पेरिस जलवायु समझौते से दूसरी बार बाहर हुआ अमेरिका
बलबीर पुंज
पेरिस जलवायु समझौते से दूसरी बार बाहर हुआ अमेरिका
अमेरिका का 47वां राष्ट्रपति बनते ही डोनाल्ड ट्रंप ने जिन दर्जनों कार्यकारी आदेशों पर हस्ताक्षर किए, उनमें से एक ‘पेरिस जलवायु समझौते’ से अमेरिका को बाहर करना भी रहा। वर्ष 2015 में 190 से अधिक देशों के बीच हुई इस स्वैच्छिक संधि से अमेरिका दूसरी बार बाहर हुआ है, जिसमें ‘ग्लोबल वार्मिंग’ को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे बनाए रखने का प्रस्ताव पारित किया गया था। राष्ट्रपति ट्रंप ने यह निर्णय उस समय लिया, जब 11 जनवरी को यूरोपीय संस्था ‘कोपरनिकस जलवायु परिवर्तन सेवा’ (सीथ्रीएस) ने कहा था कि वर्ष 2024 में वैश्विक औसत तापमान सुरक्षित मानक (डेढ़ डिग्री) से अधिक 1.6 डिग्री सेल्सियस दर्ज हुआ है। वैज्ञानिकों के अनुसार, वर्ष 1850 में तापमान दर्ज शुरु होने के बाद 2024 सबसे गर्म वर्ष रहा। क्या यह संकट प्राकृतिक है या फिर ‘मानव जनित’?
यह ठीक है कि दुनिया के सामने जलवायु का संकट है और विश्व को नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग करने की आवश्यकता है। परंतु इसे अक्सर वैश्विक जलवायुविदों द्वारा अतिरंजित तरीके से प्रस्तुत किया जाता है। वास्तव में, इस समूह की स्थिति ‘भेड़िया आया, भेड़िया आया’ कहानी के उस मुख्य पात्र चरवाहे जैसी हो गई है, जिसका अंत में हश्र क्या हुआ था, उसके बारे में सुधी पाठक अवश्य जानते होंगे। जैसे ही कोपरनिकस रिपोर्ट सामने आई, एकाएक स्वयंभू जलवायुविदों ने ‘ग्लोबल वार्मिंग’ को नियंत्रित करने हेतु तुरंत कदम उठाने पर जोर देना शुरू कर दिया। यह वही कुनबा है, जिसने नैरेटिव बनाया था कि दुनिया का औसत तापमान डेढ़ डिग्री सेल्सियस से ऊपर होने पर समुद्र का स्तर बढ़ जाएगा, हिमनद-अंटार्कटिका पिघल जाएंगे, नदियों सूख जाएंगी और बेतहाशा गर्मी पड़ेगी। परंतु विश्वभर में कुछ प्राकृतिक आपदाओं को छोड़कर ऐसा नहीं हुआ। दुनिया से हजारों वर्ष पहले डायनासोर और कई प्रकार जीवाश्म विलुप्त हो चुके हैं। यहां तक वर्तमान हिमालय पर्वत भी भारतीय और यूरेशियाई प्लेटों के टकराव से बना है। भारत में प्राचीन सरस्वती नदी भी सूख चुकी है। ऐसे ढेरों उदाहरण हैं। क्या इन सबके लिए भी मानव सभ्यता को ही दोषी ठहराया जाएगा?
