मोदी के विरुद्ध अमेरिकी हाथों में खेलता विपक्ष

मोदी के विरुद्ध अमेरिकी हाथों में खेलता विपक्ष

अजय सेतिया

मोदी के विरुद्ध अमेरिकी हाथों में खेलता विपक्षमोदी के विरुद्ध अमेरिकी हाथों में खेलता विपक्ष

बाग्लादेश में जिस दिन शेख हसीना ने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दिया था, उस दिन भारत में मोदी विरोधी राजनीतिक दलों और पत्रकारों ने उत्सव मनाया था। शेख हसीना को भारत की मित्र माना जाता है, क्योंकि वह उन मुजीबर रहमान की बेटी हैं, जिन्हें समर्थन दे कर इंदिरा गांधी ने अलग बांग्लादेश बनाने में सहायता की थी। शेख हसीना भारत की मित्र हैं, नरेंद्र मोदी या मोदी सरकार की मित्र नहीं। भारत में सरकार कोई भी हो उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। दूसरी तरफ खालिदा जिया को हमेशा भारत के मुकाबले चीन और पाकिस्तान की समर्थक माना जाता रहा है। फिर क्या कारण हो सकता है कि शेख हसीना के हटने पर मोदी सरकार विरोधी राजनीतिक दलों और मीडिया ने उत्सव मनाया। देश के एक बड़े हिन्दी न्यूज चैनल के संपादक स्तर के मोदी विरोधी पत्रकार ने अपने एक्स हैंडल पर लिखा था, ‘श्रीलंका के बाद बांग्लादेश और उसके बाद भारत।’ शेख हसीना के त्यागपत्र के बाद जब बांग्लादेश में हिन्दुओं पर हमले शुरू हुए तो उसी चैनल पर चर्चा में उसी पत्रकार ने अपने साथी के साथ चर्चा करते हुए कहा कि भारत सरकार और भारत के हिन्दुओं को यह समझना चाहिए कि यह बांग्लादेश का अंदरूनी मामला है।

पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश में जो कुछ हुआ है, उसके पीछे अमेरिका का हाथ था, इसके कई प्रमाण सामने आ चुके हैं। इमरान खान और शेख हसीना दोनों ने ही अपनी सरकारों के तख्ता पलट में अमेरिका का हाथ होने की बात कही है। दोनों सरकारों के तख्ता पलट में अमेरिका के डिप्टी सक्रेटरी डोनाल्ड लू की भूमिका सामने आई है। इमरान खान और शेख हसीना दोनों ने ही डोनाल्ड की लू का बाकायदा नाम लिया है कि उसने अमेरिका की तरफ से कुछ मांगें रखी थीं, जिन्हें उन्होंने मानने से इनकार कर दिया था। अब प्रश्न पैदा होता है कि मोदी विरोधी राजनीतिक दलों और पत्रकारों ने उत्सव क्यों मनाया और यह भविष्यवाणी कैसे की कि अब भारत की बारी है। क्या इन सब लोगों के तार अमेरिका से जुड़े हैं? नरेंद्र मोदी और शेख हसीना में एक बात समान है, वह यह कि दोनों ही कूटनीतिक मामलों में अपने देश को प्राथमिकता देते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पन्द्रह अगस्त को लाल किले की प्राचीर से भी नेशन फर्स्ट की प्रतिबद्धता दोहराई है। भारत पर दृष्टि रखने के लिए चीन ने बांग्लादेश से सोनादिया द्वीप मांगा था, जिस पर खालिदा जिया ने लगभग सहमति दे दी थी, लेकिन चुनावों में जब खालिदा जिया हार गईं और शेख हसीना की आवामी लीग जीत गई, तो शेख हसीना सरकार ने सोनादीया द्वीप चीन को देने से इनकार कर दिया था। बांग्लादेश के सेंट मार्टिन द्वीप पर तो अमेरिका की नजर 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद से थी। अमेरिका ने मुजीबर रहमान पर भी दबाव बनाया था। 

अभी अमेरिका ने शेख हसीना पर ज्यादा दबाव बना दिया था। नरेंद्र मोदी की तरह शेख हसीना की प्रतिबद्धता नेशन फर्स्ट की थी। शेख हसीना ने भारत के साथ अपनी दोस्ती निभाई, वह न कभी चीन के हाथ में खेलीं, न अमेरिका के हाथ में। अमेरिका की मोदी सरकार से नाराजगी की वजह यह है कि मोदी के नेतृत्व में भारत ने यूक्रेन-रूस युद्ध के दौरान अमेरिका की सलाह को नजरअंदाज करके रूस से तेल की खरीददारी की। मोदी ने साफ कहा कि भारत अपने हित की कूटनीति करेगा, किसी के हित की नहीं।

भारत के मोदी विरोधी राजनीतिक दलों और मोदी विरोधी मीडिया को यह बात अच्छी तरह मालूम है कि अमेरिका मोदी को पसंद नहीं करता। ऐसा नहीं है कि नरेंद्र मोदी को यह जानकारी नहीं है कि अमेरिका की जो बाईडन

 

सरकार उन्हें तीसरी बार प्रधानमंत्री देख कर खुश नहीं है। अमेरिका और चीन भले ही आपस में दुश्मन हैं, लेकिन इन दोनों देशों को मजबूत भारत स्वीकार नहीं है और स्वतंत्र कूटनीति वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो कतई पसंद नहीं। यही बात शेख हसीना के साथ भी थी, इसलिए विपक्षी दल और मोदी विरोधी मीडिया आश्वस्त है कि अमेरिका और चीन अब मोदी को निपटाएंगे।

