नीमूचाणा किसान आंदोलन: जब अंग्रेजी षड्यंत्र के अंतर्गत भून दिए गए किसान

नीमूचाणा किसान आंदोलन: जब अंग्रेजी षड्यंत्र के अंतर्गत भून दिए गए किसान

नीमूचाणा किसान आंदोलन: जब अंग्रेजी षड्यंत्र के अंतर्गत भून दिए गए किसाननीमूचाणा किसान आंदोलन: जब अंग्रेजी षड्यंत्र के अंतर्गत भून दिए गए किसान

ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी यानि 14 मई 1925 का दिन……। एक ऐसा दिन जिसे भुलाया नहीं जा सकता। नीमूचाणा गांव के जर्जर घर, गोलियों से छलनी हवेलियों की दीवारें, कुएं और गांव वालों की दुखती स्मृतियां आज भी उस भयावह सुबह की याद दिलाती हैं, जब नीमूचाणा में इकट्ठे हुए किसानों को अंग्रेजी षड्यंत्र के चलते गोलियों से भून दिया गया था। इतिहास के पन्नों में किसानों का यह आंदोलन नीमूचाणा किसान आंदोलन के नाम से दर्ज है। यह आंदोलन लगान व्यवस्था में अंग्रेजों के राजनैतिक हस्तक्षेप के विरुद्ध था, जो 20वीं शताब्दी में अपने चरम पर पहुंच गया था। तब किसानों द्वारा आंदोलन की राह पकड़ना स्वाभाविक ही था। जिसे दबाने के लिए अंग्रेजों ने यह ‘वीभत्स’ षड्यंत्र रचा-बुना था।

जयपुर। एक ओर ‘प्राइम मिनिस्टर’ का शासन चक्र तो दूसरी ओर ‘नरेंद्र मण्डल कमीशन’। इन दोनों को आधार बनाकर धूर्त अंग्रेजों ने नीमूचाणा के लिए एक ‘व्यूह’ रचना की थी। वे जानते थे कि अलवर के राजा जयसिंह को अपनी प्रजा के विरुद्ध करना कठिन है क्योंकि यहॉं राजा और प्रजा के बीच अच्छा समन्वय था। जिसे देख लॉर्ड चेम्सफ़ोर्ड, जो 1916 से 1921 ई. तक भारत का वॉइसराय था, ने कहा भी “अलवर का शासन प्रबंध उत्तम है। जिस पर अलवर नरेश का पूरा ध्यान है। ऐसे में कृषक और प्रजा सुखी रहेगी।”

कैबिनेट की जगह ‘प्राइम मिनिस्टर’ शासन

अंग्रेजों ने राजा को प्रजा के सामने उनका दुश्मन बनाने की योजना बनाई और छल को अपना शस्त्र। उन्होंने देशभक्त राजाओं को तोड़ने के लिए नरेंद्र मंडल कमीशन की स्थापना की। जिसके अंतर्गत उन्होंने व्यवस्था दी कि “ऐसे राजा जिनकी प्रजा उनसे असंतुष्ट है या उनकी शासन व्यवस्था में कोई कमी है तो उन्हें गद्दी त्यागनी होगी।” यह वह समय था जब राजपूताना, जयपुर में कैबिनेट शासन व्यवस्था थी। जिसके अंतर्गत राजा परामर्श से ही शासन चलाया करते थे। किंतु अलवर में शासन चलाने के लिए प्राइम मिनिस्टर नियुक्त था। षड्यंत्र के अंतर्गत रियासत का भू राजस्व बढ़ा दिया गया। किसान त्राहि त्राहि करने लगे। वे राजा से इस बात का उत्तर चाहते थे। लेकिन अंग्रेजों द्वारा नियुक्त प्रधानमंत्री / राजनैतिक एजेंट ने किसानों को राजा तक अपनी बात पहुंचाने का अवसर ही नहीं दिया। इससे किसान भड़क उठे। उन्होंने अलवर शासन व्यवस्था के विरोध में विद्रोह कर दिया। उनके इस विरोध में गांव वाले भी समर्थन में आ गए। यही वो क्षण था जिसकी प्रतीक्षा अंग्रेज लंबे समय से कर रहे थे।

