गुरु गोविन्द सिंह के साहिबजादों का अविस्मरणीय बलिदान

गुरु गोविन्द सिंह के साहिबजादों का अविस्मरणीय बलिदान

26 दिसम्बर : वीर बाल दिवस

रमेश शर्मा

गुरु गोविन्द सिंह के साहिबजादों का अविस्मरणीय बलिदान गुरु गोविन्द सिंह के साहिबजादों का अविस्मरणीय बलिदान

दिसम्बर माह की 21 तारीख से लेकर 27 तारीख के बीच गुरु गोविन्द सिंह के चारों पुत्र क्रूरतम यातनाओं के बाद बलिदान हो गए। ऐसा उदाहरण विश्व के किसी देश के इतिहास में नहीं मिलता। इनमें 26 दिसम्बर के दिन दो अबोध साहिबजादों का बलिदान हुआ। ये बलिदान राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिये हुए। इस वर्ष यह दिवस वीर बाल दिवस के रूप में स्मरण किया जा रहा है।

सनातन संस्कृति और परंपराओं की रक्षा के लिये भारत में असंख्य बलिदान हुए हैं। इनमें गुरु गोविन्द सिंह की पीढ़ियों के बलिदान आज के परिप्रेक्ष्य में और अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं। वर्तमान समय में उन्हें जानना ही नहीं महसूस भी करना चाहिए। गुरु गोविन्द सिंह के चारों पुत्रों को दी गई क्रूरतम यातनाओं और बलिदान का विवरण रोंगटे खड़े कर देने वाला है।

सिखों के दसवें गुरु गुरु गोविन्द सिंह के पुत्रों के बलिदान ईस्वी सन् 1705 में हुए थे। इनमें दो सबसे छोटे पुत्रों साहिबजादा जोरावर सिंह व साहिबजादा फतेह सिंह का बलिदान 26 दिसम्बर को बहुत छोटी सी आयु में ही हुआ था। यह सिख पंथ की गरिमामयी परंपरा और राष्ट्र संस्कृति की रक्षा के लिए दी गई आहुति थी।

गुरु गोविन्द सिंह के दो पुत्रों ने जहाँ युद्धभूमि में वीरता और अनोखे साहस का परिचय दिया तो दो छोटे साहिबजादों ने जिन्दा दीवार में दफ़न होना पसंद किया, लेकिन इस्लाम नहीं अपनाया। उनके सबसे बड़े पुत्र की आयु सत्रह वर्ष और सबसे छोटे पुत्र की आयु मात्र पाँच वर्ष ही थी। इन चारों का बलिदान इसी सप्ताह हुआ। इनके साथ इनकी दादी माता गूजरी का बलिदान भी क्रूरतम यातनाओं के साथ हुआ।

