शिवरात्रिः विश्व की सबसे बड़ी ‘वेडिंग सेरेमनी’
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हेमंत शर्मा
शिवरात्रिः विश्व की सबसे बड़ी ‘वेडिंग सेरेमनी’
आज शिवरात्रि है। शिव के विवाह की वर्षगांठ, जो आदि हैं अनंत हैं, उनके वरण की वार्षिकी। शिव के सिद्ध और संयोग का अद्भुत दिन। इस दिन शिव एकलता से निकल अंगीकरण को चुनते हैं। पाणिग्रहण करते हैं। लोक मंगल के लिए और देव, दानव, मनुष्य, जीव सबको धन्य करते हैं।
शिव का विवाह दरअसल सृष्टि का सबसे सुखद और अलौकिक क्षण है। यह विवाह तप, ज्ञान, योग और ध्यान की महान अवस्थाओं का सांसारिक अवतरण है। यह विवाह अध्यात्म और ज्ञान की परम अवस्थाओं को कर्म और व्यवहार की वेणी तक लाता है। यह सूत्र ही सृष्टि के संतुलन को स्थापित करता है। क्यों एक योगी भोग के लिए तैयार होता है। इसलिए शिव के विवाह को समझे बिना सृष्टि की गति को समझा नहीं जा सकता। यही घटना शिव को समाधि से समाज तक खींच लाती है। ध्यानस्थ को जगत पर ध्यान देने का अवसर देती है। ज्ञान की अनंत शून्यता को व्यवहार और लोक के कलरव में नायकत्व देती है। साहित्य में इस विवाह के अद्भुत वर्णन हैं।
हम बचपन से शिव के बाराती हैं। काशी का हूँ, तो ऐसा साक्षात लगता है कि यह झांकी नहीं, सच में शिव की ही बारात है। शिव साक्षात। बाराती साक्षात। विवाह भी साक्षात। शिवरात्रि का जश्न है। उत्सव और आनंद है। शिवरात्रि को आप दुनिया की सबसे बड़ी ‘वेडिंग सेरेमनी’ कह सकते हैं, जो अब लोक पर्व में बदल गयी है। सबसे लम्बा चलने वाला वैवाहिक कार्यक्रम, सबसे अधिक शामिल होने वाले लोग, सबसे अधिक स्थानों पर होने वाला रिसेप्शन। बिना किसी ईवेंट मैनेजमेंट कंपनी के… यही महाशिवरात्रि की शक्ति है। इस शिव बारात में भी समतामूलक समाज की अवधारणा है। भूत, पिशाच, गंधर्व, गण, नायक, देव, तपस्वी, पागल, नंगे, भिखारी, लूले, लंगड़े, नशेड़ी, शराबी, कबाबी सब. अकेला त्योहार जो कश्मीर में ‘हेराथ’ से लेकर रामेश्वरम् तक एक साथ मनाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि सृष्टि का प्रारम्भ भी इसी दिन हुआ। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस दिन सृष्टि का आरम्भ अग्निलिंग (जो महादेव का विशालकाय स्वरूप है) के उदय से हुआ। शिव बारात की विशेष बात थी बेटे ने बाप की बारात का नेतृत्व किया। गणेश बारात के आगे आगे चले। बेटा बाप को ब्याहने चला।
इस अनोखी शिव बारात ने इतिहास रचा। इसकी प्रथा प्रमाणों को ऐसे समझें। जनमानस में बारात की वर्तमान प्रथा का श्रीगणेश भी इसी दिन हुआ होगा। इसी के बाद विवाह में सर्वप्रथम द्वार-पूजा और उसमें भी गणेश पूजा अनिवार्य हुई। बूढ़े लोगों को दूसरी शादी करने का अधिकार मिला। बैल की प्रतिष्ठा हुई। बैल सत्ता का निशान बना। इन्हीं परम्पराओं से शिव की बारात अमर हो गई।
