वंचितों की उपेक्षा और अपमान से भरा है काँग्रेस का इतिहास

वंचितों की उपेक्षा और अपमान से भरा है काँग्रेस का इतिहास

रमेश शर्मा

वंचितों की उपेक्षा और अपमान से भरा है काँग्रेस का इतिहासवंचितों की उपेक्षा और अपमान से भरा है काँग्रेस का इतिहास

देश की 18वीं लोकसभा के चुनाव प्रचार में काँग्रेस ने ओबीसी के बाद सबसे अधिक जोर वंचित और जनजाति समाज की चर्चा पर दिया और यह जताने का प्रयास किया कि इन वर्गों की वह सच्ची हितैषी है। जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है। इन वर्गों के हित की बात करने वाली काँग्रेस का पूरा इतिहास इनकी उपेक्षा और अपमान से भरा है। काँग्रेस के मुस्लिम तुष्टीकरण पक्ष को तो सब जानते थे, लेकिन इस चुनाव प्रचार में यह भी स्पष्ट हुआ कि आज भी काँग्रेस सत्ता प्राप्त करने के लिये अंग्रेजों की नीति फूट डालो और राज करो का ही अनुसरण कर रही है। कई बार बिन्दुओं को अलग अलग देखने से चित्र स्पष्ट नहीं होता। लेकिन समेकित रूप से देखने पर स्थिति स्पष्ट हो जाती है। काँग्रेस द्वारा किये जा रहे वंचितों और जनजातियों के हित चिंतन का भी यही सत्य है। काँग्रेस ने अपनी नीतियों और कार्यशैली से भारतीय समाज को कभी समरस नहीं होने दिया। इसका एक उदाहरण राहुल गाँधी का वह बयान है जो उन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की अंतरिम जमानत पर दिया। राहुल गाँधी ने अदालत को भी निशाना बनाया और कहा कि झारखंड के मुख्यमंत्री की जमानत इसलिये नहीं हुई कि वे ‘आदिवासी’ हैं। उनका यह वक्तव्य अदालत की गरिमा कम करने वाला तथा विभिन्न वर्गों में परस्पर वैमनस्य फैलाने वाला है। स्वतंत्रता से पहले अंग्रेजों की भी यही शैली रही थी। वे कूटरचित तर्कों से भारतीय समाज में परस्पर वैमनस्य फैलाते थे और फिर उनका शोषण करते थे। यदि अतीत में घटी कुछ घटनाओं का विश्लेषण करें तो यह बात अपने-आप स्पष्ट हो जाती है कि वंचित वर्ग के कल्याण की जो बातें काँग्रेस नेताओं के वक्तव्य में होती हैं वे उनके आचरण में नहीं हैं। इसकी पुष्टि बाबा साहब अंबेडकर द्वारा लड़े गये पहले लोकसभा चुनाव से लेकर अनुसूचित जाति समाज के रामनाथ कोविंद और जनजाति समाज की द्रोपदी मुर्मू के राष्ट्रपति पद के चुनाव एवं मुख्य सूचना आयुक्त पद पर वंचित समाज के हीरालाल सांवरिया की नियुक्ति के लिये आयोजित बैठक में होती है। काँग्रेस जानती थी कि उसका गठबंधन अल्पमत में है। रामनाथ कोविंद और द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति भवन पहुँचने का मार्ग सुगम है। फिर भी काँग्रेस ने रास्ता रोकने के लिये पूरी शक्ति लगाई और ऐसे प्रत्याशी उतारे, जिनसे मत विभाजन की सम्भावना उत्पन्न हो। इसी मानसिकता की झलक मुख्य सूचना आयुक्त पद पर हीरालाल सांवरिया की नियुक्ति के समय दिखी। स्वतंत्र भारत की इस 77 वर्ष की यात्रा में यह पहला अवसर था, जब मुख्य सूचना आयुक्त के पद पर वंचित समाज के किसी व्यक्ति का नाम आया था। आशा की जा रही थी कि यह निर्णय सर्वसम्मति से होगा क्योंकि उनके अतिरिक्त कोई दूसरा नाम सामने नहीं था। लेकिन काँग्रेस ने इस बैठक का बहिष्कार किया।

इसी प्रकार एक घटना 1969 में मध्य प्रदेश की है। उन दिनों वहॉं काँग्रेस विरोधी संविद सरकार थी। संविद सरकार के पहले मुख्यमंत्री गोविन्द नारायण सिंह बने और उनके बाद संयुक्त विधायक दल ने जनजाति वर्ग के राजा नरेश चंद्र सिंह को मुख्यमंत्री पद का दायित्व दिया। लेकिन राजा नरेश चंद्र सिंह के मुख्यमंत्री बनते ही काँग्रेस ने जोड़ तोड़ शुरू कर दी। दल बदल हुआ और संविद सरकार गिर गई और श्यामा चरण शुक्ल के नेतृत्व में काँग्रेस सरकार पदारूढ़ हो गई। जनजातीय वर्ग के राजा नरेशचंद्र सिंह मात्र बारह दिन ही मुख्यमंत्री रह सके। दूसरी घटना 1980 की है। विधानसभा चुनाव में काँग्रेस को बहुमत मिला। उन दिनों यह बात बहुत चर्चा में आयी थी कि अधिकांश विधायकों की राय जनजातीय समुदाय से संबंधित शिवभानु सोलंकी को मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में थी, लेकिन उन्हें यह अवसर नहीं मिला। उन दिनों के समाचार पत्रों में छपी खबरों के अनुसार काँग्रेस हाईकमान का झुकाव अर्जुनसिंह के पक्ष में था। वे ही मुख्यमंत्री बने और जनजातीय नेता शिवभानु सोलंकी को अवसर न मिल पाया। बिल्कुल यही स्थिति राष्ट्रीय स्तर पर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बाबू जगजीवन राम के साथ बनी। लालबहादुर शास्त्री के निधन के बाद प्रधानमंत्री पद के लिये बाबू जगजीवन राम का नाम स्वाभाविक रूप से उभरकर सामने आया। वे गाँधीजी के अहिंसक आँदोलन से जुड़ने से पहले नेताजी सुभाष चंद्र बोस और क्राँतिकारी समूहों के संपर्क में भी रहे थे। इसलिए सामान्य काँग्रेस जनों का झुकाव बाबू जगजीवन राम के पक्ष में था। लेकिन काँग्रेस ने इंदिरा गांधी को आगे बढ़ाया। भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान बाबू जगजीवन राम रक्षामंत्री थे। युद्ध काल में भारत की सफलता के लिये उनकी रणनीति का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। युद्ध के बाद बाबू जगजीवन राम की छवि भी इंदिरा गांधी के साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उभरी। संभवतः यही बात काँग्रेस के भीतर कुछ लोग पचा नहीं पाये। आपातकाल में उनके साथ जो व्यवहार हुआ, वे उससे बहुत आहत हुए और उन्होंने काँग्रेस से त्यागपत्र दे दिया।