वह समय भारत में मुगल बादशाह औरंगजेब के शासन का अंतिम समय था। उसने सिख पंथ को जड़ से समाप्त करने का संकल्प कर लिया था। इसके लिये उसकी मुगल फौज पंजाब में फौज सिखों की तलाश में लगी थी। सिखों को ढूंढ ढूंढ कर यातनाएँ दी जा रहीं थीं। उन दिनों सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह आनंदपुर किले में थे। मुगलों की फौज ने इस किले का घेरा डाला हुआ था। यह घेरा लगभग छै माह तक पड़ा रहा। एक समय ऐसा आया जब किले का राशन पानी सब समाप्त हो गया। गुरु गोविन्द सिंह के सामने दो ही रास्ते थे, एक अंतिम युद्ध लड़कर बलिदान दे दिया जाए, दूसरा सुरक्षित निकलकर युद्ध जारी रखा जाए। गुरु गोविन्द सिंह ने दूसरा मार्ग चुना। वे आनंदपुर से निकलकर चमकौर की ओर पहुँचे। यहां एक पुराना किला था। वहां के निवासी सिख गुरु के प्रति श्रद्धा रखते थे। गुरु गोविन्द सिंह अपने परिवार और विश्वस्त सैनिकों के साथ यहीं आये। वह 21 दिसम्बर 1705 की रात थी, जब वे चमकौर पहुँचे। गुरु गोविन्द सिंह जी आनंदपुर से निकलने की खबर मुगल सेना को लग गयी थी। मुगल फौज की एक टुकड़ी भी इस काफिले के पीछे चलने लगी। मुगलों की फौज का नेतृत्व नवाब वजीर खां के हाथ में था। जब गुरु गोविन्द सिंह चमकौर किले में पहुँचे तो मुगल फौज ने चमकौर किले पर घेरा डाल लिया। चमकौर की इमारत पुरानी थी। वह इस स्थिति में नहीं थी कि लंबे समय तक सुरक्षित रह सके। कुछ दीवारें तो केवल मिट्टी की ही थीं। इतिहास की पुस्तकों में मुगल फौज की संख्या तीन लाख अंकित है। जबकि किले के भीतर सिखों की संख्या मात्र दो हजार थी, जिनमें स्त्रियां और बच्चे अधिक थे, सैनिक कम। सैनिकों की संख्या तो मात्र कुछ सैकड़ा ही थी। लेकिन सिखों ने संख्या बल होने की चिंता नहीं की। सभी सिख सैनिकों ने साहस से मुकाबला किया। यहीं से यह कहावत प्रसिद्ध हुई कि “सवा लाख से एक लड़ाऊं” । यहाँ दो निर्णय हुए- जत्थों के साथ युद्ध किया जाए और गुरुजी यानि गुरु गोविन्द सिंह को सुरक्षित निकाला जाए। जत्था तैयार करके युद्ध लड़ने की रणनीति बनी। प्रत्येक जत्थे में केवल दस ही सैनिक थे। पहले जत्थे का नेतृत्व साहबजादे अजीत सिंह को सौंपा गया। हालांकि अन्य सैनिकों ने साहबजादे को रोका पर अजीतसिंह न माने। गुरु गोविन्द सिंह ने स्वयं अपने बेटे को हथियार दिये। साहिबजादे निकले और शत्रु सेना पर टूट पड़े। वे बहुत अच्छे तीरंदाज थे। उनके पास तीर कमान और तलवार दोनों थे। दूसरी ओर मुगल सैनिकों के पास बंदूकें भी थीं। सभी सिख सैनिक जानते थे कि युद्ध का परिणाम क्या होगा फिर भी उन्होंने युद्ध किया और अपने अपने अंतिम तीर तक युद्ध किया। तलवार से तब तक युद्ध किया जब तक तलवार टूट न गयी। कोई इस वीरता की कल्पना कर सकता है कि केवल दस सैनिकों को लेकर एक नायक ने युद्ध लड़ा हो फिर भी यह युद्ध दिन के तीसरे पहर तक चला हो। यह 23 दिसम्बर का दिन था, जब साहिबजादे अजीत सिंह का बलिदान हुआ। अगले दिन का युद्ध दूसरे साहिबजादे फतेह सिंह के नेतृत्व में सिख जत्थे ने लड़ा। तब फतेह सिंह की आयु मात्र पन्द्रह वर्ष थी। वे भी वीरता पूर्वक बलिदान हुए। तब पंच प्यारों ने गुरु जी से सुरक्षित निकल जाने का आग्रह किया। उनका आग्रह मानकर गुरु गोविन्द सिंह ने अपने परिवार और कुछ सैनिकों के साथ किले के गुप्त मार्ग से निकलना स्वीकार कर लिया। यह संख्या कुल इक्यावन थी। कहीं कहीं यह संख्या साठ भी लिखी है। बाकी लोगों ने किले में ही रहकर मुकाबला करने का निर्णय लिया ताकि मुगल सैनिकों को यह संदेह न हो कि गुरुजी निकल गये हैं। चमकौर के पास सरसा नदी बहती थी। यह 24 और 25 दिसम्बर 1705 की रात थी। भयानक ठंड और मावठ का मौसम। पानी बर्फ की तरह ठंडा था। अभी गुरु गोविन्द सिंह का काफिला नदी पार भी न कर पाया था कि वजीर खान को खबर लग गयी। उसकी सेना नदी पर टूट पड़ी। इस अफरा तफरी में गुरु गोविन्द सिंह का परिवार बिखर गया। सबसे छोटे दो साहिबजादे जोरावर सिंह सात वर्ष और जुझार सिंह पाँच वर्ष दादी माता गुजरी के साथ बिछुड़ गये। इनके साथ न कोई सेवक और न कोई सैनिक। अंधेरी रात और भीषण सर्दी के बीच दादी और दोनों बच्चों ने नदी पार की। दादी अंधेरे में ही दोनों बच्चों को लेकर जहाँ राह मिली, उसी ओर चल दीं। कितना चलीं, कितनी राह निकली कुछ पता नहीं। सवेरा हुआ। सूरज निकला। एक स्थान पर थकान मिटाने रुकीं, बच्चों के लिए भोजन भी जुटाना था। तभी एक व्यक्ति दिखा। जिसका नाम गंगू था। वह गुरु गोविन्द सिंह का पुराना सेवक था। उसने माता गूजरी को पहचाना और विश्वास दिलाकर अपने घर ले गया। उसके गाँव का नाम खैहैड़ी था। उसने भोजन दिया विश्राम कराया और घर से निकल लिया। यह 25 दिसम्बर का दिन था। उसने खबर वजीर खान को दी और इनाम में सोने की मुहर प्राप्त की। शाम तक मुगल सैनिक आ धमके। माता गुजरी और दोनों बच्चों को पकड़ ले गये। उन्हें रात भर बुर्ज की दीवार पर बांधकर रखा गया। अगले दिन वजीर खान के सामने लाया गया। वह 26 दिसम्बर 1704 का दिन था। वजीर खान ने माता गूजरी और दोनों बच्चों से इस्लाम अपनाने को कहा। बच्चों ने मना कर दिया। वजीर खान ने आदेश दिया कि यदि बच्चे इस्लाम न अपनाएं तो इन्हें जिन्दा दीवार में चुन दिया जाए। बच्चों को भूखा रखा गया। रात भर फिर बुर्ज पर पटका, पर दोनों साहिबजादे अडिग रहे। उन्हें 27 दिसम्बर को जिन्दा दीवार में चुन दिया गया। माता गुजरी के प्राण भी भीषण यातनाएं देकर लिये। इस तरह दिसम्बर माह का यह अंतिम सप्ताह गुरु गोविन्द सिंह के चारों साहिबजादों और माता गूजरी के बलिदान की स्मृति के दिन हैं।

इस स्मृति के लिये ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 26 दिसम्बर वीर बाल दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की है। वीर बाल दिवस पर स्कूलों में अनेक आयोजन व गोष्ठियां होंगी।

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