अयोध्या में झूठ फैलाने में सफल रहा विपक्ष
अजय सेतिया
अयोध्या में झूठ फैलाने में सफल रहा विपक्ष
प्रश्न पूछा जा रहा है कि जो रामजी को लाए थे, अयोध्या वाले उन्हें क्यों नहीं लाए। राम मन्दिर बनने के बाद हुए पहले ही चुनाव में भाजपा वहां से हार गई। अयोध्या से भाजपा की हार देश में सर्वाधिक बहस का मुद्दा बना हुआ है। आखिर कैसे आधे सच को मीडिया में इतना महत्व मिल जाता है। यह वामपंथियों की वाट्सएप यूनिवर्सिटी का ही कमाल है कि घर घर में भाजपा की अयोध्या में हार की चर्चा हो रही है। मीडिया का वही वर्ग यह झूठा नेरेटिव गढ़ रहा है, जो चुनावों के दौरान भाजपा को हराने के लिए दिन रात एक किए हुए था। इस चुनाव में नहीं बल्कि हर चुनाव में उनका टार्गेट भाजपा ही होती रही है, वे भाजपा को नहीं हरा पाए, तो अब अयोध्या को मुद्दा बना कर भाजपा की राष्ट्रव्यापी हार का ढिंढोरा पीटा जा रहा है। यह उसी तरह का नैरेटिव है, जैसे चुनावों में संविधान बदलने और आरक्षण समाप्त करने का नैरेटिव खड़ा किया गया था, जबकि न तो अयोध्या नाम से कोई लोकसभा सीट है, न अयोध्या से भाजपा हारी है। अयोध्या कस्बा और विधानसभा सीट फैजाबाद लोकसभा सीट के अंतर्गत आती है। प्रश्न अगर अयोध्या का है तो फैजाबाद लोकसभा सीट की अयोध्या विधानसभा सीट पर भाजपा को बढ़त मिली है। भाजपा फैजाबाद लोकसभा सीट हारी है, तो यह नैरेटिव क्यों गढ़ा जा रहा है कि भाजपा अयोध्या में हार गई।
झूठा नैरेटिव गढ़ कर योगी आदित्यानाथ की काबिलियत पर प्रश्न उठाया जा रहा है। क्या यूपी की हार का नजला योगी की बलि लेकर उतरेगा। अरविन्द केजरीवाल ने चुनाव प्रचार के दौरान जो सब से बड़ी बात कही थी, वह यह कही थी कि चुनाव बाद योगी का पत्ता कटेगा। आखिर उन्होंने ऐसा क्यों कहा था? वह इसलिए क्योंकि मोदी के बाद योगी ही भाजपा विरोधी शक्तियों की आँखों में खटक रहे हैं। उन्हें लगता है कि मोदी के बाद की लीडरशिप खड़ी हो चुकी है, उसे अभी से टार्गेट किया जाए तो 2029 का चुनाव जीता जा सकता है। उस समय अरविन्द केजरीवाल की यह बात हास्यस्पद, शरारतन, षड्यंत्र के अंतर्गत और मूर्खतापूर्ण लगती थी, लेकिन आज उन्हीं योगी की काबिलियत पर प्रश्न उठ रहा है, क्योंकि वह उत्तर प्रदेश में भाजपा को पिछली बार जीती 62 सीटें भी नहीं दिला पाए, जबकि भाजपा में राजस्थान और हरियाणा में संभावित नुकसान की भरपाई उत्तर प्रदेश से होने की आशा की जा रही थी।
भाजपा उत्तर प्रदेश में 31 सीटें हारी है। अगर वे 31 सीटें आ जातीं तो भाजपा को पूर्ण बहुमत मिल जाता, फिर सरकार की नकेल नीतीश कुमार और नायडू के हाथ में नहीं होती। क्या यह संयोग है कि योगी आदित्यनाथ ने 35 प्रत्याशी बदलने की सिफारिश भेजी थी, लेकिन बदले गए सिर्फ 16 सांसद। जिन 16 सीटों पर प्रत्याशी बदले गए थे, उनमें से भी पांच सीटें भाजपा हार गई। जिन सीटों पर सांसदों के टिकट काटे जाने चाहिए थे, नहीं काटे गए और वे 26 सांसद हार गए। तो लब्बोलुआब क्या है कि अयोध्या विधानसभा सीट वाली फैजाबाद लोकसभा सीट की हार के लिए कसूरवार योगी नहीं, कसूरवार कोई और है। भाजपा संसदीय बोर्ड कसूरवार हो सकता है, जिसने सिफारिश की गई सीटों पर प्रत्याशी नहीं बदले, जिनमें अयोध्या के लल्लू सिंह भी थे। उनकी हार का कारण एक नहीं अनेक हैं, जैसे भाजपा के कार्यकर्ता उनसे नाराज थे, वे बदलाव चाहते थे, उनका यह बयान सिर्फ फैजाबाद नहीं, बल्कि पूरी उत्तर प्रदेश में हार का कारण बना कि भाजपा सत्ता में आने पर संविधान बदल देगी। यह विपक्ष की ओर से खड़े किए जा रहे नैरेटिव की पुष्टि थी और भाजपा के स्टैंड के भी विरुद्ध था।
