विचार विमर्श के लिए प्रतिष्ठित संसदीय सदनों में हंगामा निराशाजनक

हृदयनारायण दीक्षित
विचार विमर्श के लिए प्रतिष्ठित संसदीय सदनों में हंगामा निराशाजनक
संसद सर्वोच्च जनप्रतिनिधि विधायी संस्था है। संसद पर सरकार को उत्तरदायी बनाने का दायित्व है। लेकिन पीछे काफी समय से संसद की गरिमा व महिमा पर आंच आ रही है। संसद के पास अनेक काम हैं। संसद का बहुत सारा काम समितियां करती हैं। माना जाता है कि संसदीय समितियों में राजनैतिक दलबंदी नहीं होती। समितियों का वातावरण शांतिपूर्ण होता है। ऐसे में गहन अध्ययन और विवेचन के अवसर होते हैं। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। अब संसदीय समितियों में भी लोकसभा और राज्यसभा जैसे हंगामे हो रहे हैं। वक्फ संशोधन विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति को गहन विचारण के लिए भेज दिया गया था। समिति की बैठक में पिछले शुक्रवार को भारी हंगामा हुआ। आरोप है कि 10 सदस्यों ने लगातार हंगामा किया। उन्हें निलंबित किया गया। समिति के सभापति जगदंबिका पाल के अनुसार, उन्हें भी अपशब्द कहे गए। स्थिति चिन्ताजनक है। विचार विमर्श के लिए प्रतिष्ठित संसदीय सदनों में हंगामा निराशाजनक है। लोकसभा और राज्यसभा में हंगामे के कारण बहुधा कामकाज नहीं होता। अब संसदीय समितियों की भी यही स्थिति है। पूरी संसदीय व्यवस्था में अव्यवस्था है। संसदीय अव्यवस्था और शोर शराबे को लेकर देश के सुधी जनों में चिन्ता है। राज्य विधान मण्डलों ने भी सम्भवतः संसद की अव्यवस्था से प्रेरणा ली और अब विधान मण्डलों में भी घोर अव्यवस्था है। देश के सभी सदनों के पीठासीन अधिकारियों की अनेक बैठकें हो चुकी हैं। संसद के स्वर्ण जयंती अधिवेशन में शोर शराबे और हंगामा नहीं होने देने के लिए संकल्प लिए गए थे। लेकिन परिणाम शून्य रहा।
परस्पर प्रेम और प्रश्न-उत्तर देश की संस्कृति के आधार हैं। इसलिए संसद और उसकी समितियों में भी लगातार बढ़ती अव्यवस्था राष्ट्रीय चिन्ता है। देश में बेरोजगारी, शिक्षा, आतंरिक सुरक्षा और राष्ट्रीय एकता जैसे मुद्दे विचारणीय रहते हैं। लेकिन व्यवधान और हंगामा कोई मुद्दा नहीं है। कायदे से संसदीय व्यवस्था को चुस्त दुरुस्त करना प्रथम वरीयता का मुद्दा होना चाहिए। अनुशासित सदनों में ही व्यवस्थित काम काज होते हैं। अव्यवस्थित सदन निराश करते हैं। वक्फ अधिनियम का विवेचन कर रही जेपीसी संसद का हिस्सा है। संसद की इच्छानुसार इसका गठन हुआ। इस समिति का इतिहास पुराना है। बोफोर्स घोटाले की जांच के लिए 1987 में पहली संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) का गठन किया गया था। तत्कालीन रक्षा मंत्री ने सदन में प्रस्ताव रखा था। हर्षद मेहता स्टॉक मार्केट घोटाले की जांच करने के लिए 1992 में दूसरी जेपीसी का गठन हुआ। प्रतिभूति और बैंकिंग लेनदेन में जेपीसी ने जांच की। शीतल पेय कीटनाशक मुद्दे पर भी जेपीसी का गठन हुआ था। समिति ने 17 बैठकें कीं और अपनी रिपोर्ट संसद को भेज दी। इसी तरह केतन पारेख शेयर घोटाला, वीआईपी चॉपर घोटाला आदि मुद्दों पर संयुक्त संसदीय समितियां बनीं। जेपीसी की प्रतिष्ठा थी। महत्वपूर्ण मामलों में सदनों में जेपीसी की मांग होती थी। लेकिन पिछले कई वर्षों से समितियों की बैठकों में भी अराजकता बढ़ी है। इस अव्यवस्था ने देश को निराश किया है। वक्फ संशोधन विधेयक काफी महत्वपूर्ण है। इसके विरोधी वोट बैंक तुष्टिकरण के लिए विधेयक को पारित नहीं करवाना चाहते। वे विधेयक के प्रावधानों पर चर्चा के लिए तैयार नहीं हैं। समिति का कार्यकाल बढ़ा दिया गया है। दरअसल वक्फ कानून वक्फ बोर्ड को उत्पीड़क अधिकार देता है। इस कानून के अंतर्गत पीड़ित लोगों की सुनवाई की व्यवस्था नहीं है। कानून में संशोधन देश की विशेष आवश्यकता है। विपक्ष के माननीय सदस्य जेपीसी की बैठकों में पूरी तैयारी के साथ क्यों नहीं आते? शोर शराबा और व्यवधान तर्क और तथ्य का विकल्प नहीं होते।
