निरस्त हो पूजा स्थल अधिनियम 1991, हिंदुओं को मिले उनकी विरासत
बलबीर पुंज
निरस्त हो पूजा स्थल अधिनियम 1991, हिंदुओं को मिले उनकी विरासत
यह कहते हुए कि “शांति बनी रहे”— सर्वोच्च न्यायालय ने संभल मस्जिद मामले में 29 नवंबर को स्थानीय अदालत की कार्यवाही पर अस्थायी रोक लगा दी। उसने मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय को सुनवाई करने का निर्देश दिया है। आखिर इसका निहितार्थ क्या है? 24 नवंबर को अदालती निर्देश पर हुए सर्वे के दौरान खूनी हिंसा, जिसमें चार लोगों की मौत हो गई थी— उसके बाद शीर्ष न्यायालय ने जो निर्णय दिया, उसका मर्म यह है कि मामले में निर्णय इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या सच है या फिर कौन समुदाय कितना उपद्रव करता है और वह शासन-व्यवस्था के लिए कितनी बड़ी चुनौती बन सकता है। अर्थात्— चाहे ‘अन्याय’ कितना भी बड़ा हो, अदालत ‘न्याय’ से अधिक ‘शांति-सद्भावना’ को वरीयता देगी। क्या यह आदर्श न्यायिक विवेक हो सकता है?
क्या कारण है कि संभल या उससे पहले ज्ञानवापी-मथुरा आदि मामले समय-समय पर उठे हैं और संबंधित अदालतों में लंबित हैं? स्वतंत्रता मिलने के बाद करोड़ों हिंदुओं को अपेक्षा थी कि सदियों से चले आ रहे ऐतिहासिक अन्यायों (सामाजिक सहित) का परिमार्जन होगा। हिंदू समाज सदियों से अस्पृश्यता रूपी कुरीति से अभिशप्त रहा है। इसके क्षरण और अपने पूर्वजों के कर्मों पर प्रायश्चित करते हुए देश के नवनिर्माताओं ने वंचितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था दी, जो आज भी जारी है।
स्वाधीनता के बाद हिंदुओं के साथ मजहब के नाम पर हुए स्थापित सांस्कृतिक अन्यायों के परिमार्जन की शुरुआत, गांधीजी और सरदार पटेल ने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण से की। वर्ष 1951 में तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने इस पुनर्निर्मित मंदिर का उद्घाटन किया था। करोड़ों हिंदुओं की आशा बढ़ी कि अब अयोध्या, काशी, मथुरा सहित अन्य अन्यायपूर्ण कृत्यों का भी ऐसा ही समाधान होगा। चूंकि मंदिरों के विध्वंस के पीछे इस्लामी राजनीतिक संदेश था, इसलिए गांधीजी और सरदार पटेल के नेतृत्व में प्रारंभ हुए राजनीतिक उपक्रम को तत्कालीन कांग्रेस के भीतर भी व्यापक समर्थन मिला। परंतु यह कालांतर में स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कारण बेपटरी हो गया। जैसे ही गांधीजी और सरदार पटेल का देहांत हुआ, नेहरू की हिंदुओं और उनकी परंपराओं के प्रति हीन-भावना मुखर हो गई। दिल्ली में 17 मार्च 1959 को आयोजित एक सम्मेलन में उन्होंने कहा था, “कुछ दक्षिण के मंदिरों से… मुझे उनकी सुंदरता के बावजूद घृणा होती है। मैं उन्हें बर्दाश्त नहीं कर सकता… वे दमनकारी हैं, मेरी आत्मा को दबाते हैं…।” इसी मार्क्स-मैकॉले प्रदत्त नेहरूवादी चिंतन के गर्भ से वर्ष 1991 में पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम का जन्म हुआ।
तीन दशक पहले पारित इस कानून के समर्थक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत द्वारा जून 2022 में दिए वक्तव्य को कुछ लोग अपने ‘एजेंडे’ की पूर्ति हेतु उद्धत करते हैं, जिसमें उन्होंने कहा था, “हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखना।“ पहली बात संभल मस्जिद विवाद आज का नहीं है। यह मामला वर्ष 1878 में पहली बार अदालत पहुंचा था। तब छेड़ा सिंह नामक व्यक्ति ने मुरादाबाद में इस पर मालिकाना हक का मुकदमा दाखिल किया था, जिसे ब्रितानी न्यायाधीश रॉबर्ट स्टुअर्ट ने निरस्त कर दिया था। उसी कालखंड में पुरातात्विक साक्ष्य होने के बाद भी ऐसा ही हश्र श्रीरामजन्मभूमि मामले में महंत रघुबर दास की याचिकाओं का भी हुआ था। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि तब अंग्रेज भारत में हिंदुओं को न्याय देने नहीं, बल्कि राज करने आए थे।
वर्ष 1991 के कानून का हवाला देकर वामपंथी-सेकुलर-जिहादी वर्ग, संभल के साथ ज्ञानवापी-मथुरा आदि मामले में हिंदू पक्षों द्वारा दाखिल याचिकाओं को लोकतंत्र-संविधान का ‘अपमान’ बताता है। यदि ऐसा है, तो वर्ष 2019 में संसद के दोनों सदनों से पारित ‘नागरिक संशोधन अधिनियम’ के विरुद्ध इसी जमात ने देश के कई क्षेत्रों को हिंसा की आग में क्यों झोंका? यह ठीक है कि तकनीकी रूप से संसद कोई भी कानून बना सकती है और न्यायालय उसकी व्याख्या भी कर सकते हैं। परंतु क्या कार्यपालिका के पास ऐसे कानूनों को लागू करने की शक्ति है, जो व्यापक जनमानस के विरुद्ध हो?
किसी भी कानून के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए उसका व्यापक जनसमर्थन होना आवश्यक है। वर्ष 2020 में संसद से पारित तीन कृषि-सुधार कानूनों के मामले में क्या हुआ था? क्या यह सत्य नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से राजनीतिक-वैचारिक-व्यक्तिगत विरोध के कारण हजारों की भीड़ ने इन कानूनों को ‘अपवित्र’ और ‘काला’ बताकर दिल्ली-हरियाणा-पंजाब सीमा को एक वर्ष तक अवरुद्ध कर दिया था? इस आंदोलन में देशविरोधी शक्तियों की लामबंदी, विदेशी आकाओं से वित्त पोषण मिलने और इससे राष्ट्रीय संप्रभुता-एकता-अखंडता पर खतरा बढ़ने के पश्चात प्रधानमंत्री मोदी 19 नवंबर 2021 को इन कृषि-सुधार कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दी। जब एक कृषक वर्ग की आपत्ति (अनैतिक होकर भी) जताने पर सरकार ने राष्ट्रहित में तीनों कृषि-सुधार कानूनों को निरस्त कर दिया, तो संभल, मथुरा, ज्ञानवापी मामले में हिंदू पक्ष द्वारा वर्ष 1991 के कानून पर प्रश्न उठाना या उसे निरस्त करने की मांग करना— अपराध कैसे है?
जब बाबा साहेब अंबेडकर के बनाए संविधान में पिछले 75 वर्षों में 100 से अधिक संशोधन (प्रस्तावना सहित) हो चुके हैं, तब वर्ष 1991 का कानून, जो हिंदुओं को उनके ध्वस्त पूजास्थलों, तीर्थस्थलों को वापस पाने के अधिकार और वहां पूजा-अर्चना से वंचित करने का दूषित प्रयास था— वह क्यों नहीं निरस्त या संशोधित किया जा सकता?
(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)