भगवा आतंकवाद… यह गलत था, शिंदे की स्वीकारोक्ति और कांग्रेस का चरित्र
बलबीर पुंज
भगवा आतंकवाद… यह गलत था, शिंदे की स्वीकारोक्ति और कांग्रेस का चरित्र
मिथक ‘हिंदू/भगवा आतंकवाद’ सिद्धांत कितना बड़ा षड्यंत्र था, उसका पुन: खुलासा कांग्रेसी नेता और पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के एक दावे से हो जाता है। एक हालिया पॉडकास्ट में बात करते हुए शिंदे ने कहा, “उस समय रिकॉर्ड पर जो आया था, उन्होंने वही कहा था। यह उनकी पार्टी (कांग्रेस) ने उन्हें बताया था कि भगवा आतंकवाद हो रहा। उस समय पूछा गया था तो बोल दिया था भगवा आतंकवाद… यह गलत था।” इसी पॉडकास्ट में शिंदे, दिसंबर 2001 के संसद आतंकवादी हमले के दोषी और फांसी पर लटकाए जा चुके जिहादी अफजल गुरु को आतंकी कहने से बचते भी नजर आए। यह किसी से छिपा नहीं है कि कांग्रेस में पार्टी का अर्थ गांधी परिवार (सोनिया-राहुल-प्रियंका) है। यह चिंतन उस मानसिकता की उपज है, जिसमें इस्लामी आतंकवाद को प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से जायज ठहराने के लिए ‘हिंदू आतंकवाद’ रूपी छलावा खड़ा किया गया था। इस षड्यंत्र में वामपंथियों और कट्टरपंथी मुस्लिमों के साथ कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व भी शामिल था।
शिंदे के हालिया कबूलनामे से वह कड़वा सच भी एकाएक ध्यान में आता है कि ज्ञान-विज्ञान और पराक्रम जैसे गुणों से सुशोभित होते हुए भी भारत मध्यकाल में लगभग 600 वर्षों तक मुस्लिम और फिर 200 वर्षों तक अंग्रेजों के अधीन क्यों हो गया था। इतिहास साक्षी है कि यदि व्यक्तिगत खुन्नस के कारण जयचंद, पृथ्वीराज चौहान को धोखा नहीं देता, तो विदेशी आक्रांता मुहम्मद गौरी नहीं जीतता। इसी तरह यदि शाह वलीउल्लाह मराठाओं के विरुद्ध अफगान अब्दाली को भारत नहीं बुलाता और प्लासी की लड़ाई में मीर जाफर यदि सिराजुद्दौला को न छलता, तो भारत में अंग्रेजी साम्राज्य संभवत: स्थापित ही नहीं होता। कांग्रेस नीत यू.पी.ए. (वर्तमान आई.एन.डी.आई.ए) कार्यकाल में उसी काले इतिहास को दोहराया गया था।
व्यक्तिगत, राजनीतिक और वैचारिक विरोध के चलते ‘हिंदू/भगवा आतंकवाद’ शब्दावली की रचना कर दुनिया में भारत, हिंदू समाज, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा और अन्य संगठनों को कलंकित करने का जाल बुना गया। इसकी जड़ें 1993 के मुंबई श्रृंखलाबद्ध (12) बम धमाके में मिलती हैं, जिसमें 257 निरपराध मारे गए थे। तब महाराष्ट्र के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री शरद पवार ने आतंकियों की मजहबी पहचान और उद्देश्य से ध्यान भटकाने हेतु झूठ गढ़ दिया कि ‘13वां’ धमाका मस्जिद के पास हुआ था। यह प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से हिंदुओं को आतंकवाद से जोड़ने का प्रयास था। इसी चिंतन को यूपीए-काल (2004-14) में राहुल गांधी के साथ पी.चिदंबरम और सुशील कुमार शिंदे ने बतौर केंद्रीय गृहमंत्री आगे बढ़ाया था।
हद तो तब हो गई, जब कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने वर्ष 2008 के भीषण मुंबई 26/11 आतंकवादी हमले के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हाथ बता दिया। यहां तक, दिग्विजय ने इसी हमले में जिहादियों की गोलियों के शिकार हुए मुंबई आतंक निरोधक दस्ते के तत्कालीन प्रमुख हेमंत करकरे की मौत को हिंदूवादी संगठनों से जोड़ने का प्रयास किया था। इस संबंथ में तब पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा हाथों में पवित्र कलावा/मौली को आधार बनाकर कई समाचारपत्रों में आलेख तक प्रकाशित हुए थे। सोचिए, यदि आतंकी कसाब और डेविड हेडली (दाऊद सैयद गिलानी) के जीवित नहीं पकड़े जाते, तो क्या होता?
