उदयपुर: प्रताप गौरव केंद्र में गवरी का भव्य आयोजन
उदयपुर: प्रताप गौरव केंद्र में गवरी का भव्य आयोजन
प्रताप गौरव केंद्र राष्ट्रीय तीर्थ पर 21 सितंबर को पारंपरिक लोक कला ‘गवरी’ का भव्य आयोजन किया गया। इस अवसर पर लोक कलाकारों ने आदिवासी समुदाय की इस विशिष्ट लोक परंपरा का मंचन किया, जिसमें सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर जोर दिया गया।
गवरी के मंचन में कलाकारों ने अपनी प्रस्तुति के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक एकता और नारी सशक्तिकरण जैसे महत्वपूर्ण प्रकरणों को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया। इस आयोजन में बड़ी संख्या में दर्शकों ने भाग लिया और राजस्थान की इस प्राचीन लोक परंपरा की सराहना की।
प्रताप गौरव केंद्र में आयोजित यह कार्यक्रम क्षेत्रीय संस्कृति और लोक कलाओं के संवर्धन के उद्देश्य से आयोजित किया गया, जिसमें स्थानीय कलाकारों ने अपनी कला का प्रदर्शन किया।
गवरी नृत्य का इतिहास
गवरी नृत्य राजस्थान की भील जनजाति की एक प्राचीन और अनूठी धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा है। यह नृत्य मुख्य रूप से मेवाड़ क्षेत्र (उदयपुर, राजसमंद, चित्तौड़गढ़) में लोकप्रिय है और मानसून के बाद भाद्रपद माह में 40 दिनों तक किया जाता है। गवरी एक प्रकार का नाटकीय लोक नृत्य है, जिसमें देवी-देवताओं, राक्षसों और पौराणिक पात्रों की कहानियां नाट्य रूपांतरण के साथ प्रस्तुत की जाती हैं।
गवरी नृत्य की उत्पत्ति
गवरी की उत्पत्ति आदिवासी भील समुदाय से मानी जाती है, जो शिव और देवी गौरजा (पार्वती) के उपासक हैं। गवरी नृत्य मुख्य रूप से देवी गौरजा की पूजा के लिए किया जाता है। मान्यता है कि इस नृत्य के माध्यम से शिव-पार्वती का आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है, जो समुदाय की समृद्धि और सुरक्षा का प्रतीक है।
प्रमुख पात्र और प्रदर्शन
गवरी में कई पात्र होते हैं, जिनमें ‘भोपा’ (मुख्य पुजारी) प्रमुख होता है। अन्य मुख्य पात्रों में शिव, पार्वती, भोमिया (स्थानीय देवता), और राक्षसों की भूमिका निभाने वाले कलाकार होते हैं। नृत्य में हास्य के लिए ‘राई’ और ‘कानिया’ जैसे पात्र भी होते हैं, जो दर्शकों का मनोरंजन करते हैं।
धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
गवरी नृत्य न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह सामाजिक मुद्दों, नैतिकता, और जीवन मूल्यों को भी दर्शाता है। इस नृत्य में भील समुदाय के पुरुष 40 दिनों तक शारीरिक संयम, शुद्ध आचरण और समाज सेवा की प्रतिज्ञा लेते हैं। इन दिनों वे घर नहीं लौटते, मांस-मदिरा का सेवन नहीं करते और पूरी तरह से इस धार्मिक अनुष्ठान में लीन रहते हैं।
इस प्रकार, गवरी नृत्य राजस्थान की लोक संस्कृति और परंपराओं का एक महत्वपूर्ण भाग है, जो आदिवासी जीवन, उनकी आस्था और सामाजिक मूल्यों को दर्शाता है।