शिव पहले गुरु हैं, जिनसे ज्ञान उपजा। वह सुन्दर भी हैं और वीभत्स भी। आदियोगी भी हैं आदि गुरु भी। शिव से ही सब जन्मता है और उसी में सब समाता है। देव और दानव दोनों उनके उपासक हैं। वे रक्षक भी हैं और विनाशक भी। वे कल्पना भी हैं और वास्तविकता भी। वे अर्धनारीश्वर होकर भी काम पर विजेता हैं। गृहस्थ होकर भी परम विरक्त हैं। नीलकण्ठ होकर भी विष से अलिप्त हैं। उग्र होते हैं तो ताण्डव, नहीं तो सौम्यता से भरे भोला भण्डारी. परम क्रोधी पर दयासिंधु भी शिव ही हैं। विषधर नाग और शीतल चन्द्रमा दोनों उनके आभूषण हैं। उनके पास चन्द्रमा का अमृत है और सागर का विष भी. वे योगी भी हैं और अघोरी भी। ऐसा योगी साधना से उठकर शिवरात्रि पर भोग की तरफ़ जाएगा। हालाँकि उन्होंने काम को जलाया है। पर सृष्टि के कल्याण के लिए वे विवाह को राज़ी हैं। इसलिए शिवरात्रि जागृति की रात है।
मैं बरसों तक बनारस में निकलने वाली शिव बारात का बाराती रहा हूँ। इस बार भीड़ के चलते प्रशासन ने बारात एक दिन के लिए स्थगित कर दी है। यानी विवाह पहले होगा बारात बाद में निकलेगी। बनारस की शिव बारात अनोखी होती है। अपना जीवन भी शिव बारात जैसा ही चल रहा है। रक़म रक़म के लोग हैं। कभी-कभी लगता है पूरा जीवन ही शिव बारात है। मेरे बचपन में पूरा घर शिवरात्रि के उपवास पर रहता था। हम बच्चे थे सो उपवास कैसे हो? पर हम उपवास की ज़िद करते थे। तभी माँ ने जुगत निकाली कि तुम बाराती हो। और शिव के बाराती सब खा-पी सकते हैं। इसलिए तब से हम खा-पी कर उपवास करते हैं। पीकर मतलब ठण्डाई पीकर।
औघड़ दानी, भूतभावन, गंगाधर, शशिधर, विरूपाक्ष आदि नामों से वर्णित शिव अकेले ऐसे देवता हैं, जो पूरे देश के हर कोने में पूजे जाते हैं और सभी उनके विवाह का ये उत्सव मनाते हैं। भगवान शिव और पार्वती के विवाह का ये उत्सव बसंत पंचमी के दिन से ही शुरू हो जाता है. उस दिन बाबा का तिलकोत्सव होता है। उसके बाद शिवरात्रि के दिन उनका विवाह होता है। विवाह के बाद माँ पार्वती रस्म के हिसाब से अपने मायके चली जाती हैं। और जब बाबा उनका गौना कराकर उन्हें कैलाश लाते हैं तो वह दिन रंगभरी एकादशी (होली से चार दिन पहले) का होता है और उसी रोज़ से बाबा विश्वनाथ अपने भक्तों से जमकर रंगारंग होली खेलते हैं।
शिव देवताओं के ज़बर्दस्त दबाव में इस विवाह के लिए राज़ी हुए थे। यज्ञकुण्ड में पहली पत्नी के जलकर मरने के बाद शिव लम्बे समय तक उनके शोक में पागल रहे। उन्होंने कैलाश का आश्रम उजाड़ दिया। श्मशान में ही धूनी रमाने लगे। वहीं भूत-प्रेतों से संग-साथ हुआ। ’बिन घरनी घर भूत का डेरा’ के वातावरण में औघड़ दानी ने दीन दुनिया से लगभग वैराग्य ले लिया। देवलोक परेशान। शिव को इस अवस्था से कैसे बाहर निकाला जाए। देवताओं ने शिव से विवाह का निवेदन किया। राय बनी कि शिव का दोबारा विवाह हो। शिव ने मना किया कि ढलती उम्र में विवाह से जगहँसाई होगी। तब रास्ता निकला कि अगर कोई कन्या स्वयं शिव से विवाह के लिए तपस्या करे तो शिव क्या करेंगे। वही हुआ. कुबेर ने नारद को समझाया। ऐसे अवसरों पर नारद ही काम आते थे। नारद ने हिमालय के घर आई कन्या को आशुतोष का महत्व समझाया। पार्वती अन्न-जल छोड़ शिव के लिए तप करने लगीं। शिव को मानना पड़ा। विवाह तय हुआ। पार्वती शिव की हो गईं।
