एक देश एक चुनाव
हृदयनारायण दीक्षित
एक देश एक चुनाव
हम भारत के लोग अक्सर चुनाव तनाव में रहते हैं। लोकसभा चुनाव अभी अभी संपन्न हुए हैं। कुछ दिन बाद बिहार, महाराष्ट्र, नई दिल्ली आदि विधानसभाओं के चुनाव होने हैं। नगरीय क्षेत्रों व पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव भी सामाजिक तनाव पैदा करते हैं। लगातार चुनाव व्यस्तता राष्ट्रीय विकास में बाधक है। चुनावों के दौरान प्रशासनिक तंत्र की अलग व्यस्तता बनी रहती है। चुनावी अचार संहिता के दौरान विकास कार्य भी रुक जाते हैं। अलग अलग चुनावों में अरबों रुपए का व्यय होता है। इसलिए सभी चुनावों को एक साथ कराने का विचार महत्वपूर्ण हो गया है।
भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के चुनाव घोषणा पत्र में ही ‘एक देश एक चुनाव‘ का विचार व्यक्त किया था। विषय पर विचार करने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति बनी थी। समिति ने 47 राजनैतिक दलों से सुझाव प्राप्त किए। 32 दलों ने एक साथ चुनाव का समर्थन किया। समिति ने 18,626 पृष्ठों वाली रिपोर्ट राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को बीते मार्च में प्रस्तुत की थी। समिति ने चार पूर्व मुख्य न्यायधीशों, उच्च न्यायालय के 12 मुख्य न्यायधीशों, चार पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों, 8 राज्य चुनाव आयुक्तों जैसे विधि विशेषज्ञों से परामर्श मांगे थे। नागरिकों से 21,558 सुझाव प्राप्त हुए। विधि आयोग ने 2018 में एक प्रारूप रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। अब समिति ने इस प्रसंग से जुड़े सभी मसलों पर व्यापक रिपोर्ट प्रस्तुत की है।
केन्द्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने अग्रिम कार्यवाही के लिए काम शुरू कर दिया है। समिति ने महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं। समिति ने लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनाव एक साथ कराने का प्रस्ताव किया है। समिति ने एक साथ चुनाव के लिए संविधान में संशोधनों की रूपरेखा भी प्रस्तुत की है। एक साथ चुनाव के लिए नियत तारीख निर्दिष्ट करने का अधिकार देने के लिए समिति ने संविधान के अनुच्छेद 82 में संशोधन का सुझाव दिया है। एक साथ चुनाव की प्रक्रिया शुरू करने के लिए ‘नियत तारीख‘ तय करने की सिफारिश की गई है। नियत तारीख के बाद जहाँ राज्य विधानसभाओं के चुनाव होने हैं, वे एक साथ चुनाव कराने की सुविधा के लिए संसद के साथ समन्वित कर लेंगे।
समिति ने कहा है कि 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद सिफारिशों को स्वीकार करने और लागू करने पर संभवतः पहला एक साथ चुनाव 2029 में हो सकता है। यदि 2034 के चुनावों को लक्षित किया जाता है तो वर्ष 2029 के लोकसभा चुनाव के बाद नियत तारीख की पहचान होगी। तब जिन राज्यों में जून 2024 और मई 2029 के मध्य चुनाव होने हैं, उनका कार्यकाल 18वीं लोकसभा के साथ समाप्त हो जाएगा। राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल का प्रभाव नहीं पड़ेगा। संसद या राज्य विधानसभा के समय से पहले भंग होने की स्थिति में समन्वय बनाए रखने के लिए समिति ने एक साथ चुनाव के अगले चक्र तक शेष कार्यकाल के लिए नए चुनाव कराने की सिफारिश की है। समिति का तर्क है कि त्रिशंकु सदन या अविश्वास प्रस्ताव एक साथ चुनाव की समग्र समय सीमा को प्रभावित नहीं करता।
