गांधी ने जमीन में काल पात्र गड़वा दिया था, जिसमें महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और स्वयं के ही गुणगान थे। सुभाषचन्द्र बोस, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे हजारों के बलिदान का उल्लेख तक नहीं था। ठीक उसी तरह इस तथ्य को झुठलाने के प्रयास शुरू हो गए हैं कि कोई भी नेहरू और इंदिरा का मुकाबला नहीं कर सकता। आने वाले कुछ दिनों तक कुतर्कों से यह नैरेटिव तोड़ने के भरपूर प्रयास किए जाएंगे कि मोदी ने तो तीन बार ही शपथ ग्रहण की है, नेहरू और इंदिरा ने तो चार बार शपथ ग्रहण की थी। पिछले दस वर्षों से भाजपा और नरेंद्र मोदी के विरुद्ध विदेशी चंदे से चलाई जा रही ‘प्रो-कांग्रेस-कम्युनिस्ट’ वेबसाइट ‘द वायर’ ने एक लेख लिखा है कि नेहरू और इंदिरा ने चार चार बार शपथ ग्रहण की थी। कुतर्कों के आधार पर यह लेख झेंप मिटाने और अपनी आत्म संतुष्टि के लिए लिखा गया है। लेकिन कबूतर के आँख बंद करने से बिल्ली भाग नहीं जाती।
हां यह सही है कि जवाहर लाल नेहरू ने चार बार शपथ ग्रहण की थी, लेकिन निर्वाचित प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने 1952, 1957 और 1962 में तीन बार ही शपथ ग्रहण की थी। लेकिन यह बिल्कुल सही नहीं है कि जवाहर लाल को सर्वसम्मति से पहला प्रधानमंत्री चुना गया था और उनकी लोकप्रियता का कोई मुकाबला नहीं था। तथ्य यह है, 1947 में उन्हें अंग्रेजों और महात्मा गांधी ने षड्यंत्र के अंतर्गत प्रधानमंत्री बनाया था। वह उस नियम के अनुसार भी चुने हुए प्रधानमंत्री नहीं थे, जो अंग्रेजों ने सत्ता हस्तांतरण के लिए तय किया था। समझौते में यह तय हुआ था कि कांग्रेस का अध्यक्ष ही प्रधानमंत्री होगा। उस समय मौलाना आजाद कांग्रेस अध्यक्ष थे, जिन्हें 1940 में रामगढ़ अधिवेशन में चुना गया था। दूसरे विश्व युद्ध और भारत छोड़ो आंदोलन के चलते उसके बाद अध्यक्ष का चुनाव नहीं हुआ था। लेकिन क्योंकि देश का बंटवारा मजहब के आधार पर हुआ था, और मुसलमानों ने अपना अलग देश पाकिस्तान बना लिया था, इसलिए महात्मा गांधी भी नहीं चाहते थे कि मौलाना आजाद देश के पहले प्रधानमंत्री बनें, क्योंकि इससे हिन्दुओं में उनके विरुद्ध रोष और बढ़ जाता, जो बंटवारे के कारण पहले से ही पैदा हो चुका था। इसलिए उन्होंने नए अध्यक्ष का चुनाव करवाने की प्रक्रिया शुरू करवाई। मौलाना आजाद अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ना चाहते थे, लेकिन 20 अप्रैल 1946 को महात्मा गांधी ने स्पष्ट कहा कि वह जवाहर लाल नेहरू को अध्यक्ष पद पर देखना चाहते हैं। कांग्रेस की प्रदेश कमेटियों को अध्यक्ष पद के लिए अपनी च्वाइस बतानी थी। गांधी की इच्छा के विरुद्ध पन्द्रह राज्यों की कांग्रेस कमेटियों में से 12 राज्य कमेटियों ने सरदार पटेल को अध्यक्ष पद के लिए चुना था। नेहरू का नाम किसी एक प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने भी नहीं भेजा था। इससे परेशान हो कर गांधी ने कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों से नेहरू का नाम आगे बढ़वाया, जिन्हें पार्टी संविधान के अनुसार कोई अधिकार ही नहीं था। इस लिए इस का विरोध हुआ, तो गांधी ने सरदार पटेल से कहा कि वह अध्यक्ष पद की दौड़ से पीछे हट जाएं। गांधी ने मौलाना आज़ाद को भी जवाहर लाल नेहरू का समर्थन करने के लिए मनाया। मौलाना आजाद ने 29 अप्रैल 1946 को नेहरू के पक्ष में बयान जारी किया। गांधी के दबाव में सरदार पटेल ने पद का त्याग किया, तब जा कर नेहरू पार्टी अध्यक्ष और प्रधानमंत्री बन पाए। लेकिन 1959 में प्रकाशित अपनी जीवनी में मौलाना आज़ाद ने लिखा है कि सरदार पटेल की बजाए नेहरू का समर्थन करके उन्होंने अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल की थी। देश तो छोडिए, पार्टी ने भी उन्हें प्रधानमंत्री नहीं चुना था। इसलिए उनकी पहली शपथ निर्वाचित नहीं, अलोकतांत्रिक और षड्यंत्र करके बने अनैतिक रूप से थोपे गए प्रधानमंत्री के रूप में हुई थी। पांच वर्ष तक वह देश पर थोपे गए प्रधानमंत्री थे। पांच वर्ष उन्होंने देश के चुनाव नहीं करवाए। निर्वाचित प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने 1952, 1957 और 1962 में तीन बार शपथ ग्रहण की। उन्होंने चार बार शपथ अवश्य ग्रहण की थी, लेकिन लगातार चुने हुए प्रधानमंत्री के रूप में नहीं।
