पिन-होल कैमरे का रहस्य

पिन-होल कैमरे का रहस्य

प्रशांत पोळ

पिन-होल कैमरे का रहस्यपिन-होल कैमरे का रहस्य

हम में से अनेकों ने बचपन में, ‘पिन होल कैमरे’ की तकनीक का उपयोग करते हुए घर के अंधेरे कमरे में, किसी प्रकाशित वस्तु की प्रतिमा देखी होगी। जब किसी अंधेरे कमरे मे छोटा सा झरोखा होता है, तब उस झरोखे से, बाहर की प्रकाशमान वस्तु या उस की प्रतिमा, उस अंधेरे कमरे में उल्टी दिखती है। बिलकुल सिनेमा जैसी। इसी को ‘पिन होल कैमरा तत्व’ कहते हैं। इस सिद्धांत पर आधारित, विश्व के प्रथम पिन होल कैमरे की संकल्पना, भारत में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ होने केवल एक वर्ष पूर्व, अर्थात 1856 में, एक स्कॉटिश वैज्ञानिक ने रखी। डेविड बुस्टर नाम के इस वैज्ञानिक ने ‘द स्टिरिओस्कोप’ नाम की एक पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें यह संकल्पना विस्तार से लिखी थी। इसमें बूस्टर ने इस कैमरे का वर्णन, ‘एक लेन्स रहित कैमरा जिसमें केवल एक पिन होल होता है’ ऐसा किया है।

इसी पिन होल कैमरे की संकल्पना प्रत्यक्ष रूप से दिखती है, पांच सौ वर्ष पुराने मंदिर में। विजयनगर साम्राज्य की राजधानी हंपी का विरुपाक्ष मंदिर। तुंगभद्रा नदी के तट पर बसा हुआ यह मंदिर, वर्ष 1509 मे पूर्ण हुआ। विरुपाक्ष का अर्थ, विरूप+अक्ष होता है। अर्थात विशेष आखों के भगवान का मंदिर। यह मंदिर भगवान शंकर का है। इसे ‘प्रसन्न विरुपाक्ष मंदिर’ भी कहते हैं। इसका अन्य एक नाम पंपापती भी है।

यह मंदिर प्राचीन है। इसमें नौवीं और दसवीं शताब्दी के भगवान शंकर से संबंधित शिलालेख मिले हैं। सन् 1509 में अपने राज्याभिषेक के समय, राजा कृष्णदेवराय ने इस मंदिर का भव्य रूप मे पुननिर्माण किया और उसके साथ निर्माण किया 50 मीटर ऊंचे गोपुर का। यह गोपुर सात स्तरों का बना है। सबसे नीचे वाला स्तर प्रस्तरों अर्थात् पत्थरों का बना हुआ है। उसके उपर के छह स्तर, चूने से जोड़ी गई ईटों के बने हैं।

इस मंदिर में, गर्भगृह के बाजू में (गर्भगृह की और देखते हुए खड़े होने पर, अपने दाहिने हाथ में) एक कमरा है। इस कमरे मे प्रकाश कम आता है। जैसे डार्क रूम होता है, लगभग वैसे ही यह कमरा है। इस कमरे में एक बहुत छोटा सा झरोखा है। इस झरोखे से लगभग 300 मीटर दूरी पर, वह विशाल गोपुरम है। अगर हम उस कमरे के दरवाजे को पूरा बंद करते हैं, अर्थात, डार्क रूम जैसा वातावरण तैयार करते हैं, तो 50 मीटर ऊंचाई के उस गोपुरम की उल्टी प्रतिमा, उस कैमरे में तैयार होती है। बिलकुल वैसे ही, जैसे हम सिनेमा में देखते हैं। अगर हम उस झरोखे में अपना हाथ हिलायेंगे, तो वह प्रतिमा जैसे जूम होती है और हिलती भी है।

इसी का अर्थ, 5 सौ से अधिक वर्ष पूर्व, यह पिन होल कैमरे की तकनीक अपने मंदिरों के वास्तुविदों को पता थी। यह अद्भुत है।

पिन होल कैमरे का सिद्धांत इसके पूर्व भी पता था। इसके संदर्भ कहीं – कहीं मिलते हैं। आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व, ‘मोझी’ नाम की प्राचीन चीनी लिपि में इस सिद्धांत की अस्पष्ट सी जानकारी मिलती है।

