अमर गीत वैष्णव जन तो तैणे कहिए के रचयिता नरसी भगत

अमर गीत वैष्णव जन तो तैणे कहिए के रचयिता नरसी भगत

नरसी मेहता जयंती 

अमर गीत वैष्णव जन तो तैणे कहिए के रचयिता नरसी भगतअमर गीत वैष्णव जन तो तैणे कहिए के रचयिता नरसी भगत

‘वैष्णव जन तो तैणे कहिए पीर पराई जाने रे’ नामक भजन जिसे विश्व और भारत के लाखों लोगों द्वारा गांधी जी के सबसे प्रिय भजन के रूप में जाना जाता है और भारत में जिसे एक अनधिकृत राष्ट्रगान का स्थान और सम्मान प्राप्त है, उस भजन के रचयिता पन्द्रहवीं सदी के अग्रणी संत और गुजराती भाषा के कवि नरसिंह मेहता थे। उन्हें नरसी मेहता या नरसी भगत के नाम से भी जाना जाता है।

नरसी मेहता वैष्णव हिन्दू धार्मिक परंपरा के कवि थे। वह चार शताब्दियों से अधिक समय तक गुजरात के आदि कवि के रूप में एक पूजनीय व्यक्तित्व रहे। उन्होंने गुजराती काव्य को उच्चतम संगीत और दार्शनिक अभिव्यक्ति के स्तर तक पहुंचाया। नरसिंह ने कविता, गीत, गाथा गीत और छंद के रूप में जो कुछ भी रचा, वह व्यापक रूप से लोगों के अभिवादन, शिष्टाचार, उत्सव और लोकचेतना में समाहित हो गया। उनकी साहित्यिक रचनाएं सदियों से सौराष्ट्र क्षेत्र की हवाओं में व्याप्त थीं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी श्रुति व गायन के माध्यम से गांधी युग तक पहुंचीं और विश्व स्तर पर सनातन हिन्दू चेतना का एक संदेश बन गईं। 

नरसी भगत न केवल भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे बल्कि अत्यंत साहसी समाज सुधारक भी थे। अनुसूचित जाति के लोगों को “हरिजन” नाम से बुलाना उनके मस्तिष्क की ही उपज था। जिसे गांधी जी ने अपनाया और उन्हें अभूतपूर्व प्रसिद्धि मिली।

नरसी भगत के भजन का केंद्रीय विषय सहानुभूति है अर्थात दूसरे व्यक्ति के दुख के साथ अपना सहचर्य स्थापित करने की क्षमता। उनका मानना था कि किसी व्यक्ति को तभी धार्मिक मानें, जब वह दूसरे की पीड़ा को अनुभव कर उसे दूर करने का प्रयास करे।

गुजराती साहित्य के आदि कवि व संत नरसी मेहता का जन्म 1414 ई. में जूनागढ़ (सौराष्ट्र) के निकट, तलाजा ग्राम में एक नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था। माता-पिता का बचपन में ही देहांत हो गया था। वह 8 साल की आयु तक बोल नहीं पाते थे। कहा जाता है कि एक वैष्णव संत के आशीर्वाद से उन्हें अपनी वाणी वापस मिली। वे अधिकांश समय संतों की मंडलियों के साथ घूमा करते थे। 15-16 वर्ष की आयु में उनका विवाह मानेकबाई से हो गया। कोई काम न करने पर भाभी उन पर बहुत नाराज होती थी। एक दिन उनकी फटकार से व्यथित नरसिंह गोपेश्वर के शिव मंदिर में जाकर तपस्या करने लगे। मान्यता है कि सात दिन के बाद उन्हें शिव के दर्शन हुए, तब उन्होंने कृष्ण भक्ति और कृष्ण दर्शनों का वरदान मांगा। द्वारका में उन्हें रासलीला के दर्शन हुए। इसके बाद नरसिंह का जीवन पूरी तरह से बदल गया। प्रबुद्ध और परिवर्तित मेहता अपने गांव लौटे, अपनी भाभी के पैर छुए। इसके बाद भाई का घर छोड़कर वे जूनागढ़ में अलग रहने लगे। उनका निवास स्थान आज भी ‘नरसिंह मेहता का चौरा’ के नाम से प्रसिद्ध है। 

नरसी भगत हर समय कृष्णभक्ति में लीन रहते थे। छुआ-छूत वे नहीं मानते थे और हरिजनों की बस्ती में जाकर उनके साथ भजन कीर्तन किया करते थे। मेहता अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ गरीबी में रहते थे। पिता के श्राद्ध और विवाहित पुत्री की ससुराल में उसकी गर्भावस्था में सामग्री भेजते समय उन्हें दैवीय सहायता मिली। उनकी बेटी कुंवरबाई का विवाह श्रीरंग मेहता से हुआ था। गुजरात में गर्भवती के सातवें महीने के दौरान लड़की के माता-पिता द्वारा सभी ससुराल वालों को उपहार देने के लिए मामेरू नाम की एक परम्परा है। जब कुंवरबाई गर्भवती हुईं, तो नरसिंह के पास अपने प्रभु पर दृढ़ विश्वास के अलावा कुछ नहीं था। कहा जाता है कि उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने उनकी सहायता की थी। नरसी भगत ने उसी पर एक कविता की रचना की है, जो ‘मामेरू ना पाडा’ के नाम से प्रसिद्ध है। जब उनके पुत्र का विवाह बड़े नगर के राजा के मंत्री की पुत्री के साथ तय हो गया। तब भी नरसिंह मेहता ने द्वारका जाकर प्रभु को बारात में चलने का निमंत्रण दिया। प्रभु श्यामल शाह सेठ के रूप में बारात में गए और ‘निर्धन’ नरसिंह के बेटे की बारात के ठाठ देखकर लोग चकित रह गए। मेहता ने अपनी पुस्तक ‘पुत्र विरह ना पाडा’ में दर्शाया है कि कैसे एक समृद्ध व्यापारी की आड़ में श्रीकृष्ण ने मेहता की उनके बेटे के विवाह में सहायता की। निर्धनता के अतिरिक्त उन्हें अपने जीवन में पत्नी और पुत्र की मृत्यु का वियोग भी झेलना पड़ा था। पर उन्होंने अपने योगक्षेम का पूरा भार अपने इष्ट श्रीकृष्ण पर डाल दिया था। 

अपने जीवन के बाद के चरण में, वे मंगरोल चले गए, जहां, 79 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। मंगरोल स्थित श्मशान को आज भी ‘नरसिंह नू समशान’ कहा जाता है।

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