वास्तव में, यह हिंसा-घृणा के पीड़ितों को ‘अपराधी’ और दोषियों को ‘मासूम’ बताने का ‘सेकुलरवादी’ (‘लेफ्ट-लिबरल’ सहित) षड्यंत्र है। 14 फरवरी 1998 को कोयंबटूर में श्रंखलाबद्ध 12 बम धमाके हुए थे, जिसमें 58 निर्दोषों की मौत हो गई। आतंकवादियों का मुख्य निशाना भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी थे, जिन्हें तब चुनाव प्रचार हेतु कोयंबटूर आना था। परंतु विमान परिचालन में देरी से उनकी जान बच गई। तब कांग्रेस के तत्कालीन शीर्ष नेतृत्व ने न केवल इन बम धमाकों का आरोप संघ पर लगा दिया, बल्कि यहां तक कह दिया— “अगर बम भाजपा के अलावा किसी और ने लगाया होता, तो ऐसा करने वाले निश्चित रूप से आडवाणी को मार देते।” इसी मामले में अदालत द्वारा सैयद अहमद बाशा, फखरुद्दीन, इमाम अली आदि दोषी ठहराए गए थे।
प्रधानमंत्री मोदी के दानवीकरण हेतु इस कुनबे ने फरवरी 2019 के भीषण पुलवामा आतंकवादी हमले, जिसमें 40 सुरक्षाबलों का बलिदान हुआ था— उसे ‘भाजपा द्वारा प्रायोजित’ बताने का प्रयास किया था। ऐसा ही जहरीला नैरेटिव 27 अक्टूबर 2013 को बिहार के पटना में हुए क्रमवार बम धमाकों में भी बनाया गया था। तब प्रसिद्ध गांधी मैदान में उस समय 5 धमाके किए गए थे, जब गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी (वर्तमान प्रधानमंत्री) लगभग तीन लाख की जनसभा को संबोधित कर रहे थे। तब तत्कालीन सत्तारूढ़ कांग्रेस के बड़े नेताओं ने प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से धमाकों के लिए भाजपा को कटघरे में खड़ा कर दिया था। इसी मामले में अदालत ने हैदर अली, नुमान अंसारी, मोजिबुल्लाह, इम्तियाज आलम आदि को दोषी पाया था।
इसी कुनबे ने यह भी आरोप लगाया था कि प्रधानमंत्री मोदी बीता लोकसभा चुनाव जीतने के लिए अयोध्या स्थित राम मंदिर पर पुलवामा जैसा आतंकवादी हमला करा सकते है। वास्तव में, यह नैरेटिव 500 वर्ष पश्चात पुनर्निर्मित राम मंदिर पर प्रबल संभावित जिहादी हमले होने की स्थिति में न केवल हिंदुओं को लांछित करने, अपितु असली दोषियों को मासूम बताने के अग्रिम उपक्रम का भाग है। यह कोई पहली बार नहीं है। भड़काऊ भाषणों के लिए कुख्यात और आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने के आरोपी अब्दुल नासिर मदनी को जेल से बाहर निकालने हेतु वर्ष 2006 में होली की छुट्टियों के दिन— 16 मार्च को केरल विधानसभा में विशेष सत्र बुलाकर कांग्रेस और वामपंथियों ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया था। ऐसी ही हमदर्दी यह समूह इशरतजहां, याकूब मेमन, अफजल गुरु, बुरहान वानी और आदिल अहमद डार जैसे घोषित आतंकवादियों के प्रति भी दिखा चुका है।
आतंकवाद वर्तमान विश्व की एक बड़ी समस्या है और भारत सदियों से इसका शिकार। इसके खिलाफ सभ्य समाज को हर हाल में लड़ाई को जीतनी होगी। यदि हम इसी तरह आतंकवाद के वास्तविक पीड़ितों को ही ‘अपराधी’ बताते रहे, तो क्या हम इसके असली गुनाहगारों को ‘सुरक्षित मार्ग’ प्रदान नहीं कर रहे? ऐसी स्थिति में क्या भारत, आतंकवाद के खिलाफ जारी लड़ाई जीत सकता है?
(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)