भारत अनादिकाल से पंथनिरपेक्ष है
बलबीर पुंज
भारत अनादिकाल से पंथनिरपेक्ष है
गत 26 नवंबर को देश ने 75वां संविधान दिवस मनाया। इस अवसर पर पुरानी संसद के सेंट्रल हॉल में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संयुक्त सभा को संबोधित किया। इस दौरान सिक्का-डाक टिकट के साथ संस्कृत और मैथिली भाषा में संविधान की प्रतियां भी जारी की गईं। विश्व के इस भूभाग में भारत ही एकमात्र लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्ष राष्ट्र है, जो दुनिया में अपना खोया मान-सम्मान पुन: अर्जित कर रहा है। इसी कड़ी में स्वतंत्रता के बाद भारत आज सबसे अच्छे दौर में भी है। भारत के पड़ोस में चीन अधिनायकवादी है, तो पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान विशुद्ध इस्लामी। इन चारों देशों में उनके वैचारिक अधिष्ठान के कारण लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता और मानवाधिकारों का कोई स्थान नहीं है। यह ठीक है कि नेपाल और श्रीलंका लोकतांत्रिक हैं, परंतु बीते कुछ वर्षों से वहां बाहरी प्रभाव (चीन-वामपंथ सहित) के कारण इसका ह्रास हो रहा है।
क्या भारत सिर्फ इसलिए ‘पंथनिरपेक्ष’ है, क्योंकि हमारा संविधान ऐसा है? जब भारत का 14 अगस्त 1947 को विभाजन हुआ, जिसे खंडित भारत ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ के रूप में याद करता है— तब देश का एक तिहाई हिस्सा, इस आधार पर बांट दिया गया था कि मुसलमानों को अपनी पहचान और मजहब की कथित ‘सुरक्षा’ हेतु अलग ‘पाक’ जमीन चाहिए। इस्लामी कब्जे वाले इस क्षेत्र की पहचान पाकिस्तान और बांग्लादेश के रूप में है। तब होना तो यह चाहिए था कि खंडित भारत भी स्वयं को ‘हिंदू-राष्ट्र’ घोषित करता। परंतु ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि हिंदू दर्शन या हिंदुत्व में पूजा-पद्धति और मजहब व्यक्तिगत विषय है, जिसका राष्ट्र में कोई दखल नहीं होता। भारतीय इतिहास साक्षी है कि यहां जितने भी हिंदू राजा हुए, उन्होंने अपनी निजी आस्था और संबंधित परंपरा को न तो अपनी प्रजा पर थोपा और न ही उसके अनुपालन के लिए उन्हें बाध्य और प्रताड़ित किया। सम्राट अशोक ही एकमात्र ऐसे अपवाद थे, जिन्होंने बौद्ध मतांतरण के पश्चात राज्य संसाधनों का उपयोग अपने नव-मत के प्रचार-प्रसार हेतु किया था।
भारत को बहुलतावाद और पंथनिरपेक्षता की प्रेरणा किससे मिलती है? स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र निर्माताओं ने दो वर्ष, 11 माह और 18 दिन बाद गहन-मंथन के पश्चात भारतीय संविधान का प्रारूप तैयार किया। तब इसके तत्कालीन स्वरूप को हिंदी-अंग्रेजी में प्रसिद्ध सुलेखक प्रेम बिहारी नारायण रायजादा ने कलमबद्ध किया था, तो प्रसिद्ध चित्रकार नंदलाल बोस ने इसकी दोनों मूल प्रतियों को अद्भुत चित्रों के साथ भारतीय इतिहास और परंपरा से जोड़ने का काम किया। इनमें नटराज (शिवजी), श्रीराम, श्रीकृष्ण, भगवान गौतमबुद्ध, भगवान महावीर, मोहनजोदड़ो, मौर्य, गुप्त आदि कालों के साथ नालंदा विश्वविद्यालय, छत्रपति शिवाजी महाराज, गुरु गोबिंद सिंहजी, गांधीजी, नेताजी बोस इत्यादि के सुंदर चित्र हैं। ये सभी सिर्फ सजावट हेतु कोई कलाकृति नहीं, बल्कि भारत की वैदिककाल से गणतंत्र बनने की विकास यात्रा का संस्मरण हैं। यही कारण है कि अनेकों षड्यंत्रों, मजहबी हमलों और सामाजिक घालमेल के बाद भी भारत का बहुलतावादी चरित्र अक्षुण्ण है।