‘इब्न अल् हेथम’ (Ibnal Haytham सन 965 -1040) एक अरबी शोधकर्ता थे। उन्हें पदार्थ विज्ञान में रुचि थी। विज्ञान की बहुत सी बातें उनको पता थीं, ऐसा उनका मानना था। इसीलिए, उस समय के (दसवीं शताब्दी के) बगदाद के खलीफा ने उन्हें बुला लिया। इब्न अल् हेथम बगदाद गये। खलीफा ने, नाईल नदी में नित्य आने वाली बाढ़ का प्रतिबंध करने के लिए उन्हें कुछ उपाय करने के लिए कहा। वे ‘नाईल नदी पर मैं बांध बनाकर बाढ़ को रोकूंगा’ ऐसी बड़ी – बड़ी बातें करके वापस आ गए। लेकिन वापस आने के बाद उन्हें लगने लगा कि ‘बहुत बड़ी गड़बड़ हुई है। यह काम अपने बस का नहीं है’। उन्होंने जाकर खलीफा को बताया। खलीफा नाराज हुआ और हेथम को कैद कर लिया। इस दौरान हेथम को उस कारागार की कोठरी में पिन होल कैमरे का सिद्धांत समझ में आया, ऐसा मानते हैं। आगे चल कर हेथम ने अरबी भाषा में ‘बुक ऑफ ऑप्टिक्स’ लिखी।

यह पुस्तक सन् 1572 में फ्रेडरिक राईजनयर ने जर्मन भाषा में प्रकाशित की। अब बात यह है कि भारतीयों को यह ज्ञान कहां से प्राप्त हुआ? निश्चित रूप से तो नहीं बता सकते। परंतु इब्न अल् हेथम के माध्यम से भारत में आया, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। यह ज्ञान भारत में उसके पूर्व से था। परंतु पिन होल कैमरा तकनीक से दूर की वस्तु, अंधेरे कमरे में उल्टी देख सकते हैं, इसमें कोई बड़ा वैज्ञानिक तत्व छुपा है, ऐसे हमारे प्राचीन शोधकर्ताओं को और वास्तुविदों को नहीं लगा होगा। क्योंकि इससे भी क्लिष्ट और विस्मयकारी रचनाएं इन वास्तुविदों ने भारत में की हैं।

प्रकाश क्या होता है? प्रकाश का पृथःकरण कैसे होता है, यह हमारे पूर्वजों को बहुत पहले से ही ज्ञात था। ऋग्वेद विश्व का सबसे प्राचीन ग्रंथ माना जाता है। ऋग्वेद के प्रथम मंडल में, सूक्त 587 से 599 में, भगवान सूर्य के महत्व का वर्णन किया गया है। सूक्त 594 और 595 मे स्पष्ट रूप से वर्णन किया है कि –

_सप्त त्वा हरितो रथे वहन्ति देव सूर्य ।_

_शोचिष्केशं विचक्षण ॥८॥ सूक्त – 594_

_अयुक्त सप्त शुन्ध्युवः सूरो रथस्य नप्त्यः ।_

_ताभिर्याति स्वयुक्तिभिः ॥९॥

सूक्त – 595_

अर्थात, हे सर्व द्रष्टा सूर्य देव, आप तेजस्वी ज्वालाओं से युक्त ऐसे दिव्यत्व को धारण करते हुए, सप्तवर्णी किरणों रूपी अश्वों के रथ में सुशोभित लग रहे हैं। पवित्रता प्रदान करने वाले, ज्ञान संपन्न ऐसे सूर्यदेव, आपका सात रंगों का अश्वरथ आपको शोभा देता है।

सूर्य किरणों का पृथःक्करण करने पर ‘बैजानीहपीनाल’ (VIBGYOR) ऐसे सात रंगों की किरणें तैयार होती हैं, इसकी जानकारी पाश्चात्य जगत को अभी कुछ सौ वर्ष पहले ही पता लगी थी। हमारे पुरखे इसे कुछ हजार वर्षों से जानते थे।

