हमारा दैनिक व्यवहार ही हमारा धर्म है- वीर सावरकर
तृप्ति शर्मा
हमारा दैनिक व्यवहार ही हमारा धर्म है- वीर सावरकर
यह सर्वविदित है कि सत्य हमेशा विवादित रहता है और असत्य को साभिप्राय प्रतिपादित किया जाता है। यही स्वतंत्र भारत में हमारे अनेकों महान राष्ट्र नायकों के विषय में किया गया। जिनका राष्ट्र निर्माण में कोई विशेष योगदान नहीं था, उनका महिमा मंडन किया गया और जिन्होंने भारत माता की एकता, अखंडता और सुरक्षा के लिए न केवल संघर्ष किया बल्कि यातनाएं सहीं, उनका सम्मान तो दूर इतिहास के पृष्ठों से लुप्त ही कर दिया। उन्हीं देशभक्तों में से एक हैं विनायक दामोदर सावरकर।
उत्कट राष्ट्र भक्ति, निस्वार्थ देश प्रेम, अखंड भारत का संकल्प, त्याग, तप और सहनशीलता का मूर्त रूप, अदम्य साहस, मातृभूमि के प्रति समर्पण, हृदय में आर्द्रता, विचारों में ज्वाला इन सबको एक साथ मिलाया जाए तब जिसकी छवि उभर कर आती है वह है स्वातंत्रय वीर सावरकर की।
सावरकर महान स्वतंत्रता सेनानी, दूरदर्शी, प्रखर राष्ट्रप्रेमी, विद्वान लेखक व प्रबोधक थे। आज 28 मई को उनकी 141वीं (28.5.1883) जयंती पर हम उनके कृतित्व और विचारों को नमन व स्मरण करते हैं क्योंकि उनके विचार आज भी उतने ही जीवंत व सामायिक हैं जितने उस समय थे।
वीर सावरकर का यह कथन कि- इतिहास, समाज व राष्ट्र को सुदृढ़ करने वाला हमारा दैनिक व्यवहार ही हमारा धर्म है, आज भी हमें प्रेरित करता है। त्याग, तपस्या व राष्ट्रीयता की मूर्ति वीर सावरकर ने भारत की एकता अखंडता के लिए अनेकों यातनाएं सहकर असंख्य देशवासियों में देशभक्ति की भावना तो जगाई ही, अस्पृश्यता जैसी सामाजिक कुरीतियों व राजनीति में तुष्टिकरण का पुरजोर विरोध भी किया।
1905 में उन्होंने बंग भंग का विरोध करते हुए देश की स्वाधीनता में सक्रिय योगदान देना आरंभ किया और सर्वप्रथम विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर स्वदेशी के लिए आंदोलन किया। दुनिया के वे पहले ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्होंने अंडमान में जेलों की सजा काटते हुए जेल की दीवारों पर कोयले व अपने नाखूनों से काव्य लिखे, उन्हें याद किया और जेल से बाहर आने के बाद पुन: उन्हें लिपिबद्ध किया। उनका लिखा साहित्य विशेष कर 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ऐसा प्रेरणादायक ग्रंथ था कि उस समय यह क्रांतिकारियों के लिए गीता बन गया था। स्वतंत्रता के पुजारी का सृजन के प्रति ऐसा समर्पण इतिहास में दूसरा ढूंढे नहीं मिलेगा। एक सावरकर ही स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे महानायक थे, जिनको एक ही जन्म में दो आजीवन कारावास मिले। 10 वर्ष निरंतर (1911 से 1921) कोल्हू चलाया और इस सजा को भी सहर्ष स्वीकार करते हुए भारत माता की परिक्रमा बताया।
जब राष्ट्रीय तीर्थ सेलुलर जेल में सावरकर कोठरी के दर्शन करते हैं तो उनके त्याग और कष्ट सहज ही समझ में आ जाते हैं। हृदय में एक सिहरन से होती है। मातृभूमि के प्रति उनकी आराधना देखकर लगता है, अवश्य वे किसी दिव्यशक्ति से अनुप्रेरित थे। उनकी कोठरी पर लोहे के दोहरे किवा़ जड़े हैं अर्थात पिंजरे के भीतर पिंजरा, कितनी भयभीत थी अंग्रेजी सरकार उनसे। सचमुच अग्निपथ के समान रहा उनका जीवन। इतनी यातनाएं सहते हुए भी उन्होंने आजीवन अखंड भारत का स्वप्न देखा। उनकी पत्नी यमुना सावरकर भी सभी महिलाओं को साथ लेकर पारंपरिक हल्दी कुमकुम का आयोजन करती थीं। उनके बड़े भाई भी अंडमान जेल में काला पानी की सजा काट रहे थे। पूरा परिवार किसी न किसी रूप में राष्ट्र सेवा में रत था।
सावरकर मानवता और समानता के विचारों से अनुप्राणित थे। उनका विचार “एक देश, एक ईश्वर, एक जाति, एक मन” हम सभी को बिना किसी अंतर के बिना किसी संदेह के बंधु बनाता है, जो आज के संदर्भ में भी महत्वपूर्ण है। वे जाति प्रथा को बहुत बड़ी सामाजिक बुराई मानते थे। आज तो यह बुराई समाज में फैल कर राजनीति के निर्णयों को भी प्रभावित कर राष्ट्र को क्षति पहुंचा रही है। हिन्दी- हिन्दू- हिन्दुस्तान का राष्ट्र मंत्र सावरकर की ही देन है।
परंतु यह है दुख का विषय है कि जिन विचारों का हमें सम्मान करना चाहिए था, उन्हीं को हमने संदेह की परिधि में ला दिया। देश की स्वतंत्रता के बाद भी जनता से सबसे बड़ा छल यह किया गया कि हमारे इतिहास से गौरवपूर्ण पृष्ठ और महान नायकों के चरित्र छुपा लिए गए। किसी भी पीढ़ी का मनोबल गिराने के लिए इससे बड़ा कोई षड्यंत्र नहीं हो सकता कि उसको वास्तविक गौरवशाली इतिहास ना पढ़ाकर ऐसे अंधेरे में रखा जाए कि वह अपने महान पुरुषों के संघर्ष को नमन करने की बजाय उनके योगदान पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दे। वीर सावरकर के विषय में अनेक विवादित बयान देकर उनकी छवि को धूमिल करने का प्रयास निरंतर चल रहा है। परंतु इन विवादित बयानों का भी सकारात्मक प्रभाव यह है कि सोशल मीडिया के युग में आज की जागरूक और सक्रिय पीढ़ी सावरकर के विषय में सत्य की जिज्ञासु है। सत्य हमेशा छन- छन कर अपने शुद्धतम रूप में बाहर आता है। जैसे वीर सावरकर ने बहुत शोध और गहन अध्ययन के बाद निष्कर्ष निकाला कि 1857 की क्रांति गदर नहीं बल्कि राष्ट्रभक्त क्रांतिकारियों द्वारा सुनियोजित तरीके से किया गया प्रथम स्वातंत्र्य समर था। ऐसे ही आज की प्रबुद्ध पीढ़ी वीर सावरकर की भारत माता के प्रति निष्ठा और उनके स्वतंत्रता के लिए किए गए संघर्षो को उचित सम्मान देगी।
राष्ट्रहित में उनके विचारों का स्मरण, मंथन और अनुकरण ही उनके जीवन के संघर्षों का सच्चा सम्मान होगा।