संसदीय समिति प्रणाली प्रतिष्ठित रही है। यह किसी विषय को ठीक से विवेचन करने और तथ्य आधारित विषय पर विचार करने की आदर्श व्यवस्था है। लेकिन ऐसी समितियों के कुछ माननीय सदस्य समिति कक्ष की बैठकों में तथ्य और तर्क के साथ नहीं आते। वे समिति में भी अपना राजनैतिक एजेंडा चलाते हैं। व्यक्तिगत आरोपों प्रत्यारोपों के कारण तनाव बढ़ते हैं। मर्यादा विहीनता का यह कार्य उस देश में हो रहा है, जहाँ वैदिक काल में सभा और समिति प्रणाली थी। आधुनिक संसदीय समिति प्रणाली में विचारण वाले विषयों की तथ्यपरक जांच होती है। आधुनिक भारत में ऐसी समिति प्रणाली की शुरुआत अंग्रेजी राज के समय 1919 के बाद हुई। पहली लोक लेखा समिति 1921 में बनी थी। लोकसभा खास प्रयोजन के लिए बजट आवंटित करती है। लोक लेखा समिति आवंटित धनराशि का उपयोग जांचती है। सीएजी प्राथमिक जांच की संस्था है। अनेक संसदीय समितियां हैं। लेकिन संसद के शीर्ष से लेकर विधानसभा तक संसदीय परम्परा का ध्वस्तीकरण आहतकारी है। लोगों में संसदीय व्यवस्था के प्रति निराशा बढ़ी है। भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 के दिन पूरी तौर पर प्रवर्तित हुआ था। आज सोमवार को 75 वर्ष हो गए।
संसदीय प्रणाली के अस्तित्व पर संकट है। संविधान सभा ने 29 अगस्त 1947 को डॉ. आम्बेडकर की अध्यक्षता में ड्राफ्ट समिति बनाई थी। संविधान सभा ने उनसे अपेक्षा की थी कि वह संविधान निर्माण से जुड़ी संघ शासन समिति, प्रांतीय विधान समिति व मौलिक अधिकार सहित सभी समितियों के विचार मसौदे में सम्मिलित करें। डॉ. आम्बेडकर ने संविधान सभा (4.11.1948) का मसौदा रखते हुए कहा था कि, “भारत जैसे देश में जिम्मेदारी की छानबीन आवश्यक है। प्रश्न, स्थगन प्रस्ताव सहित सारी संसदीय कार्यवाही उत्तरदायी बनाती है। संविधान में शासन की स्थिरता के बजाय जवाबदेही को अधिक महत्व दिया गया है। इसीलिए इसमें संसदीय पद्धति की सिफारिश की गई है।” संसदीय प्रणाली में विचार विमर्श की विशेष महत्ता है और विचार विमर्श संसदीय हंगामे के बीच असंभव है। जहां हंगामा है वहां विचार विमर्श की जगह नहीं होती। कुछ दल, नेता और समूह संविधान को बचाने निकले हैं। सारा देश जानता है कि भारत के संविधान पर कोई संकट नहीं है। लेकिन विधायी और संविधायी अधिकारों से युक्त संसद के अस्तित्व व सदन संचालन का संकट है। संसद और विधान मण्डलों में अध्यक्ष/सभापति के सामने ’सदन नहीं चलने देंगे’ की नारेबाजी होती है। सदनों की मर्यादा तार तार हो रही है।
दुनिया के अनेक देशों में संसद जैसी जनप्रतिनिधि संस्थाएं हैं। ब्रिटिश संसद पुरानी है। अमेरिकी कांग्रेस, स्विट्जरलैंड की संघीय सभा, चीन की नेशनल पीपुल्स कांग्रेस, जापान की डायट और फ्रांस की संसद सामान्य रूप में चलती हैं। इन देशों की कार्यवाही में हुल्लड़ और हंगामे नहीं होते। संसद स्वयं पूर्ण संवैधानिक संस्था है। इंग्लैंड के राजनैतिक विचारकों ने संसद को अपने कार्य संचालन का स्वामी बताया है। भारतीय संसद भी अपने कार्य संचालन की संरक्षक है। लेकिन सदन के भीतर अमर्यादित व्यवहार, शोरगुल और अध्यक्षीय आसन के प्रति अवमान की घटनाएं बहुधा होती हैं। डेढ अरब जन गण मन चाहते हैं कि संसद चले। पूरे समय चले। राष्ट्रीय विमर्श हो और दलों में परस्पर सद्भाव हो। मूलभूत प्रश्न है कि क्या यह सम्भव है? सम्भावना की कोई सीमा नहीं होती। सत्ता पक्ष और विपक्ष कार्य संचालन के मुद्दे पर एक मत हों। सम्भव है कि हंगामा और शोरगुल समाप्त करने के लिए बुलाई गई बैठक में भी हंगामा हो। तो भी निराशा की कोई आवश्यकता नहीं। मर्यादा विहीनता पर राष्ट्रीय विमर्श का और कोई विकल्प नहीं।