श्री गुरु नानकदेव ने किया खालसा पंथ का शिलान्यास
धर्मरक्षक वीरव्रती खालसा पंथ – 2
नरेंद्र सहगल
श्री गुरु नानकदेव ने किया खालसा पंथ का शिलान्यास
“किरत करो, वंड छको ते नाम जपो” अर्थात परिश्रम (कर्म) करते हुए बांटकर खाओ और परमपिता परमात्मा का स्मरण करो। हमारे सिख समाज के इस सिद्धांत अथवा विचारधारा के प्रवर्तक श्री गुरु नानक देव जी महाराज ने जहां एक ओर सामाजिक समरसता, सामाजिक सौहार्द और सृष्टि नियंता अकालपुरख के चिंतन/मनन को अपने कर्मक्षेत्र का आधार बनाया, वहीं उनके अंतर्मन में विधर्मी/विदेशी हमलावरों द्वारा भारतीय समाज (विशेषतया हिन्दू समाज) पर किए जा रहे भीषण अत्याचारों के प्रतिकार की योजना भी साकार रूप ले रही थी।
भारत की धरती पर उपजे सांस्कृतिक एवं कर्म-चिंतन ‘धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष’ के ध्वज वाहक श्री गुरु नानकदेव द्वारा स्थापित दस गुरुओं की वीरव्रती परंपरा ही भारत/धर्मरक्षक खालसा पंथ की प्रेरणा एवं आधार अथवा शिलान्यास थी। दसों सिख गुरुओं के त्याग, तपस्या और अतुलनीय बलिदानों का प्रकट स्वरूप है ‘खालसा’। इसीलिए सभी गुरुओं को प्रथम नानक, द्वितीय नानक, तृतीय नानक, चतुर्थ नानक, पंचम नानक, छठे नानक, सप्तम नानक, अष्टम नानक, नवम नानक और दशम नानक (दशमेश पिता) कह कर सम्मान दिया जाता है।
श्री गुरु नानकदेव जी का कर्म-क्षेत्र किसी एक बंद कमरे, गुरुकुल अथवा आश्रम तक सीमित नहीं था। इस देव-पुरुष (अवतारी) ने परिवारों, आश्रमों तथा गुरुकुलों में कैद भारतीय चिंतनधारा को स्वतंत्र करके सनातन भारतवर्ष (अखंड भारत) के प्रत्येक कोने तक पहुंचाने का सफल प्रयास किया। श्रीगुरु की विभिन्न यात्राएं उनके विस्तृत कर्म-क्षेत्र की साक्षी हैं। संभवतया आदि शंकराचार्य जी के बाद नानक जी पहले ऐसे संत थे जिन्होंने समस्त भारत को एकसूत्र में बांधने के लिए अखंड प्रवास करके दूर-दराज तक बसे भारतवासियों के कष्टों को निकट से देखा।
श्री गुरु नानकदेव जी की इन विस्तृत यात्राओं में उनके अभिन्न भक्त तथा सहयोगी भाई मरदाना उनके साथ परछाई की तरह रहे। इनकी पहली आध्यात्मिक यात्रा(सन 1497 से 1509 तक) पूर्वी भारत की ओर थी। इस यात्रा में कुरुक्षेत्र, दिल्ली, मथुरा, आगरा, वृंदावन, गया, ढाका एवं कामरूप (आसाम) आदि स्थानों पर पड़ाव डाले गए। गुरु महाराज की दूसरी यात्रा (सन 1510 से 1540 तक) दक्षिण भारत की विस्तृत यात्रा थी। इस यात्रा के समय रामेश्वर एवं श्रीलंका तक उनका आध्यात्मिक प्रकाश फैला।
अपनी तृतीय यात्रा में श्री गुरु महाराज कश्मीर, मेरु पर्वत, अफगानिस्तान, तिब्बत इत्यादि स्थानों पर ईश्वरीय उपदेश देने पहुंचे। परमपिता परमात्मा के इस मानवी संदेश वाहक ने अपनी चौथी यात्रा में मक्का, मदीना, बगदाद तक संसारी लोगों को समरसत्ता का पाठ पढ़ाया।
श्री गुरु नानक का ध्यान अब विदेशी आक्रान्ताओं के पांव तले कुचले जा रहे असंख्य भारतीयों की ओर गया। विधर्मी बाबर के हमलों, अत्याचारों और माताओं-बहनों के हो रहे शील भंग को देख कर वे कराह उठे। उन्होंने बाबर की सेना को पाप की बारात की संज्ञा देते हुए उसके द्वारा किए जा रहे जुल्मों का मार्मिक वर्णन अपनी ‘बाबर वाणी’ रचना में किया है।
श्री गुरु नानकदेव युगपुरुष, आध्यात्मिक संत, मानवतावादी कवि, अद्भुत समाज सुधारक एवं गहन भविष्य दृष्टा थे। उन्होंने भारत पर होने वाले विदेशी हमलों की कल्पना कर ली थी। उन्होंने अपनी रचनाओं ‘आसा दी वार’ एवं ‘चौथा तिलंग राग’ में देश की दशा पर चिंता व्यक्त की थी। इसी चिंता के साथ उन्होंने समस्त भारतवासियों को चेतावनी देते हुए एकजुट होकर प्रतिकार करने का आह्वान भी किया था।
