सबको जोड़ने का नाम है राम
प्रो. (डॉ.) बालू दान बारहठ
रामलला मंदिर में विराजमान हो गए। अगणित बलिदानों और लम्बी प्रतीक्षा के बाद यह शुभ दिन आया। मन प्रसन्न है।भारत में राम की यात्रा राष्ट्र की यात्रा है। राम का जीवन राष्ट्र का जीवन है। उनके संकट, उनकी विपत्ति सदा राष्ट्र के संकट और राष्ट्र की विपदा रहे हैं। वनवास की समाप्ति और राज्याभिषेक की तिथि (दिवाली) के उत्सव से हम सभी अवगत ही हैं। जरा सोचिए, अगर वनवास प्रस्थान या सीता माता के अपहरण या राजा दशरथ के वचन की कोई तिथि वर्णित होती तो समाज में उस दिन कैसी उदासी होती, कैसा शोकाभिव्यक्त होता? परंतु प्रभु श्रीराम और सनातन में केवल उत्सव का ही स्थान है, वेदना हमारे सामाजिक जीवन का हिस्सा नहीं है।
लेकिन राम के कष्ट उनके दैहिक जीवन के उपरांत भी बने रहे। समाज में व्यापक स्तर पर राम का लौकिकीकरण हुआ, कथाएं कही और बांची गईं। शब्द रचे गए। हे राम, अरे राम, राम राम, राम जाने, राम बाण, ओह राम, राम राज्य जैसे शब्द विभिन्न मन:स्थिति की अभिव्यक्ति के साधन बने। लेकिन शायद इतना सब पर्याप्त न था। कुछ लोगों ने राम के अस्तित्व से इंकार किया। उन्हें काल्पनिक पात्र ठहराया। उनके लिए रामायण, राम पथ, राम सेतु, वनवास, अयोध्या आदि तो मात्र उपहास की वस्तु थे। रामजी के पहनावे और खानपान पर प्रश्न खड़े किए गए। संगोष्ठी और सेमिनार रखे गए। राम का विरोध बौद्धिक होने और पुरस्कार पाने की गारंटी मानी गई। विरोधाभास यह था कि राम के अस्तित्व को नकारने वाले इन्हीं लोगों ने सीता माता के बहाने, जंबालिक वध के बहाने राम को महिला विरोधी और कमजोर विरोधी स्थापित करने का भी प्रयास किया। दरअसल, राम के बहाने सनातन को विखंडित करने, तोड़ने और कमजोर करने के षड्यंत्र रचे गए। लेकिन राम जोड़ने का नाम है, सत्य का नाम है, पुण्य और नैतिकता का नाम है। धर्म को अफीम कहने वालों के लिए भारत आसान शिकार था। लेकिन यहां भी उन्हें राम से मात खानी पड़ी। भारत का किसान, भारत का मजदूर दिन भर के श्रम की थकान राम के भजन गा कर, सत्संग सुनकर मिटाता था न कि किसी हिंसक क्रांति की योजना बनाकर।
दुनिया के इतिहास को देखें तो ज्ञात होता है कि मजहब और पंथ यहां सदा शोषण के साधन रहे हैं। फ्रेंज फेनन ने लिखा कि जब औपनिवेशिक शक्तियों ने अफ्रीका में प्रवेश किया, तब उनके पास ईसाइयत का झंडा था और स्थानीय लोगो के पास जमीन और संसाधन। कुछ वर्षों बाद उपनिवेश के पास जमीन और धन था तथा स्थानीय लोगो के पास क्रूसेड का झंडा। यह कहानी लैटिन अमेरिका की भी है, एशिया की भी है और भारत की भी। वास्तव में, पूरे मध्यकाल के इस्लामिक आक्रमण हों या आधुनिक युग का साम्राज्यवाद, धन और मजहब जनसंहार की सबसे बड़ी प्रेरणा रही हैं। यूरोप की तथाकथित आधुनिकता सदा ही ईसाइयत के इर्द गिर्द ही रही। हाब्स की लेबियाथन को वैज्ञानिकता और आधुनिकता का पर्याय माना गया, लेकिन 600 पृष्ठ की इस पुस्तक में 600 से अधिक बार यीशु, ईसाइयत का संदर्भ आया है। आज भी इस्लामिक देशों और यूरो अमेरिकी देशों की अर्थनीति, राजनीति, समाजनीति मजहबी दावों की अभिव्यक्ति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। इधर भारत के ज्ञात इतिहास में कभी भी राम या सनातन आक्रमण, शोषण, अत्याचार या पीड़ा के कारण नहीं रहे, अपितु वसुधैव कुटुंबकम्, सर्वे भवन्तु सुखिन: की प्रेरणा रहे हैं।इसलिए राम की यात्रा, राम का इतिहास राष्ट्र की यात्रा और राष्ट्र का इतिहास है।
90 के दशक में जब शीतयुद्ध की एकतरफा समाप्ति हुई, अमेरिका केंद्रित उदारवाद के जीवन मूल्यों को वैश्विक स्वीकार्य माना गया, तब इतिहास का अंत, विचारधारा का अंत जैसे पदबंध गढ़े गए। जिसका अर्थ था कि बस, दुनिया में जो सबसे अच्छा हासिल किया जा सकता था, वह हो गया है, अब कुछ और तलाश करना व्यर्थ है। इस पृष्ठभूमि में समकालीन भारत पर विचार कीजिए। विश्व भारत की और देख रहा है, भारत की अर्थव्यवस्था, राजव्यवस्था, समाज व्यवस्था को आज आदर्श स्थिति में देखा जा रहा है।सार्वजनिक जीवन का हर पक्ष उन्नति के शिखर पर है। किसी को पराजित किए बिना ही हर भारतीय का सिर गर्वित है, हर चेहरा विजयी मुस्कान के साथ है, उल्लासित और आनंदित है। क्या यही रामराज्य का आरंभ नहीं है? सनातन का गौरव काल नहीं है? भारत का अमृत युग नहीं है? विश्व गुरु होने का आरंभ नहीं है?
आज प्रभु श्रीराम तो अयोध्या लौट आए हैं। लेकिन कुछ लोगों के हृदय में उनका वास अब भी शेष है। ऐसे लोगों का जीवन भी राममय हो, ऐसी शुभेच्छा के साथ स्वर्णिम भविष्य के आरंभ दिवस की आत्मिक बधाई।