बारात में जाने के लिए सब देवता अपने-अपने वाहन और विमान को सजाने लगे, अप्सराएँ गाने लगीं। शिवजी के गण उनका श्रृंगार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँपों का मौर सजाया गया। शिवजी ने साँपों के ही कुण्डल और कंकण पहने, शरीर पर विभूति रमायी और वस्त्र की जगह बाघम्बर लपेट लिया। शिव के माथे पर चन्द्रमा, सिर पर गंगा, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ, गले में विष और छाती पर नरमुण्डों की माला थी। वेष अशुभ होने पर भी वे कल्याण के धाम लग रहे थे। उनके एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू था। शिव बैल पर चढ़कर बारात में चले। दृश्य भयावह था। बाजे बज रहे हैं। शिवजी को देखकर देवांगनाएँ मुस्कुरा रही हैं कि इस वर के योग्य दुलहिन संसार में नहीं मिलेगी। इस विवाह का यह वर्णन तुलसी दास कर रहे हैं:-
गल भुजंग भस्म अंग शंकर अनुरागी।
सतगुरु चरणारबिन्द शिव समाधि लागी।
तीन नयन अमृत भरे गले मुंड माला।
रहत नगन फिरत मगन संग गौरी बाला।
अपने पति को निरख-निरख पारवती जागी।
औरन आशीष देत आप फिरत त्यागी।
गल भुजंग भस्म अंग।
शिव पुराण में शिव की विवाह यात्रा का विस्तार से उल्लेख है। शिव पुराण, हमारे अठारह महापुराणों में से एक है।
मत्स्य पुराण, लिंग पुराण और पद्म पुराण में भी शिव विवाह का ज़िक्र मिलता है लेकिन श्रीरामचरितमानस और शिव महापुराण जितना विस्तृत वर्णन कहीं नहीं है।
वेदों में शिव के बाबत 39 ऋचाएँ और 75 दूसरे सन्दर्भ मिलते हैं। ऋग्वेद में शिव से जुड़े तीन सूक्त हैं… प्रथम मंडल के 114वें सूक्त में 11 मंत्र हैं, दूसरे मंडल के सूक्त संख्या 33 में 15 मंत्र हैं तथा 7वें मंडल के सूक्त 46 में 4 ऋचाएँ हैं। इसके अलावा 9 दूसरे मंत्र भी हैं। इनमें बारात का उल्लेख नहीं है। शतपथ ब्राह्मण, वृहदारण्यक उपनिषद्, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में भी रुद्र-शिव संबंधित मंत्र मिलते हैं। ऋग्वेद में रुद्र को ही डील करता है। रुद्र, शिव के उग्र रूप हैं।
ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 114वें सूक्त में रुद्र की विशेषताओं का वर्णन है। इसमें कहा गया है कि रुद्र पशुओं को सुख देने वाले हैं, जटाधारी हैं, रोग प्रतिरोधक शक्ति प्रदाता हैं, सात्विक आहार लेने वाले, सुंदर रूप धारण करने वाले, सर्व विष को दूर करने वाले हैं। यहां उनके शूल से बचने की प्रार्थना भी की गई है। दूसरे मंडल के 33वें सूक्त में जो 15 मंत्र हैं, उनमें रुद्र को 100 वर्ष की आयु देने वाला, रोग नष्ट करने वाला, (भेषजेभि: भिषिक्तमं त्वा भिषजां शृणोमि-4) वैद्यों के वैद्य, अनेक रूपों के स्वामी, आभूषण युक्त, वनों के स्वामी, असुर संहारक, धनुष-बाण धारी तथा सुखी सम्पन्न, निरोग बनाने वाला कहा गया है।