2024 की तुलना स्वाधीनता के तुरंत बाद की परिस्थितियों से नहीं की जा सकती। तब नेहरू उस कांग्रेस के नेता थे, जिसने स्वाधीनता के आन्दोलन में हिस्सा लिया था। वह उन गांधी के कृपा पात्र थे, जो स्वतंत्रता की लड़ाई के एक हीरो थे। देश की जनता ने तीनों बार नेहरू को नहीं कांग्रेस को चुना था। लोकप्रियता नेहरू की नहीं, कांग्रेस की थी, जिसका प्रयोग नेहरू और उनका परिवार अपने हित में करता रहा था। जवाहर लाल नेहरू अपने देहांत 27 मई, 1964 तक यानि 16 वर्ष 286 दिन प्रधानमंत्री रहे, जिस में से थोपे गए प्रधानमंत्री के रूप में पांच वर्ष निकाल दें, तो वह 11 वर्ष 286 दिन ही निर्वाचित प्रधानमंत्री के रूप में रहे।
कहा जा रहा है कि इंदिरा गांधी ने भी चार बार शपथ ग्रहण की थी, इसलिए मोदी ने तीसरी बार शपथ ग्रहण करके कोई तीर नहीं मार लिया है। तो इंदिरा गांधी ने भी सिर्फ तीन बार ही निर्वाचित प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की थी। वे 1966 में लाल बहादुर शास्त्री के देहांत के उपरांत प्रधानमंत्री बनी थीं। प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए 1967 के लोकसभा चुनावों में जब कांग्रेस ने चौथी बार जीत प्राप्त की, तो वह पहली बार जनादेश से चुनी हुई प्रधानमंत्री बनीं। तदुपरांत पाकिस्तान से युद्ध जीतने के बाद इंदिरा गांधी ने अपनी बढ़ी हुई लोकप्रियता को भुनाने के लिए 1972 की बजाए 1971 में चुनाव करवा दिए और जीत प्राप्त की, तो दूसरी बार निर्वाचित प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की। वह लगातार दो बार ही चुनाव जीत कर प्रधानमंत्री बनीं। 1971 में उनका स्वयं का सांसद के रूप में चुनाव रद्द का दिया गया था, तो उन्होंने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने की बजाए देश पर आपातकाल लगा कर विपक्षी नेताओं को जेल में डाल कर लोकतंत्र की हत्या कर दी थी। चुनाव के तय समय से एक वर्ष बाद 1971 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस और वह स्वयं भी लोकसभा चुनाव हार गई थीं। इसलिए इंदिरा गांधी ने निर्वाचित प्रधानमंत्री के रूप में लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ नहीं ली थी, जैसी कि इस बार नरेंद्र मोदी ने लगातार तीसरी बार निर्वाचित प्रधानमंत्री की शपथ ली है। इंदिरा गांधी 24 जनवरी 1966 से 24 मार्च 1971 तक लगातार 11 साल 2 महीने प्रधानमंत्री रहीं। फिर 1980 में जीतने के बाद 14 जनवरी 1980 से 31 अक्टूबर 1984 में अपनी हत्या तक चार वर्ष साढ़े नौ महीने प्रधानमंत्री रहीं। लगातार तीसरा चुनाव जीत कर नरेंद्र मोदी ने निश्चित रूप से जवाहर लाल नेहरू की बराबरी कर ली है। इंदिरा गांधी लगातार तीसरा चुनाव नहीं जीत पाई थीं। 1971 के तीसरे चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ 154 लोकसभा सीटें मिली थीं, जबकि तीसरे चुनाव में भाजपा को भले ही स्वयं को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला, लेकिन वह 240 सीटें जीती है। अपने तीसरे चुनाव में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस 1971 में जीती हुई 198 सीटें 1971 में हार गई थी, जबकि 2024 के अपने तीसरे चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा 2019 में जीती हुई सिर्फ 63 सीटें हारी है। इसलिए मोदी लोकप्रियता में इंदिरा गांधी से आगे निकल गए हैं। इंदिरा गांधी में निर्वाचित प्रधानमंत्री के रूप में तीसरी बार 1980 में शपथ अवश्य ली थी, लेकिन बीच में 1971 का चुनाव हारने के बाद। कार्यकाल के लिहाज से मोदी जरूर अभी नेहरू और इंदिरा गांधी से बहुत पीछे हैं, चौथा चुनाव जीत कर ही उन दोनों की बराबरी कर सकते हैं।