जब बाबर अफगानिस्तान को पार करता हुआ अपनी सेना के साथ पंजाब की ओर बढ़ रहा था तो श्रीगुरु नानकदेव ने भविष्य में आने वाले संकट का संकेत देते हुए बाबर को आक्रमणकारी घोषित कर दिया था। श्रीगुरु महाराज जी के अनुसार “इन विधर्मी हमलावरों को धर्म एवं सत्य की कोई पहचान नहीं है और ना ही अपने अमानवीय अत्याचारों पर कोई पश्चाताप अथवा लज्जा है।” भारत की धरती पर खून की नदियां बहाई जा रही है। श्रीगुरु नानकदेव की इस पीड़ा में भविष्य में होने वाले हमलों और उनके प्रतिकार के लिए समाज की तैयारी के संकेत भी दे दिए थे। भारत पर मुगलों की राजसत्ता, उनके द्वारा हिंदुओं का उत्पीड़न एवं धर्म परिवर्तन की भविष्य वाणी भी कर दी गई थी। मुगलों का पतन कैसे होगा, कौन करेगा तथा समाज में क्षात्र धर्म का जागरण कैसे होगा इत्यादि पूरा खाका उनकी रचनाओं में मिलता है।
श्री गुरु नानकदेव ने अपनी आध्यात्मिक शक्ति के बल पर अपने अंतर्मन की वेदना को ‘अकाल-पुरख’ के समक्ष प्रगट भी किया था वे कहते हैं:-
“खुरासान खमसाना किआ हिन्दुस्तान डराया
आपो दोस न दे करता
जम कर मुगल चढ़ाया
एती मार पई कुरलाणे
तैंकी दर्द न आया।”
इस रचना में श्री गुरु महाराज जी तत्कालीन अवस्था का मार्मिक वर्णन करते हुए परमात्मा को उलाहना देते हुए कहते हैं कि “मुगलों ने हिन्दुस्तान को डराया, जुल्म किए, भारतीयों को भयंकर अत्याचार सहने पड़े तब भी दर्द नहीं आया।“ श्रीगुरु के अनुसार परमात्मा ने खुरासान को तो सुरक्षित कर दिया और हिन्दुस्तान में बाबर के रूप में यमराज को भेज दिया।
इन शब्दों में श्री गुरु की आध्यात्मिक शक्ति का संकेत मिलता है। उन्होंने भविष्य में होने वाले संघर्ष का अनुमान लगाकर अपनी वाणी में भारतीयों को विधर्मी शासकों को उखाड़ फेंकने के लिए बलिदान के लिए आह्वान भी कर दिया था। वे अपनी वाणी में स्पष्ट आह्वान करते हैं- “जे तऊ प्रेम खेलण का चाओ सिर धर तली गली मोरी आओ।” अर्थात असत्य एवं अधर्म को समाप्त करने के लिए अपने शीश भी देने के लिए तैयार रहो।
श्री गुरु ने अपनी वाणी में भविष्य में होने वाले संघर्षों का संकेत देते हुए कहा था – “कोई मर्द का चेला (वीरपुरुष) जन्म लेगा, जो इन अत्याचारों का सामना करेगा।“ ऐसा हुआ भी। मुगलों के अमानवीय कृत्यों को समाप्त करने के उद्देश्य से दस गुरु परंपरा का श्रीगणेश हुआ और इसी में से ‘खालसा पंथ’ का जन्म हुआ।
श्री गुरु नानकदेव द्वारा प्रकाशित सिद्धांतों से प्रेरित दशगुरु परम्परा ने भारत, भारतीय संस्कृति, भारत का गौरवशाली इतिहास तथा विशाल हिन्दू समाज की रक्षा के लिए अनुपम बलिदानों का स्वर्णिय इतिहास रच दिया। यही अद्भुत और अतुलनीय बलिदान वीरव्रती खालसा पंथ की नीव के पत्थर बने। यही बलिदान उस खालसा पंथ का आधार और कारण बने जिसने विदेशी/विधर्मी तथा अमानवीय मुगलिया दहशतगर्दी को समाप्त करने में मुख्य भूमिका निभाई।
इसे ईश्वरीय योग ही कहा जाएगा कि धर्म के शत्रु अत्याचारी बाबर से औरंगजेब तक के विनाशकारी कालखंड मे ही श्रीगुरु नानकदेव से दशमेश पिता श्रीगुरु गोविंदसिंह तक की ‘शस्त्र और शास्त्र’ पर आधारित विचारधारा ने जन्म लिया और भारत की सशस्त्र भुजा के रूप में खालसा पंथ ने अपने धार्मिक, सामाजिक और राष्ट्रीय कर्तव्य को निभाया। _______ क्रमश:
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)