रामनाथ कोविंद और फिर वर्तमान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू पर तो कांग्रेसियों ने अपमानजनक टिप्पणियाँ तक कीं। द्रौपदी मुर्मू के नाम की घोषणा होने पर काँग्रेस नेता अजय कुमार ने कहा था कि “द्रौपदी मुर्मू ‘देश की एक बुरी विचारधारा’ का प्रतिनिधित्व करती हैं, उन्हें जनजाति समाज का प्रतीक नहीं बनाना चाहिए”। इसी प्रकार काँग्रेस नेता उदित राज ने तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के लिए ‘गूंगा और बहरा’ शब्द का उपयोग किया था और वर्तमान राष्ट्रपति मुर्मू को “चमचा” कहा था और यह भी कहा था कि ऐसी राष्ट्रपति देश को कभी न मिले”। इन्हीं उदित राज को काँग्रेस ने दिल्ली से लोकसभा टिकट दे दिया।

तेलंगाना का वायरल वीडियो, जिसमें नीचे बैठे थे उपमुख्यमंत्री

जिन दिनों पूरे देश में चुनावी वातावरण था और काँग्रेस वंचित और जनजातीय वर्ग के हितों की बात कर रही थी। तब तेलंगाना राज्य का एक ऐसा वीडियो सामने आया, जिसने काँग्रेस के नेताओं की मानसिकता उजागर कर दी। तेलंगाना में काँग्रेस की सरकार है और रेवंत रेड्डी मुख्यमंत्री। पिछले दिनों 11 मार्च को तेलंगाना काँग्रेस के नेता और मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों के साथ पूजन के लिये यदाद्री लक्ष्मी नरसिम्हा स्वामी मंदिर गये। अनुष्ठान के दौरान रेवंत रेड्डी, मंत्री कोमाटिरेड्डी वेंकट रेड्डी और उत्तम कुमार रेड्डी ऊंचे आसन पर बैठे, जबकि अनुसूचित जाति वर्ग के उपमुख्यमंत्री मल्लू भट्टी विक्रमार्क और एक महिला मंत्री कोंडा सुरेखा को नीचे बैठाया गया। इस वीडियो पर तेलंगाना की राजनीति गरमा गई और अनेक प्रतिक्रियाएँ आईं।

काँग्रेस की नीतियों को अनुसूचित जाति विरोधी मानते हुये बाबा साहब अंबेडकर ने न केवल अनेक बार खुलकर टिप्पणियाँ कीं अपितु अपनी एक पुस्तक- “What congress and gandhi have done to the untouchables” (काँग्रेस और गाँधी ने अछूतों के लिये क्या किया) में लिखा भी। उन्होंने काँग्रेस पर अनुसूचित जाति समाज के हित का ढोंग करने का आरोप लगाया।

इतने पर भी राहुल गाँधी दोष सिस्टम को देते हैं। वे भूल जाते हैं कि यह सिस्टम बनाया किसने? इसे पनपाया किसने? वे कहते हैं, “मेरा जन्म सिस्टम के अंदर हुआ है, मैं अंदर से सिस्टम को जानता हूं। मैं कह रहा हूं कि यह सिस्टम निचली जातियों के विरुद्ध है।” निस्संदेह राहुल गाँधी का जन्म “सिस्टम” के भीतर हुआ। उन्होंने आँख खोलते ही राजनैतिक और प्रशासनिक दोनों प्रकार की व्यवस्था देखी। उनका जन्म 1970 में हुआ। उन्होंने अपनी दादी इन्दिरा गाँधी, पिता राजीव गाँधी का दौर देखा, नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह के शासन पर अपनी माता का नियंत्रण देखा और 1998 में उन्होंने यह भी देखा कि सीताराम केसरी को हटाकर उनकी माता सोनिया गाँधी कैसे काँग्रेस की अध्यक्ष बनीं। ये सभी घटनाएँ उनके सामने घटीं। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने घर में वे चर्चाएँ भी सुनीं होंगी, जो उनके पिता के नाना पंडित जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में घटी थीं। इन सबका प्रभाव उनके चेतन और अवचेतन मन पर अवश्य होगा, जिसकी झलक वे बार बार दिखा जाते हैं।

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