7वें मंडल के 40वें सूक्त के चार मंत्रों में भी रुद्र को सुखी सम्पन्न और निरोग बनाने वाले बताया गया है। ‘त्र्यंबकम् यजामहे सुगंधिम पुष्टिवर्धनम्’ (ऋग्वेद-7.59.12) में शिव को तीन नेत्रों वाला बताया गया है। उनके तीन नेत्र सूर्य, चंद्रमा और अग्नि माने गए हैं। जैसे ही हम ऋग्वेद से यजुर्वेद की ओर बढ़ते हैं, रुद्र से शिव में परिवर्तन का अनुभव करते हैं। शिव, संस्कृत शब्द “शिव” से लिया गया है, जो शुभता और पवित्रता का प्रतीक है। इस चरण में, भगवान शिव को तपस्वी योगी के रूप में चित्रित किया गया है, जो हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियों पर ध्यान कर रहे हैं। वह वैराग्य, आत्मज्ञान और परोपकार के आदर्शों का प्रतीक हैं। यजुर्वेद शिव को ध्यान और आध्यात्मिकता के दिव्य आदर्श के रूप में महिमामंडित करता है।
शिव पुराण के मुताबिक शिव बारात में अप्सराओं ने भरत नाट्यम प्रस्तुत किया। डाकिनियों ने लोकनृत्य. धूमधाम से बारात हिमालय के दरवाज़े पर पहुँची। सास वर के परछावन के लिए दरवाज़े पर आयी। पर यह क्या? शिव का यह स्वरूप… वर के सिर पर साँप का मौर, गले में मुण्डमाल, कटि पर कड़कड़ा चर्म, हाथ में डमरू और त्रिशूल देख सास के हाथ से स्वागत की थाली गिर गयी. सभी स्त्रियाँ भाग गईं। पार्वती की माँ गिरते-पड़ते घर में वापस आकर नारद की सात पुश्तों का शाब्दिक अभिषेक (गरियाने) करने लगीं।
रामचरितमानस के बालकाण्ड में शिवजी के विवाह का अद्भुत वर्णन है। पर्वतराज हिमाचल ने हाथ में कुश लेकर तथा कन्या का हाथ पकड़कर उन्हें भवानी जानकर शिवजी को समर्पित किया। जब महेश्वर ने पार्वती का पाणिग्रहण किया, तब देवता बम-बम हुए। मुनिगणों ने मंत्रों का पाठ किया। शिव का यह विकराल रूप ही उनके विवाह में अड़चन था। कोई भी माता या पिता किसी भूखे, नंगे, मतवाले से बेटी ब्याहने की इजाज़त कैसे देंगे. शिव की बारात में नंग-धड़ंग, चीख़ते, चिल्लाते, पागल, भूत-प्रेत, मतवाले सब थे। शिव की यह बारात लोक में उनके व्याप्ति की मिसाल है।
क्या उत्तर क्या दक्षिण। उत्तर में उत्तुंग कैलाश से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम तक और सोमनाथ से लेकर अरुणाचल तक शिव एक जैसे पूजे जाते हैं। इस व्यापक आधार की शोकेस है उनकी बारात। समाज के भद्रलोक से लेकर शोषित, वंचित, भिखारी तक उन्हें अपना मानते हैं। बारात उन्हें सर्वहारा का देवता साबित करती है। इतने व्यापक दायरे वाले शिव ज्ञान के स्रोत भी हैं और मुक्ति के भी। विपरीत ध्रुवों और विषम परिस्थितियों से अद्भुत सामंजस्य बिठानेवाला उनसे बड़ा कोई दूसरा भगवान नहीं है। शिव विलक्षण समन्वयक हैं। साँप, सिंह, मोर, बैल, सब आपस का बैर-भाव भुला समभाव से उनके सामने हैं। वे समाजवादी व्यवस्था के पोषक हैं। वे सिर्फ़ संहारक नहीं, कल्याणकारी, मंगलकर्ता भी हैं।