कोपरनिकस संस्था की हालिया घोषणा को स्वघोषित पर्यावरणविदों ने अमेरिका स्थित लॉस एंजिलिस के जंगलों में लगी भीषण आग से भी जोड़ने का प्रयास किया था। सच तो यह है कि बढ़ती जनसंख्या के कारण लोगों का तूफान, बाढ़ और भूकंप प्रभावित आपदा क्षेत्रों में बसने के कारण इस तरह की घटनाएं सामने आती हैं। डेनमार्क सरकार के पर्यावरण मूल्यांकन संस्थान के पूर्व निदेशक और ‘द स्केप्टिकल एनवायरमेंटलिस्ट’ के लेखक ब्योर्न लोम्बोर्ग का कहना है कि मीडिया अधिक से अधिक दर्शकों को आकर्षित करने के लिए प्राकृतिक आपदाओं को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करती है। लोम्बोर्ग के पास सैटेलाइट डेटा है, जो दिखाता है कि अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में आग की घटनाओं के बावजूद 2000-23 के बीच जंगल की आग से नष्ट हुए वैश्विक क्षेत्र का प्रतिशत लगातार कम हुआ है।
वर्ष 2000-03 और 2016-19 के बीच गर्म हवाओं से एक लाख 16 हजार लोगों की अतिरिक्त मौतें हुई थीं, जबकि शीतलहर से होने वाली मौतों में बहुत तेजी से गिरावट आई है। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि सर्दियों का असर कम हो रहा है। एक आंकड़े के अनुसार, वर्ष 1980 से अब तक जलवायु संबंधित मौतें आधी हो चुकी हैं। विलियम नॉर्डहॉस ने वर्ष 2018 में जलवायु परिवर्तन पर अपने शोध के लिए नोबेल पुरस्कार जीता था। अपनी रिपोर्ट में उन्होंने बताया कि 3 डिग्री तापमान बढ़ने से वैश्विक आर्थिकी को लगभग दो प्रतिशत का नुकसान होगा और इसी तरह छह डिग्री वृद्धि से दुनिया की अर्थव्यवस्था 8.5 प्रतिशत तक घट जाएगी। नॉर्डहॉस के इसी शोधपत्र को आधार बनाते हुए लोम्बोर्ग इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि वर्ष 2100 तक जलवायु परिवर्तन के बिना दुनिया 4.5 गुना, तो इसके असर के साथ 4.3 गुना प्रगति करेगी।
क्या यह सच नहीं है कि लगातार तापमान बढ़ने के बावजूद दुनिया पहले से अधिक अच्छी स्थिति में है और लोगों का जीवनस्तर सुधर रहा है? विश्व बैंक का अनुमान है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में वर्ष 2024 में ढाई प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है, जो इस वर्ष 2.7 प्रतिशत रह सकती है। इस दौरान महंगाई दर 3.5% से घटकर 2.9% हो सकती है। औसत जीवन प्रत्याशा बढ़ रही है। वैश्विक अनाज भंडार भरे हुए हैं। भारत चावल निर्यात से सभी प्रतिबंध हटा चुका है, क्योंकि इसके उत्पादन में भारी वृद्धि हुई है। निसंदेह, वैश्विक महामारी कोविड-19 के बाद आर्थिक वृद्धि धीमी हुई है। परंतु इसका मुख्य कारण जलवायु नहीं, बल्कि अमेरिका-पश्चिम प्रेरित आर्थिक मॉडल और कई देशों का कर्ज के मकड़जाल में फंसना है।
सच तो यह है कि प्रकृति के अपने नियम होते हैं। समय बीतने के साथ इसमें स्वाभाविक बदलाव आता है। इन परिवर्तनों के कारण ही नए का जन्म होता है और पुराना नष्ट हो जाता है। वर्तमान समय में जलवायु संकट पर अतिरंजित कोलाहल का एक बड़ा उद्देश्य दुनिया में भारत जैसे विकासशील देशों की विकास यात्रा को कुंद करना भी है। परंतु इसका अर्थ यह बिल्कुल भी नहीं है कि हम जलवायु संकटों की अवहेलना कर दें। अक्सर, ‘मानवीय जीवनशैली को पर्यावरणीय संकट और जलवायु परिवर्तन के लिए दोषी’ ठहराया जाता है। इसका उपाय क्या है?
हजारों वर्षों से भारत की सनातन संस्कृति में सभी जीव-जंतु और पेड़-पौधे ही नहीं, बल्कि समस्त ब्रह्मांड का संरक्षण और कल्याण निहित है। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ और ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ रूपी बीजमंत्र मानवीय जीवन को संयमित करते हैं, जो वैज्ञानिक और स्वस्थ जीवन की आदर्श शैली है। यह किसी भौगोलिक, सामाजिक और किसी समुदाय विशेष का जीवनचक्र नहीं है, यह सबके लिए है। भारतीय संस्कृति में परंपरागत रूप से संतुलन और संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग पर जोर दिया गया है। इसका प्रमाण भारतीय दार्शनिक ग्रंथ, जैसे वेद, उपनिषद और श्रीभगवद्गीता में मिलता है, जहां त्याग, संतोष और साझा उपभोग को जीवन का हिस्सा माना गया है। इसमें प्रकृति को देवी-देवता के रूप में पूजने की परंपरा है, जो संसाधनों के प्रति सम्मान और उनकी अति-खपत से बचने की शिक्षा देता है। यह अलग बात है कि पाश्चात्य जीवनशैली और आधुनिक उपभोक्तावाद ने इस दृष्टिकोण को काफी सीमा तक प्रभावित किया है।
(स्तंभकार ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या’ और ‘नैरेटिव का मायाजाल’ पुस्तक के लेखक हैं)