सुश्रुत आद्य शल्य चिकित्सक थे, यह अब विश्व मानने लगा है। ऑस्ट्रेलिया के मेलबोर्न में, ‘रॉयल ऑस्ट्रेलिया कॉलेज ऑफ सर्जन्स’ की भव्य इमारत में प्रवेश करते ही, सामने के हॉल में, सुश्रुत की एक बड़ी प्रतिमा रखी है। उस पर ‘आद्य शल्य चिकित्सक’ लिखा है। ईसा से पहले 800 वर्ष, यह उनका कालखंड है। सुश्रुत ने ‘सुश्रुत संहिता’ में आंखों के लैंस के संदर्भ मे लिखा है, ‘प्रकाश किरण जब आंखों के रेटिना पर पडती है, तब व्यक्ति को दिखने लगता है’ इसका विस्तार से वर्णन उन्होंने किया है।

हमारे पूर्वजों को प्रकाश किरणों का, प्रकाश किरण के गुण-विशेषणों का, प्रकाश किरणों के प्रभाव का ज्ञान सहज, स्वाभाविक रूप से था। अब न्याय शास्त्र और प्रकाश के सिद्धांत का क्या संबंध है? कोई संबंध नहीं है। परंतु चौथी शताब्दी में, ‘अक्षपद गौतम’ द्वारा लिखे गए ‘न्याय दर्शन’ ग्रंथ में ‘ऑप्टिक्स के सिद्धांत’ का उल्लेख है। इस ग्रंथ में तीसरे अध्याय के 43 से 47 सूक्तों में इस प्रकाश परावर्तन के सिद्धांत का वर्णन है।

_नक्तंचर नयनरश्मि दर्शनाच्य__अप्राप्यग्रहणं काचाभ्रपटल_ _स्फटिकान्तरितोपलब्धे: I_ 

_कुड्यांतरितानुपलब्धेरप्रतिषेध:__

आदित्यरश्मेः स्फटिकान्तरेsपि दाह्येsविघातात II_

सारांश, सामान्य आंखों से जो सूक्ष्म चीजें नहीं दिखतीं, वे कांच, अभ्रपटल (Mica) और स्फटिक (Crystal) की सहायता से हम देख सकते हैं।

जरा समझने का प्रयास करें, चौथी शताब्दी का यह ‘न्याय शास्त्र ग्रंथ’, हमें लेन्स के विषय में बता रहा है..!

अक्षपद गौतम के सौ वर्षं के बाद, वराहमिहिर ने (वर्ष 510 से 587) ‘बृहत्संहिता’ ग्रंथ में इंद्रधनुष्य के निर्माण का सिद्धांत लिखा है। 35वें अध्याय में वराहमिहिर लिखते हैं-

_सूर्यस्य विविधवर्णाः पवनेन विघत्तीः कराः साभ्रे।_

_व्यति धनुः संस्था ये दृश्यन्ते तदिन्द्रधनुः ॥_

अर्थात्, ‘जब सूरज की किरणें हवा से, बादल भरे आकाश में फैलती हैं, अर्थात विघटित होती हैं, तब उनके रंग अलग – अलग होते हैं और उनकी एक पट्टिका तैयार होती है। इसे ही इंद्रधनुष कहते हैं’।

वराहमिहिर के कुछ वर्ष पश्चात, आदि शंकराचार्य जी ने (वर्ष 788 से 820) ‘अपरोक्षानभूती’ नामक एक छोटा ग्रंथ लिखा है। उसमें 81वां श्लोक है-

_सूक्ष्मत्वे सर्व वस्तूनां स्थूलत्वं चोपनेत्रतः I_

  _तद्वदात्मनि देवत्व पश्यत्यज्ञानयोगतः II_

अर्थात्, ‘जब हम लेंस के माध्यम से (चोपनेत्रतः) छोटी वस्तुएं देखते हैं, तब वे बड़ी दिखने लगती हैं। उसी प्रकार से, ज्ञान चक्षु के माध्यम से ज्ञान विस्तृत दिखने लगता है’।