शिव गुट निरपेक्ष हैं। सुर और असुर दोनों का उनमें विश्वास है। राम और रावण दोनों उनके उपासक हैं। दोनों गुटों पर उनकी समान कृपा है। आपस में युद्ध करने से पहले दोनों पक्ष उन्हीं को पूजते हैं। लोक कल्याण के लिए वे हलाहल पीते हैं। वे डमरू बजायें तो प्रलय होता है। लेकिन इसी प्रलयंकारी डमरू से संस्कृत व्याकरण के चौदह सूत्र भी निकलते हैं। इन्हीं माहेश्वर सूत्रों से दुनिया की कई दूसरी भाषाओं का जन्म हुआ।
शिव का व्यक्तित्व विशाल है। वे काल से परे महाकाल हैं। सर्वव्यापी हैं। सर्वग्राही हैं। सिर्फ़ भक्तों के नहीं देवताओं के भी संकटमोचक हैं। उनके ‘ट्रबल शूटर’ हैं। शिव का पक्ष सत्य का पक्ष है. उनके निर्णय लोकमंगल के हित में होते हैं। विभेद से परे है शिव का आशीष। तपस्या का फल तपस्वी की पहचान के अनुरूप देना शिव का स्वभाव नहीं। इसीलिए शिव असुरों के भी वरदायी रहे और देवों के भी। जीवन के परम रहस्य को जानने के लिए शिव के इन रूपों को समझना जरूरी होगा, क्योंकि शिव उस आम आदमी की पहुँच में हैं, जिसके पास मात्र एक लोटा जल है।
शिव को समझने का मतलब है सृष्टि को समझना. प्रकृति को समझना। उसके जनन, जन्म और विध्वंस को जानना। उसकी विराट, उदार और समन्वय दृष्टि को समझना। शिव विराट नर्तक हैं.नटराज हैं। मंच कला के विधानाध्यक्ष हैं. आज रात वे नाचेंगे। गायेंगे। उल्लास मनायेंगे। प्रकृति का हर अंश नृत्य में झूमेगा। देवाधिदेव महादेव नाचते हुए देवता हैं। शिव के साथ उनके गण भी नाचते हैं। शिवगण असाधारण हैं। तुलसी कहते हैं कोई “मुखहीन विपुल मुख काहू”।
ऐसे रुद्र, अंगीरागुरु, अंतक, अंडधर, अंबरीश, अकंप, अक्षतवीर्य, अक्षमाली, अघोर, अचलेश्वर, अजातारि, अज्ञेय, अतीन्द्रिय, अत्रि, अनघ, अनिरुद्ध, अनेकलोचन, अपानिधि, अभिराम, अभीरु, अभदन, अमृतेश्वर, अमोघ, अरिदम, अरिष्टनेमि, अर्धेश्वर, अर्धनारीश्वर, अर्हत, अष्टमूर्ति, अस्थिमाली, आत्रेय, आशुतोष, इन्दुभूषण, इन्दुशेखर, इकंग, ईशान, ईश्वर, उन्मत्तवेष, उमाकांत, उमानाथ, उमेश, उमापति, उरगभूषण, ऊर्ध्वरेता, ऋतुध्वज, एकनयन, एकपाद, एकलिंग, एकाक्ष, कपालपाणि, कमण्डलुधर, कलाधर, कल्पवृक्ष, कामरिपु, कामारि, कामेश्वर, कालकण्ठ, कालभैरव, काशीनाथ, कृत्तिवासा, केदारनाथ, कैलाशनाथ, क्रतुध्वसी, क्षमाचार,गंगाधर, गणनाथ, गणेश्वर, गरलधर, गिरिजापति, गिरीश, गोनर्द, चन्द्रेश्वर, चन्द्रमौलि, चीरवासा, जगदीश, जटाधर, जटाशंकर, जमदग्नि, ज्योतिर्मय, तरस्वी, तारकेश्वर, तीव्रानन्द, त्रिचक्षु, त्रिधामा, त्रिपुरारि, त्रियम्बक, त्रिलोकेश, त्र्यम्बक, दक्षारि, नन्दिकेश्वर, नन्दीश्वर, नटराज, नटेश्वर, नागभूषण, निरंजन, नीलकण्ठ, नीरज, परमेश्वर, पूर्णेश्वर, पिनाकपाणि, पिंगलाक्ष, पुरन्दर, पशुपतिनाथ, प्रथमेश्वर, प्रभाकर, प्रलयंकर, भोलेनाथ, बैजनाथ, भगाली, भद्र, भस्मशायी, भालचन्द्र, भुवनेश, भूतनाथ, भूतमहेश्वर, भोलानाथ, मंगलेश, महाकान्त, महाकाल, महादेव, महारुद्र, महार्णव, महालिंग, महेश, महेश्वर, मृत्युंजय, यजन्त, योगेश्वर, लोहिताश्व, विधेश, विश्वनाथ, विश्वेश्वर, विषकण्ठ, विषपायी, वृषकेतु, वैद्यनाथ, शशांक, शेखर, शशिधर, शारंगपाणि, शिवशम्भु, सतीश, सर्वलोकेश्वर, सर्वेश्वर, सहस्रभुज, साँब, सारंग, सिद्धनाथ, सिद्धीश्वर, सुदर्शन, सुरर्षभ, सुरेश, सोम, सृत्वा, हर-हर महादेव, हरिशर, हिरण्य, हुत, हम सबका कल्याण करते हैं।
