शिवाड़ मेला: परंपरा, संस्कृति और आस्था का अद्वितीय संगम
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डॉ. आशा लता
शिवाड़ मेला: परंपरा, संस्कृति और आस्था का अद्वितीय संगम
राजस्थान की पावन धरा पर मेलों और उत्सवों की एक अनोखी परंपरा रही है, जो यहां के लोकजीवन की धड़कन और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है। इसी कड़ी में एक अनोखा मेला है—शिवाड़ मेला, जो न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक मिलन का केंद्र भी है। यह मेला आस्था, प्रेम और परंपराओं का संगम है, जिसमें शामिल होते ही जीवन की आपाधापी में खोए मन को एक नई ऊर्जा मिलती है।
शिवाड़ मेला राजस्थान के सवाई माधोपुर जिले में स्थित शिवाड़ गाँव में फाल्गुन मास की चतुर्दशी महाशिवरात्रि के पावन अवसर पर आयोजित किया जाता है। इस दिन हजारों श्रद्धालु भगवान शिव की भक्ति में लीन होकर शिवालय में एकत्रित होते हैं और जल, दूध, शहद व बेलपत्र अर्पित करते हैं।
कहा जाता है कि शिवाड़ मेले की शुरुआत सदियों पहले स्थानीय राजाओं और शासकों द्वारा सामाजिक समरसता और धार्मिक आस्था को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से की गई थी। इस मेले का आयोजन भगवान शिव की आराधना और भक्ति को समर्पित है। ‘शिवाड़’ का शाब्दिक अर्थ है ‘शिव का आंगन’—एक ऐसा स्थान, जहां भक्ति और आस्था का सागर उमड़ता है।
किवदंती है कि यहां स्थित ज्योतिर्लिंग वही स्थान है, जिसका वर्णन शिव पुराण में ‘घुश्मेश्वर’ के रूप में किया गया है। यह बारहवां ज्योतिर्लिंग माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि महाशिवरात्रि के दिन देवगिरि पर्वत एक पल के लिए स्वर्णमय हो जाता है। इस दिव्य दृश्य का साक्षी बनना जीवन के समस्त पापों से मुक्ति दिलाता है
शिवाड़ के ज्योतिर्लिंग की एक अनोखी विशेषता यह है कि यह मंदिर के गर्भगृह के नीचे स्थित है, शीशे में देखकर इसका दर्शन किया जाता है। श्रद्धालु शीशे के माध्यम से नीचे स्थित शिवलिंग के दर्शन करते हैं, जो इसे अन्य ज्योतिर्लिंगों से अलग बनाता है।
घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा भी भावनाओं को छू लेने वाली है। कहते हैं कि विद्वान ब्राह्मण सुधर्मा और उनकी पत्नी सुदेहा नि:संतान होने के कारण व्यथित थे। सुदेहा ने अपनी बहन घुश्मा से सुधर्मा का विवाह करा दिया। घुश्मा भगवान शिव की अनन्य भक्त थीं। उनकी भक्ति से उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई। लेकिन सुदेहा ईर्ष्या में अंधी हो गई और उसने घुश्मा के पुत्र का वध कर दिया। जब घुश्मा को इस घटना का पता चला, तो भी उसने शिव भक्ति नहीं छोड़ी। उसकी अटूट श्रद्धा से भगवान शिव प्रकट हुए और मृत पुत्र को जीवित कर दिया। यह कथा केवल धार्मिक महत्व ही नहीं, बल्कि प्रेम, क्षमा और भक्ति का भी अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत करती है।
शिवाड़ मेले में शिव पूजा, रुद्राभिषेक, भजन-कीर्तन और भव्य शोभायात्रा का आयोजन होता है। कहते हैं, “शिवाड़ रो मेलो, सगला दुखन नै ठेलो,”
अर्थात इस मेले में आकर सभी दुखों को भुलाया जा सकता है।
“शिवाड़ में ढोल-ढमाके, माणस री भीड़ उमड़े ताके,”
जो मेले की धूमधाम और जनसागर को दर्शाता है।
शिवाड़ मेला सिर्फ धार्मिक आस्था का केंद्र नहीं, बल्कि यह राजस्थान की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को भी जीवंत करता है। यहां का गेर नृत्य, कालबेलिया, घूमर और कठपुतली का प्रदर्शन दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देता है। यह मेला कला और संस्कृति का उत्सव है, जहां स्थानीय कलाकारों को अपनी कला प्रदर्शित करने का अवसर मिलता है।
शिवाड़ मेला सामाजिक समरसता का प्रतीक है। विभिन्न जाति, धर्म और वर्ग के लोग यहां एकत्रित होते हैं, जिससे भाईचारे और एकता का संदेश फैलता है। इसके अलावा, यह मेला स्थानीय व्यापार को भी बढ़ावा देता है। सैकड़ों दुकानें, हस्तशिल्प, गहने, कपड़े और पारंपरिक वस्त्रों की बहार मेले को और भी आकर्षक बनाती है।
समय के साथ मेले में आधुनिकता का प्रभाव भी देखने को मिलता है—झूले, सर्कस और स्टेज शो ने मेले को और भी मनोरंजक बना दिया है। लेकिन इसके साथ ही पारंपरिकता के संरक्षण की चुनौती भी उत्पन्न हो गई है। वाणिज्यिकरण और बढ़ती भीड़ ने कहीं-न-कहीं मेले की पवित्रता को प्रभावित किया है।
आवश्यक है कि इस सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखा जाए। इसके लिए स्थानीय प्रशासन, सांस्कृतिक संगठनों और आम जनता को मिलकर कार्य करना होगा। जागरूकता अभियान, सांस्कृतिक कार्यशालाएं, और पारंपरिक कार्यक्रमों का आयोजन इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हो सकते है। यह मेला हमें अपनी जड़ों से जोड़ता है और अपनी सांस्कृतिक धरोहर को जीवित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब श्रद्धालु “शिवाड़ री पगरिया, धोक देवे गगरिया” की भावना से सिर झुकाते हैं, तो वह क्षण केवल भक्ति नहीं, बल्कि समर्पण और संवेदना का प्रतीक बन जाता है।
शिवाड़ मेला हमें परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन सिखाता है। यह मेला उस भावनात्मक बंधन का प्रतीक है, जो भक्त और भगवान के बीच होता है। इसे केवल मेला कहना इसके महत्व को कम आंकना होगा, यह तो सांस्कृतिक उत्थान, सामाजिक समरसता और आस्था के पुंज का उत्सव है।
हमें चाहिए कि हम शिवाड़ मेले की पारंपरिकता, सांस्कृतिक मूल्यों और धार्मिक आस्था को संजोएं और इसे आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाएं। यह मेला हमारी संस्कृति और परंपराओं को युगों-युगों तक जीवित रखने का दायित्व हमें सौंपता है।