श्वेतकेतु
नीलू शेखावत
श्वेतकेतु
श्वेतकेतु आरुणेय अरुण का पौत्र था। उसके पिता आरुणि ने एक दिन उसे योग्य विद्या का पात्र जानकर और उसके उपनयन संस्कार के समय का अतिक्रम होता देखकर कहा- “हे श्वेतकेतु! तू हमारे कुल के अनुरूप गुरु के पास जाकर ब्रह्मचर्यवास कर। हे सौम्य! यह उचित नहीं है कि हमारे कुल में उत्पन्न होकर कोई ब्रह्मबंधु (वह व्यक्ति जो ब्राह्मणों को अपना बंधु बताता है किंतु स्वयं ब्राह्मणोचित आचरण नहीं करता) सा हो जाये।
पिता के कहने पर श्वेतकेतु गुरु-गृह विद्या ग्रहण करने जाते हैं। गुरु आश्रम की सेवा, विद्याध्ययन व गंभीरता से श्रवण-मनन के उपरांत वह चौबीस वर्ष की अवस्था में पितृ गृह लौटते हैं। किंतु उनके व्यवहार में शिष्यानुकूल विनम्रता के स्थान पर उद्दंडता झलकती है।
योग्य पिता अनुचानमानी (अपने को बड़ा प्रवक्ता समझने वाला) पुत्र के इस अविनीत स्वभाव से अप्रसन्न होकर पूछते हैं- ‘हे श्वेतकेतु! तू जो ऐसा महामना, अनूचानमानी और स्तब्ध हो रहा है सो तुझे अपने उपाध्याय से ऐसी क्या विशेषता प्राप्त हो गई है? क्या तुमने वह आदेश (ज्ञानोपदेश) पूछा है जिससे उपदेश किया जाता है? क्योंकि वह ब्रह्म केवल गुरु और शास्त्र के आदेश से ही ज्ञेय है। जिससे अश्रुत श्रुत हो जाता है, अमत मत हो जाता है और अविज्ञात विशुद्ध रूप से ज्ञात हो जाता है?”
“वह आदेश कैसा होता है भगवन?”- श्वेतकेतु ने हतप्रभ होकर पूछा।
पिता बोले- “यथा सौम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्वं मृण्मयं… हे सौम्य! जिस प्रकार एक मृत्तिका के पिंड के द्वारा संपूर्ण मृण्मय पदार्थों का ज्ञान हो जाता है कि विकार केवल वाणी के आश्रय भूत नाम मात्र हैं, सत्य तो केवल मृत्तिका ही है। ऐसा ही वह आदेश भी है।”
“निश्चय ही मेरे गुरुदेव इसे नहीं जानते होंगे। यदि वे जानते तो मुझे क्यों न कहते? अब आप ही मुझे बताइए”-श्वेतकेतु बोले। पिता ने विभिन्न दृष्टांतयुक्त कथनों तथा शास्त्र वचन में श्रद्धा रखने के उपदेशों के पश्चात् पुत्र को वेदाध्ययन का आदेश दिया।
तत्ववेत्ता पिता के मार्गदर्शन में अनुशासित आचरण द्वारा श्वेतकेतु ने उस परम रहस्यमय किंतु सहज प्राप्य ज्ञान को प्राप्त कर लिया।
“स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो इति तद्धास्य विजज्ञाविति विजज्ञाविति।”
यही श्वेतकेतु कालांतर से अपने अनेकानेक शिष्यों को ज्ञानानुभव कराने वाले महान ऋषि के रूप में पूजित हुए।