संघ में पथ संचलन और घोष की परंपरा

संघ में पथ संचलन और घोष की परंपरा

संघ में पथ संचलन और घोष की परंपरासंघ में पथ संचलन और घोष की परंपरा

जयपुर। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज अपने 100वें वर्ष में प्रवेश कर गया। 1925 में नागपुर में विजयादशमी के दिन ही संघ की स्थापना हुई थी। संघ अपना स्थापना दिवस नहीं मनाता। लेकिन संघ की ओर से विजयदशमी उत्सव मनाया जाता है। इस दिन संघ के नागपुर मुख्यालय समेत देशभर की शाखाओं में शस्त्र पूजा की जाती है। इसके साथ ही शक्ति की उपासना भी की जाती है। इसके अतिरिक्त देश के अलग-अलग भागों में पथ संचलन निकलते हैं। इनका उद्देश्य समाज के समक्ष भारत की संगठित व अनुशासित सज्जन शक्ति के स्वरूप को प्रस्तुत करना है। स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश पहनकर घोष के साथ कदम से कदम मिलाते हुए ’मातृभूमि गान से गूंजता रहे गगन स्नेह नीर से सदा फूलते रहे सुमन’ जैसे गान के साथ पथ संचलन करते हैं। इन संचलनों की तैयारी विजयदशमी से एक महीने पहले ही प्रारंभ हो जाती है। पथ संचलन में सबसे आगे संघ का अपना बैंड होता है। स्वयंसेवक हाथों में दण्ड लिए हुए अपने नगर और बस्ती में निकलते हैं। जहां-जहां से स्वयंसेवक पथ संचलन करते हुए निकलते हैं, आमजन की ओर से पुष्प वर्षा कर उनका स्वागत किया जाता है। पथ संचलन के बाद स्वयंसेवक अपनी कलाओं जैसे दण्ड प्रहार, दण्ड युद्ध, नियुद्ध, पदविन्यास, दण्डयोग, व्यायाम, समता और घोष का सामूहिक प्रदर्शन करते हैं। पथ संचलन के माध्यम से ‘एकता-अनुशासन-राष्ट्रभक्ति’ का परिचय दिया जाता है। 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने कहा था कि इतिहास की गलतियां दोबारा न हों, इसके लिए संघ की स्थापना की गई। तब से ही संघ की शाखाएं चरित्र निर्माण की पाठशालाएं बनी हुई हैं, जो कदम से कदम मिलाने का अभ्यास कराते हुए मन से मन को मिलाने के भाव उत्पन्न कर देती हैं। इस भाव का प्रकटीकरण ही पथ संचलन है। पथ संचलन में घोष का अपना ही महत्व है। घोष की विकास यात्रा भी अत्यंत रोचक है। संघ में घोष की शुरुआत 1927 में हुई। उस समय संचलन में काम आने वाले घोष वाद्य बहुत महंगे थे और सेना के पास ही हुआ करते थे।संघ में पथ संचलन और घोष की परंपरा उनके कुशल प्रशिक्षक भी सैन्य अधिकारी ही होते थे। संगठन अभी शैशवावस्था में ही था, इसलिए उस के पास न तो इतना धन था कि वाद्य यंत्र खरीद सके और उस पर भी यह राष्ट्रभक्तों का ऐसा संगठन था, जिसके संस्थापक कांग्रेस के आंदोलनों से लेकर बंगाल के क्रांतिकारियों के साथ काम कर चुके थे। इसलिए किसी सैन्य अधिकारी से स्वयंसेवकों को प्रशिक्षित कराना भी बहुत कठिन कार्य था। उस समय सैन्य अधिकारियों को केवल सेना के घोष-वादकों को ही प्रशिक्षित करने की अनुमति थी।

तब संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के परिचित बैरिस्टर गोविन्द राव देशमुख के सहयोग से सेना के एक सेवानिवृत बैंड मास्टर से स्वयंसेवकों को प्रशिक्षण दिलाया गया। शंख वादन के लिए मार्तंड राव, वंशी के लिए पुणे के हरिविनायक दात्ये जी आदि स्वयंसेवकों ने जैसे वाद्य यंत्रों पर अभ्यास आरंभ किया व संघ में घोष का आरंभिक स्वरूप खड़ा हुआ।

लेकिन पाश्चात्य शैली के बैंड पर उनके ही संगीत पर आधारित रचनाएं बजाने में स्वयंसेवकों को आनन्द नहीं आया। तब स्वयंसेवकों ने सोचा कि हजारों वर्ष पूर्व महाभारत युद्ध में श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य व अर्जुन ने देवदत्त शंख बजाकर विरोधी दल को विचलित कर दिया था। अत: हमें इन वाद्यों पर ऐसी रचनाएं तैयार करनी चाहिए, जिनमें अपने देश की नाद परंपरा की सुगंध हो।

स्वर्गीय वापूराव व उनके साथियों ने इस दिशा में कार्य आरंभ किया। इस प्रकार राग केदार, भूप, आशावरी में पगी हुई रचनाओं का जन्म हुआ। गौरव की बात है कि स्वयंसेवकों ने घोष वाद्यों को भी स्वदेशी नाम प्रदान कर उन्हें अपनी संगीत परंपरा के अनुकूल बनाकर उनका भारतीयकरण किया। इस क्रम में साइड ड्रम को आनक, बॉस ड्रम को पणव, ट्रायंगल को त्रिभुज, बिगुल को शंख आदि नाम दिए गए जो कि ढोल, मृदंग आदि नामों की परंपरा में ही समाहित होते हैं।

प्रथम अखिल भारतीय घोष प्रमुख सुब्बू श्रीनिवास ने घोष वर्ग और घोष शिविरों के माध्यम से पूरे देश में हजारों कुशल घोष वादक तैयार किए। परंपरागत वाद्य शंख, आनक और वंशी से आरंभ हुई घोष यात्रा आज नागांग, स्वरद आदि अत्याधुनिक वाद्यों पर मौलिक रचनाओं के मधुर वादन तक पहुंच गई है।

संघ-घोष अपने स्वयंसेवकों के अथक परिश्रम से इस अवस्था में पहुंच गया कि 1982 में एशियाड के उद्घाटन समारोह में भारतीय नौसेना दल ने स्वयंसेवकों द्वारा निर्मित रचना शिवराज का वादन किया। इसे विश्व स्तर पर प्रसारित प्रथम घोष रचना भी कहा जा सकता है। यही नहीं, नौसेना बैंड द्वारा स्वयंसेवकों द्वारा निर्मित लगभग 40 रचनाओं का वादन किया जा चुका है। आज संघ में घोष वादकों की संख्या लगभग 70 हजार है। पथ संचलन के साथ घोष वादन आमजन के मन को तरंगित तो करता ही है, देश प्रेम के भाव भी जाग्रत कर करता है।

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