महाशिवरात्रि एक अवसर भी है और सम्भावना भी, जब आप स्वयं को, अपने भीतर बसी असीम रिक्तता के अनुभव से जोड़ सकते हैं, जो सारे सृजन का स्रोत है। एक ओर शिव संहारक कहलाते हैं और दूसरी ओर वे सबसे अधिक करुणाकर भी हैं। वे उदार दाता हैं। यौगिक गाथाओं में वे, अनेक स्थानों पर महाकरुणाकर के रूप में सामने आते हैं। उनकी करुणा के रूप विलक्षण और अद्भुत रहे हैं। इसी कारुण्य में शिव का न्याय समाहित है, प्रेम समाहित है, अभेद और अनुकम्पा समाहित है।
आप सभी को शिवरात्रि की बहुत शुभकामनाएं। विराम लेते हुए आपको शिव महिमा के दो शानदार उदाहरण देना चाहता हूँ। ताकि नज़ीर अकबराबादी और मलिक मोहम्मद जायसी के रचना संसार के ये पुष्प आपको भी सुगन्धित करें।
जय जय।
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नज़ीर अकबराबादी
पहले नाम गनेश का, लीजै सीस नवाय।
जासे कारज सिद्ध हों सदा महूरत लाय॥
बोल बचन आनन्द के, प्रेम पीत और चाह।
सुन लो यारों, ध्यान धर महादेव का व्याह॥
जोगी जंगम से सुना, वह भी किया बयान।
और कथा में जो सुना, उसका भी परमान॥
सुनने वाले भी रहें, हँसी ख़ुशी दिन-रैन।
और पढ़ें जो याद कर, उनको भी सुख चैन॥
और जिसने इस व्याह की, महिमा कही बनाय।
उसके भी हर हाल में शिव जी रहें सहाय॥
ख़ुशी रहे दिन रात वह, कभी न हो दिलगीर।
महिमा उसकी भी रहे, जिसका नाम ‘नज़ीर’।
जायसी
ततखन पहुँचे आइ महेसू। बाहन बैल, कुस्टि कर भेसू॥
काथरि कया हडावरि बाँधे। मुंड-माल औ हत्या काँधे॥
सेसनाग जाके कँठमाला। तनु भभुति, हस्ती कर छाला॥
पहुँची रुद्र-कवँल कै गटा। ससि माथे औ सुरसरि जटा॥
चँवर घंट औ डँवरू हाथा। गौरा पारबती धनि साथा॥
औ हनुवंत बीर सँग आवा। धरे भेस बादर जस छावा॥
अवतहि कहेन्हि न लावहु आगी। तेहि कै सपथ जरहु जेहि लागी॥
की तप करै न पारेहु, की रे नसाएहु जोग?।
जियत जीउ कस काढहु? कहहु सो मोहिं बियोग॥
कहेसि मोहिं बातन्ह बिलमावा। हत्या केरि न डर तोहि आवा॥
जरै देहु, दुख जरौं अपारा। निस्तर पाइ जाउँ एक बारा॥
जस भरथरी लागि पिंगला। मो कहँ पद्मावति सिंघला॥
मै पुनि तजा राज औ भोगू। सुनि सो नावँ लीन्ह तप जोगू॥
एहि मढ सेएउँ आइ निरासा। गइ सो पूजि, मन पूजि न आसा॥
मैं यह जिउ डाढे पर दाधा। आधा निकसि रहा, घट आधा॥
जो अधजर सो विलँब न आवा। करत बिलंब बहुत दुख पावा॥
एतना बोल कहत मुख, उठी बिरह कै आगि।
जौं महेस न बुझावत, जाति सकल जग लागि॥
पारबती मन उपना चाऊ। देखों कुँवर केर सत भाऊ॥
ओहि एहि बीच, की पेमहि पूजा। तन मन एक, कि मारग दूजा॥
भइ सुरूप जानहुँ अपछरा। बिहँसि कुँवर कर आँचर धरा॥
सुनहु कुँवर मोसौं एक बाता। जस मोहिं रंग न औरहि राता॥
औ बिधि रूप दीन्ह है तोकों। उठा सो सबद जाइ सिव-लोका॥
तब हौं तोपहँ इंद्र पठाई।गइ पदमिनि तैं अछरी पाई॥
अब तजु जरन, मरन, तप जोगू। मोसौं मानु जनम भरि भोगूं।