बांग्लादेश में छात्र आन्दोलन आरक्षण के विरुद्ध शुरू हुआ था, लेकिन उसे पाक समर्थक कट्टरपंथी जमात-ए- इस्लामी और चीन समर्थक खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने अपने हाथ में ले लिया। इधर अमेरिका ने बांग्लादेश की सेना के माध्यम से कमान अपने हाथ में लेना शुरू कर दिया। यह आश्चर्य की बात है कि पाकिस्तान हो या बांग्लादेश, दोनों ही देशों में अमेरिका ने तख्तापलट करवाने के लिए इन दोनों देशों की सेना का समर्थन प्राप्त किया। यानि अमेरिका ने कैसे दूसरे देशों की सेना तक में अपनी पकड़ बनाई हुई है। अमेरिका और चीन दोनों को इस बात का एहसास है कि भारत की स्थिति एक दम अलग है। इन दोनों देशों में सेना का राजनीति में दखल रहता है, लेकिन भारत में लोकतंत्र की जड़ें बहुत मजबूत हैं। इसलिए चुनावों के दौरान भारत में सोशल मीडिया के माध्यम से अफवाहें फैलाकर मोदी को चुनाव में हराने के बहुत प्रयास किए गए, जिनमें अमेरिका को काफी सीमा तक सफलता मिली, जब भाजपा को स्वयं को बहुमत नहीं मिला।

अब मोदी सरकार को अपदस्थ करने के लिए क्योंकि भारत में न तो कोई छात्र आन्दोलन शुरू हो सकता है, न सेना प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध बगावत कर सकती है। इसलिए मोदी सरकार को गिराने के लिए उन्हें समर्थन देने वाली पार्टियों पर तरह तरह का दबाव बनाने की कोशिश हो चुकी है। सब से पहले चंद्रबाबू नायडू से संपर्क साधा गया। आंध्र प्रदेश में व्यापारिक संभावनाएं टटोलने के नाम पर अमेरिका की वाणिज्यिक दूत जेनिफर लार्सन ने चन्द्र बाबू नायडू से मुलाकात की, लेकिन इस मुलाकात में घरेलू राजनीति की बातें भी हुईं। जेनिफर लार्सन ने 12 अगस्त को वक्फ बोर्ड संशोधन बिल का जबर्दस्त विरोध करने वाले हैदराबाद के कट्टरपंथी मुस्लिम सांसद असदुद्दीन ओवेसी से भी मुलाकात की और स्वयं ही उस मुलाकात का फोटो अपने एक्स हैंडल पर शेयर किया। इसके बाद दो घटनाएं हुईं। ओवेसी ने देश भर के मुसलमानों को भड़काने के लिए वक्फ बोर्ड संशोधन बिल के विरुद्ध जहर उगलता भाषण दिया। चंद्रबाबू नायडू ने नरेंद्र मोदी को वक्फ बोर्ड बिल संयुक्त संसदीय कमेटी में भेजने पर विवश किया। यह नरेंद्र मोदी की पहली विवशता साबित हुई है। जगदंबिका पाल की अध्यक्षता में 31 सदस्यीय संयुक्त संसदीय समिति बन गई है। इसमें असदुद्दीन ओवेसी समेत आठ मुस्लिम सदस्य हैं। लोकसभा में भाजपा का बहुमत नहीं होने के कारण भाजपा के अपने सिर्फ बारह सदस्य हैं, चार सदस्य एनडीए घटक दलों के और एक मनोनीत सदस्य हैं। बाकी बचे 14 सदस्यों में से 12 इंडी एलायंस के, एक वाईएसआर कांग्रेस का और एक अन्य ओवेसी हैं। इन दोनों को भी विपक्ष के साथ जोड़ें, क्योंकि दोनों वक्फ बिल के विरोध में हैं। सत्ता पक्ष के 17 सांसदों में भाजपा के अपने बारह हैं, शिवसेना के गणेश गनपत महास्के और मनोनीत वीरेन्द्र हेगड़े तो सौ प्रतिशत सरकार के पक्ष में होंगे। इस का अर्थ साफ़ है कि बिल का भविष्य भाजपा के सहयोगी दलों टीडीपी के के.एल. श्रीकृष्णा, जेडीयू के दिलेश्वर कामत और लोक जन शक्ति पार्टी के अरुण भारती पर निर्भर है, लेकिन इस बीच टीडीपी अमेरिकी दबाव में पाला बदल लेती है तो शीत सत्र में मोदी सरकार को अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ सकता है। राहुल गांधी जल्द ही मोदी सरकार गिरने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। इसका अर्थ है कि वह मोदी सरकार गिराने के लिए अमेरिका के साथ मिल कर काम कर रहे हैं। राहुल गांधी ने इस आरोप का खंडन नहीं किया है कि अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान उन्होंने डोनाल्ड की लू से मुलाकात की थी। याद कीजिए 1999 में सोनिया गांधी ने वाजपेयी सरकार को समर्थन दे रही जयललिता को एनडीए से तोड़ कर वाजपेयी सरकार गिराई थी। इस बार वह काम क्या चंद्रबाबू नायडू करेंगे। लेकिन सत्ता का संतुलन सिर्फ चंद्रबाबू नायडू के हाथ में नहीं है। जब तक चंद्रबाबू नायडू के साथ नीतीश कुमार नहीं आते, तब तक मोदी सरकार को गिराया नहीं जा सकता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एहसास है कि उनके विरुद्ध क्या षड्यंत्र रचा जा रहा है, इसलिए लालकिले की प्राचीर से उन्होंने कहा कि अमेरिका और यूरोपियन देशों को मजबूत भारत से डरना नहीं चाहिए।

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