यहां प्रकाश के सिद्धांत की चर्चा करते समय आदि शंकराचार्य चश्मे (चोपनेत्र) की संकल्पना स्पष्ट कर रहे हैं। यह चश्मे की संकल्पना प्राचीन भारत में अनेक जगह मिलती है। श्रीलंका के गंपोला प्रान्त का भुवनाईका बहु (चौथा) राजा था। सन् 1344 से 1354, ऐसे दस वर्ष तक उसका राज चला। राजा ‘क्वार्टझ क्रिस्टल’ का चश्मा पहनता था, ऐसा समकालीन इतिहासकारों ने लिखा है। _(संदर्भ – श्रीलंका के ‘भंडारनायके सेंटर फॉर इंटरनॅशनल स्टडीज’ के समन्वयक जेनिफर पालन गुणवर्धने ने फेब्रुवारी 2018 के ‘Explore Sri Lanka’ इस पोर्टल पर एक आलेख लिखा है। इसका शीर्षक है, ‘Crystal Glasses That King Once Wore’)._

इस राजा को चश्मा किसने दिया?

भुवनाईका बहू (चौथा) के राज्य काल में उसने गदाला देनिया में एक बड़े बुद्ध मंदिर का निर्माण प्रारंभ किया। राजा को यह मंदिर, विजयनगर साम्राज्य के मंदिरों जैसा चाहिये था। उन दिनों, विजयनगर साम्राज्य, नया – नया स्थापन हुआ था। इसलिये राजा ने इस मंदिर के लिये विजयनगर के मुख्य वास्तुकार देव नारायण को अपने यहां बुला लिया। इसी देव नारायण ने राजा को क्रिस्टल का चश्मा दिया। इसका अर्थ स्पष्ट है, कि उस समय विजयनगर साम्राज्य में, अर्थात दक्षिण भारत में, चश्मा बनाने की कला प्रचलित थी।विजयनगर साम्राज्य में राजा कृष्णदेवराय के कार्यकाल में उनके राजगुरु थे व्यास राजा (व्यासा रायरु)। सन् 1447 से 1539 उनका कालखंड था। उनका जीवन वृत्तांत, उनके समकालीन संस्कृत कवि सोमनाथ द्वारा लिखा गया है। इस ग्रंथ में उल्लेख है कि ‘उम्र के 73 वें वर्ष में, सन् 1520 में, गुरु व्यास राजा कृष्णदेवराय के दरबार में चश्मा लगाकर ग्रंथ का वाचन कर रहे थे’। आगे चलकर 1771 में जब अंग्रेजों ने तंजावुर जीत लिया, तब उन्हें क्वार्टझ क्रिस्टल से चश्मे का कांच (लेन्स) बनाने के छोटे कारखाने मिले। बाद में ऑपर्ट ने 1807 में लिखकर रखा है कि दक्षिण भारत में लेन्स बनाने के कारखाने प्राचीन समय से थे।

यह सब इतने विस्तार से इसलिये लिखा है, कि प्रकाश के सभी भौतिक सिद्धांतों की जानकारी भारतीयों को पहले से ही थी।इसलिये पिन होल कैमरे की संकल्पना विरुपाक्ष मंदिर में उपयोग में लाते समय उन्होंने यह बाहर से उधार नहीं ली थी! यह ज्ञान, (या यूं कहें, इससे भी प्रगत ज्ञान) भारत में पूर्व से ही था, यह निश्चित है।

अब पट्टडकल के विरुपाक्ष मंदिर का उदाहरण लीजिए। यह विरुपाक्ष मंदिर अलग है। इस संदर्भ में शोध करने वाले अनेक शोधार्थी और अभ्यासक, इन दो विरुपाक्ष मंदिरों के बारे में भ्रमित होते हैं। गड़बड़ करते हैं। दोनों मंदिरों में बहुत सी समानताएं हैं। दोनों ही भगवान शंकर जी के मंदिर हैं। दोनों का नाम विरुपाक्ष ही है। दोनों मंदिर कर्नाटक में ही एक दूसरे से केवल 136 किलोमीटर दूरी पर हैं। दोनों को युनेस्को ने वैश्विक धरोहर स्थल के रूप में संरक्षित किया है। हम्पी का विरुपाक्ष मंदिर विजयनगर (पहले का बेल्लारी) जिले में आता है, तो पट्टडकल का विरुपाक्ष मंदिर, बागलकोट जिले में आता है।