भारत अनादिकाल से पंथनिरपेक्ष इसलिए भी है— क्योंकि यहां के बहुसंख्यक हजारों वर्षों से हिंदू हैं, जिनके सनातन दर्शन का आधार बहुलतावाद, सह-अस्तित्व और समग्रता है। क्या यह सच नहीं कि जब 1980-90 के दौर में इस्लाम बहुल कश्मीर से हिंदुओं को उनकी पूजा-पद्धति के कारण स्थानीय मुस्लिमों द्वारा मारा गया, उनकी महिलाओं से बलात्कार और मंदिरों को तोड़ा जा रहा था, जिसके कारण उन्हें पलायन के लिए विवश होना पड़ा, तब संपूर्ण देश में संविधान, सर्वोच्च न्यायालय और लोकतंत्र का राज था? इसके उलट, जब सदियों पहले दुनिया के कोनों से मजहबी अत्याचारों के कारण सीरियाई ईसाइयों, यहूदियों और पारसियों ने अपना उद्गमस्थल छोड़कर हिंदू प्रधान भारत में शरण ली, तब न केवल स्थानीय हिंदू-बौद्ध राजाओं और संबंधित प्रजा ने उनका स्वागत किया, साथ ही उन शरणार्थियों को अपनी पूजा-पद्धति, जीवनशैली और परंपरा को अपनाने की स्वतंत्रता भी दी। सन् 629 में तत्कालीन केरल के राजा चेरामन पेरुमल ने कोडंगलूर में चेरामन जुमा मस्जिद का निर्माण पैगंबर साहब के जीवनकाल में कराया था, जोकि अरब के बाहर बनने वाली विश्व की पहली मस्जिद थी। यह समरस, सहिष्णु, शांतिपूर्ण और बहुलतावादी परंपरा तब भंग हुई, जब आठवीं शताब्दी में अरब से इस्लाम के खालिस स्वरूप का, तो यूरोप से 16वीं शताब्दी में ईसाइयत का अपने स्वाभाविक स्वरूप के साथ दूसरी बार भारत में आगमन हुआ, जिसके अनुसार— उनके मजहब द्वारा घोषित अल्लाह या गॉड की व्यवस्था ही ‘एकमात्र सत्य है अन्य सभी झूठे’ हैं।
वर्ष 712 में अरब आक्रांता मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर हमला करके भारत में इस्लाम के नाम मजहबी दमन का सूत्रपात किया था। उसी मानस से प्रेरित होकर अगले एक हजार वर्षों में गजनी, गोरी, खिलजी, तुगलक, बाबर, अकबर, जहांगीर, औरंगजेब, टीपू सुल्तान आदि आक्रांताओं ने यहां की मूल सनातन संस्कृति और प्रतीकों को क्षत-विक्षत किया। बात यदि ईसाइयत की करें, तो वर्ष 1541 में दक्षिण-भारत के गोवा में फ्रांसिस ज़ेवियर ने जेसुइट मिशनरी के रूप में कदम रखा था। ईसाइयत के प्रचार हेतु भारत पहुंचे जेवियर ने उस समय ‘गोवा इंक्विजीशन’ के माध्यम से गैर-ईसाइयों के साथ उन कन्वर्टेड ईसाइयों के विरुद्ध उत्पीड़नयुक्त मजहबी अभियान चलाया, जो देशज परंपराओं के साथ अपनी मूल पूजा-पद्धति का ही अनुसरण कर रहे थे। दुर्भाग्य से इस भूखंड के करोड़ों लोगों के लिए आज भी उपरोक्त हमलावर ‘प्रेरणास्रोत’ है, तो देश के कई हिस्सों में उनका अधूरा एजेंडा (मतांतरण सहित) निरंतर जारी है। इस त्रासदी को और अधिक बल तब मिला, जब वर्ष 1976 में आपातकाल (1975-77) के समय तत्कालीन इंदिरा सरकार ने अलोकतांत्रिक रूप से मूल संविधान की प्रस्तावना में भारत के विवरण को “संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य” से बदलकर “संप्रभु, समाजवादी सेकुलर लोकतांत्रिक गणराज्य” कर दिया था।
स्वतंत्रता के बाद खंडित भारत ‘हिंदू-राज्य’ नहीं बना और ना ही आज ऐसा संभव है। परंतु भारत अघोषित ‘हिंदू-राष्ट्र’ है, क्योंकि इसकी सामाजिक, समरस और सौहार्दपूर्ण हिंदुत्व जीवनशैली, सनातन चिंतन द्वारा जनित है। विश्व के इस भूक्षेत्र में जहां-जहां इसके मूल सनातन-चरित्र का पतन हुआ, वहां-वहां लोकतंत्र, बहुलतावाद और पंथनिरपेक्षता ने दम तोड़ दिया। पिछले एक हजार वर्षों में अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और कश्मीर का घटनाक्रम इसका जीवंत प्रमाण है।
(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)