संसदीय चुनावों के साथ नगर पालिका और पंचायतों के चुनाव का समन्वय जरूरी है। लोकसभा, विधानसभा और नगरीय पंचायती क्षेत्रों की मतदाता सूची में भी अंतर होते हैं। समिति ने संविधान के अनुच्छेद 324 के अधीन कानून बनाने का परामर्श दिया है। यह कानून स्थानीय निकायों के चुनाव कार्यक्रम को राष्ट्रीय चुनाव समय सीमा के साथ जोड़ेगा। केन्द्रीय चुनाव आयोग राज्य चुनाव आयोगों के परामर्श से सभी स्तरों पर एकल मतदाता सूची और मतदाता फोटो पहचान पत्र तैयार करने के लिए सक्षम बनाएगा। अभी तक लोकसभा चुनाव के लिए मतदाता सूची तैयार करने की जिम्मेदारी केन्द्रीय चुनाव आयोग पर है और स्थानीय निकायों के लिए मतदाता सूची राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा तैयार की जाती है। समिति ने दोनों की एक ही मतदाता सूची तैयार करने का सुझाव दिया है। कभी कभी मतदाता सूची में नाम न होने और जीवित को मृतक और मृतक को जीवित रूप में मतदाता सूची में दर्ज किया जाता है। इसलिए सूची को प्रामाणिक बनाने का आग्रह है।
सभी संवैधानिक प्रतिनिधि संस्थाओं के चुनाव एक साथ कराने का विचार विशेष राजनैतिक सुधार है। भारत में राजनैतिक सुधार विशेषतया चुनाव सुधार की गति बहुत धीमी है। यह एक प्रशंसनीय राजनैतिक सुधार है। कुछ टिप्पणीकार तर्क देते हैं कि इससे संघवाद को क्षति होगी। यह कहना गलत है। सभी राज्य एक साथ एक चुनाव में राज्यों व केन्द्र के मुद्दे एक साथ उठाएंगे। भारतीय संघ अमेरिकी संघवाद नहीं है। यहाँ राज्य भारत के अभिन्न अंग हैं। संविधान सबको बाँधकर रखता है।
एक साथ चुनाव से नुकसान की बात करने वाले भूल जाते हैं कि 1951-52 में पहली लोकसभा, राज्य विधानसभाओं के चुनाव साथ साथ हुए थे। साथ साथ चुनाव का क्रम 1967 तक चला। 1968 से यह क्रम भंग हो गया। साथ साथ चुनाव से राष्ट्रीय दल क्षेत्रीय दलों द्वारा उठाए जाने वाले मुद्दों से जुड़ेंगे। क्षेत्रीय दलों की दृष्टि अखिल भारतीय होगी। एक साथ चुनाव के विरोधी अनावश्यक रूप से घबराए हुए हैं। साथ साथ चुनाव से आम जनों में राजनैतिक जागरूकता बढ़ेगी। वे राष्ट्रीय मुद्दों के साथ क्षेत्रीय मुद्दे भी देखेंगे। क्षेत्रीय दल स्थानीयता से ऊपर उठेंगे। राष्ट्रीय दल क्षेत्रीय कठिनाइयों को समझने का प्रयास करेंगे।
अनेक दल 18,626 पृष्ठ की रिपोर्ट को बिना पढ़े ही खारिज कर रहे हैं। कांग्रेस ने कहा कि, ‘‘‘वन नेशन वन इलेक्शन‘ लागू करने से संविधान की बुनियादी संरचना में बदलाव होंगे। यह संघवाद के विरुद्ध है।‘‘ टीएमसी ने कहा, ‘‘यह असंवैधानिक है। राज्य के मुद्दों को दबाया जा सकता है।‘‘ एआईएमआईएम ने प्रस्ताव की संवैधानिक वैधता पर प्रश्न उठाए हैं। सीपीआई (एम) ने भी प्रस्ताव की आलोचना की। डीएमके का तर्क है कि वन नेशन वन इलेक्शन कराने के लिए राज्य विधानसभाओं को समय से पहले भंग करने की आवश्यकता होगी। नागा पीपुल्स फ्रंट का मानना है कि एक साथ चुनाव कराने से क्षेत्रीय मुद्दों की अनदेखी होगी। इससे संघीय ढांचा कमजोर हो जाएगा। सपा ने कहा कि, ‘‘इससे राष्ट्रीय मुद्दे क्षेत्रीय मुद्दों पर प्रभावी होंगे।‘‘ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि, ‘‘एक साथ चुनाव का विचार संकीर्ण राजनैतिक दृष्टि से ऊपर उठकर देखा जाना चाहिए।‘‘
भाजपा, एनपीपी, एआईएडीएमके, आल झारखण्ड स्टूडेंट्स यूनियन, अपना दल (सोनेलाल), असम गण परिषद, लोक जनशक्ति पार्टी एक साथ चुनाव का समर्थन कर रहे हैं। दरअसल संविधान निर्माताओं ने सरकारी जवाबदेही को महत्व दिया था। संवैधानिक जवाबदेही का सीधा अर्थ है सदन का सरकार के प्रति विश्वास। इसीलिए कार्यकाल के पहले ही सदन में बहुमत खोते ही सरकारें गिर जाती हैं। एक साथ चुनाव में ऐसी सारी समस्याओं का समाधान है। इसे लागू करने के लिए संविधान अनुच्छेद 82-83, अनुच्छेद 172, अनुच्छेद 324 और 356 में कतिपय संशोधन करने पड़ सकते हैं। कोई भी देश लगातार चुनावी मोड में नहीं रह सकता। चुनावी आरोप, व्यक्तिगत आक्षेप समाज की चेतना को घायल करते हैं। सामाजिक अंतर्संगीत टूटता है। चुनाव तनाव के घाव भर भी नहीं पाते कि कोई न कोई चुनाव आ जाते हैं। साथ साथ चुनाव के लिए पूरा देश तैयार है।