पट्टडकल का विरुपाक्ष मंदिर मलप्रभा नदी के किनारे स्थापित है। बदामी और ऐहोले के पास। आठवीं शताब्दी में चालुक्य राजा विक्रमादित्य ने पल्लवों पर बड़ी विजय प्राप्त की। उस विजय की स्मृति में, विक्रमादित्य की पत्नी, रानी लोक महादेवी ने सन् 739 – 740 में इस मंदिर का निर्माण किया। इस मंदिर के पास एक विजयस्तंभ भी है। इस स्तंभ पर देवनागरी और कन्नड लिपि में, विक्रमादित्य (द्वितीय) के पल्लवों पर विजय के संदर्भ में जानकारी लिखी है।

विक्रमादित्य (द्वितीय) ने जब पल्लवों को परास्त किया, तब पल्लवों की राजधानी थी कांचीपुरम। इस कांचीपुरम के कैलास नाथ मंदिर, एकांबरेश्वर मंदिर जैसे अनेक मंदिरों का राजा विक्रमादित्य (द्वितीय) को आकर्षण था। विशेष रूप से कुछ ही वर्ष पूर्व, बनाया गया कैलास नाथ मंदिर। ऐसा मंदिर, राजा विक्रमादित्य को बनाना था। इसलिये पल्लव राज्य के ‘सर्व सिद्धीचारी’ और ‘गुंडा अनिवेदिता चारी’, इन दो प्रमुख वास्तुकारों को राजा ने मंदिर निर्माण के लिए बुलाया। इन वास्तुकारों ने, यह मंदिर एकदम सटीक रूप से, पूर्व – पश्चिम अक्षांश पर बनवाया है। इसके अठारह खंबों पर, रामायण, महाभारत और पंचतंत्र के प्रसंग उकेरे हैं। गर्भगृह के पहले ही कक्ष में, ऊपर छत पर विशाल सूर्य रचना का निर्माण किया है। सात घोड़ों के रथ में बैठे सूर्यदेव और दिन / रात की रचना..! सब भव्य रूप में और पूर्णतः वैज्ञानिक पद्धति से।

इन दोनों वास्तुकारों ने मंदिर निर्माण के समय गणित की अनेक मजेदार रचनाएं बनाई हैं। आगे चलकर सन् 1509 में, हम्पी के विरुपाक्ष मंदिर के निर्माण के समय यहां की रचनायें वहां पर भी हैं। गणितीय सूत्रों से कुछ पैटर्न तैयार होते हैं, उन्हें फ्रॅक्टल्स कहा जाता है। पट्टडकल के विरुपाक्ष मंदिर में ऐसे फ्रॅक्टल्स तैयार किये गये हैं। विशेष रूप से ईसा से 200 वर्ष पहले, महर्षि पिंगल शास्त्री ने गणितीय संख्या के विस्तार के सूत्र लिखे हैं। तेरहवीं शताब्दी में इटालियन गणितज्ञ फायबोनेची ने उसी का उपयोग किया और अब पूरा विश्व उसे ‘फाइबोनेची सीरीज’ नाम से जानता है। _(भारतीय ज्ञान का खजाना, भाग – 1 में ‘श्रीयंत्र का रहस्य’ आलेख में इसकी विस्तार से जानकारी दी है)।_ पिंगल शास्त्री के गणितीय सूत्रों का, अर्थात फाइबोनेची सीरीज का, इस विरुपाक्ष मंदिर में कुशलता से उपयोग किया गया है। पट्टडकल विरुपाक्ष मंदिर की रचना पूर्णतः भूमितीय श्रेणी रचना पर आधारित है। मंदिर का प्रत्येक यूनिट, भूमितीय श्रेणी (Multiplying) पद्धति से बढ़ते जाने वाला है। इसके कारण अनेक गणितीय अनुबंध तैयार हुए हैं।

सनद रहे, पट्टडकल का विरुपाक्ष मंदिर वर्ष 740 में पूर्ण रूप से तैयार हुआ। इस्लामी आक्रांता भारत में आने से 300- 400 वर्ष पहले। इस कालखंड में, अपने वास्तुकार, गणितीय संकल्पनाओं का उपयोग अपने वास्तु में कर रहे थे। आज आधुनिक काल में भी, मस्तिष्क को चौंकाने वाले शिल्पों का निर्माण कर रहे थे। बहुत कुछ अद्भुत और आश्चर्यजनक निर्माण हो रहा था..!

(आगामी ‘भारतीय ज्ञान का खजाना – भाग 2’ पुस्तक के अंश)

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