‘सेशन जज’ की अनुमति के बिना चली गोलियां

क्रांतिकारी किसानों ने अंग्रेजी शासन के विरोध और भू-राजस्व कर पर चर्चा के लिए बानसूर तहसील के नीमूचाणा गांव में एक सभा बुलाई। चूंकि नीमूचाणा गांव सुरक्षात्मक दृष्टि से उपयुक्त था, इसलिए गुप्त रूप से यहां सभा रखी गई थी। फिर वो ज्येष्ठ मास की सप्तमी तिथि व तारीख आई 14 मई 1925…। अंग्रेजी सेना ने नीमूचाणा गांव की घेराबंदी कर ली। सुबह का समय था। किसानों की इस सभा में गांव के हर आयु वर्ग के लोग- बच्चे, बूढ़े, युवा, महिलाएँ सब पहुंच रहे थे। तभी अंग्रेजों द्वारा नियुक्त राजनैतिक एजेंट छाजूसिंह जो, नीमूचाणा हत्याकांड यानी देश का एक और गद्दार साबित हुआ, ने किसानों को बिना चेतावनी दिए गोलियां चलवा दीं। हत्याकांड के तीन दिन पहले यानी 11 मई 1925 को ज्यूडिशियल मिनिस्टर ने एक आदेश दिया था, जिसमें सभा होने पर पहले चेतावनी देने, पालना नहीं होने पर किसान नेताओं को गिरफ्तार करने के आदेश थे” लेकिन छाजूसिंह ने इस आदेश को न मानते हुए अपने ही बंधु बांधवों पर गोलियां चलाने का आदेश दे दिया। गोलियों से बचने के लिए लोग घरों की ओर भागे तो उनके घर जला दिए गए, प्यास से व्याकुल लोग कुओं की ओर दौड़े तो उन्हें तड़पा-तड़पा कर मारा गया। चारों ओर चीख-पुकार, दर्द पसर गया। अंधाधुंध गोलियों से सैकड़ों मारे गए, घायल हुए व कई लापता हो गए। नीमूचाणा की पवित्र धरती इन क्रांतिकारियों के खून से लाल हो उठी। 

इतिहासकार भगवानदास केला लिखते हैं, “दो घंटे तक फायरिंग चलती रही। मशीनगन 42 मिनट तक काम में ली गई। सेना ने महिला, बच्चों और जानवरों तक को नहीं छोड़ा।”

आंकड़े बताते हैं

सरकारी आंकड़ों पर दृष्टि डालें तो, अंग्रेजी सेना के आदेश पर ‘नीमूचाणा किसान आंदोलन’ का दमन करने के लिए 4 मशीनगनें, 2 तोपें, 200 पैदल सैनिक और लगभग 100 घुड़सवार सैनिकों को भेजा गया था। हालांकि एक अन्य आंकड़ा बताता है कि इस घटना में डेढ़ हजार से अधिक किसान मारे गए थे और लगभग 600 से अधिक घायल हुए थे। पूरे देश में इस हत्याकांड की बहुत आलोचना हुई। इस वीभत्स नरसंहार की पूरे देश में जलियांवाला बाग हत्याकांड से तुलना की गई थी। इतिहास के काले पन्नों में अंकित हमारे अन्नदाताओं का यह लोमहर्षक नरसंहार स्वाधीनता के 75 वर्ष गुजर जाने के बाद भी एक सम्मानजनक स्थिति पाने के लिए तरस रहा है। इसके लिए सरकार को चाहिए वो हमारे उन अनगिनत वीर किसानों की याद में राष्ट्रीय स्मारक बनाए। साथ ही इस वीभत्स घटना के दिन को विशेष दिवस, स्मृति दिवस के रुप में घोषित किया जाए। जो इन वीर क्रांतिकारियों के प्रति एक सच्ची श्रंद्धाजलि होगी। जिससे ना सिर्फ हम लोग बल्कि हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए भी उनका बलिदान एक प्रेरणा बन सके।

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