लल्लू सिंह की हार का तीसरा कारण जातीय समीकरणों की अनदेखी रहा। लोकसभा सीट में एसेंबली की पांच सीटें हैं। उनमें से चार भाजपा के पास हैं, सिर्फ एक रिजर्व सीट मिल्कीपुर समाजवादी पार्टी के पास है, जहां से पासी समाज के अवधेश प्रसाद विधायक हैं, वही अब लोकसभा चुनाव जीते हैं। भाजपा के जो चार विधायक हैं, उनमें एक ब्राह्मण, एक राजपूत, एक बनिया और एक यादव है। अब हम 1980 से अयोध्या फैजाबाद लोकसभा सीट का इतिहास खंगालते हैं। रामजन्मभूमि आन्दोलन से पहले जनसंघ या भाजपा कभी यह सीट नहीं जीती थी। 1991 में पहली बार बजरंग दल के चीफ विनय कटियार ने यह सीट जीती। वह 1996 और 1999 में भी जीते, लेकिन 2004 में जब भाजपा ने विनय कटियार का टिकट काट कर लल्लू सिंह को दिया, तो वह मित्रसेन यादव से हार गए। अब देखने वाली बात यह है कि विनय कटियार ओबीसी हैं, मित्रसेन यादव भी ओबीसी हैं। भाजपा ने ओबीसी का टिकट काट कर जैसे ही अपर कास्ट को दिया, वह हार गया, और उसकी जगह बसपा टिकट पर ओबीसी के मित्रसेन यादव जीते।
2009 में लल्लू सिंह फिर हारे। 1984 और 2009 को छोड़ कर, जब वहां से कांग्रेस के निर्मल खत्री चुने गए थे, बाकी के छह चुनावों में वहां से ओबीसी ही चुने गए थे, तीन बार भाजपा के विनय कटियार और तीन बार मित्रसेन यादव, जो एक बार सीपीआई की टिकट पर, एक बार बसपा की टिकट पर और एक बार समाजवादी पार्टी की टिकट पर जीते। आखिरी दो बार से यानि 2014 और 2019 में लल्लू सिंह जीते थे। यह हिंदुत्व और मोदी की लहर के चुनाव थे और इस लहर में जीत बहुत ही आसान हो गई थी। विपक्ष की ओर से आरक्षण को मुद्दा बना लिए जाने के बाद इस बार चुनाव फिर से जातीय समीकरणों पर आ गया था। विपक्ष नैरेटिव बनाने वाले मीडिया के अपने समर्थकों की सहायता से यह भ्रान्ति फैलाने में सफल हो गया था कि भाजपा तीसरी बार सत्ता में आने पर आरक्षण समाप्त कर देगी। इसलिए विशेषकर अनुसूचित जाति वर्ग आशंकित हो गया था। फैजाबाद सीट में सबसे ज्यादा 21-22 प्रतिशत अनुसूचित जाति समाज के वोट हैं, 20-21 प्रतिशत ओबीसी वोट हैं, 15 प्रतिशत ओबीसी हैं। अखिलेश यादव हमेशा, यादव को प्रत्याशी बनाते थे, उन्होंने भी अपनी रणनीति बदल कर अनुसूचित जाति का प्रत्याशी उतार दिया, तो सामान्य बुद्धि वाला भी समझ सकता है कि जब जातीय आधार पर चुनाव हो रहा था, तो सपा प्रत्याशी का पलड़ा भारी हो चुका था।
पीडीए यानी जिस पिछड़ा, दलित अल्पसंख्यक समीकरणों को साध कर अखिलेश यादव गोटियाँ बिछा रहे थे, उसे पारखी नजरों को पहचानना चाहिए था। योगी आदित्यानाथ ने जिन 35 प्रत्याशियों को बदलने की सिफारिश की थी, उनमें लल्लू सिंह का नाम भी शामिल था। अगर भाजपा ने किसी अनुसूचित जाति या ओबीसी के व्यक्ति को टिकट दिया होता तो फैजाबाद सीट पर तस्वीर कुछ और होती। लल्लू सिंह पांच में से चार विधानसभा क्षेत्रों में हारे हैं। अयोध्या ने भाजपा को नहीं हराया। अयोध्या विधानसभा क्षेत्र में भाजपा की बढ़त बनी रही है। चार विधानसभा क्षेत्रों में हार के बावजूद भाजपा के वोटों में बहुत बड़ी गिरावट नहीं हुई है, 2019 के मुकाबले उनके वोट सिर्फ 29 हजार 300 कम मिले हैं, हालांकि 48 हजार नए वोटरों के कारण वोट बढ़ने चाहिए थे, लेकिन पिछली बार भाजपा को मिला अनुसूचित जाति का वोट, सपा का अनुसूचित जाति उम्मीदवार होने के कारण समाजवादी पार्टी को चला गया। भाजपा के लल्लू सिंह को 4,99,722 वोट मिले और सपा के अवधेश प्रसाद को 5,54,289 वोट मिले, बसपा के सच्चिदानन्द पांडे को भी 46,407 वोट ले गए।