श्री राम और अकादमिक विमर्श
डॉ. अरुण सिंह
श्री राम जी की प्राण प्रतिष्ठा केवल एक उत्सव नहीं है, और न ही केवल घटना। इसके अर्थ बहुत गंभीर हैं। राम जी चुनौती लेकर आए हैं अपने भारत में। उस विमर्श के विरुद्ध जो दशकों से स्वतंत्र भारत में उनकी अवहेलना करता रहा है। वामपंथी, स्वघोषित स्त्रीवादी लेखकों ने उनके और माता सीता का चरित्र का हनन किया। उपन्यास लिखे गए। आलेख लिखे गए। कक्षाओं में पढ़ाए गए। शोध प्रबंध लिखे गए। आज भी होता है।
कांग्रेसी नेताओं ने तो उन्हें काल्पनिक ही बता दिया। दशकों से पाठ्यक्रमों में यह निरूपण चल रहा है।
नई पीढ़ी जब प्रश्न करती कि यह सब व्यर्थ ही हो रहा है, या राजनीति से प्रेरित है, अथवा पैसा लूटा जा रहा है, तो आश्चर्य नहीं होता। दोष शिक्षा व्यवस्था का है। जो नेहरू पढ़ाना चाहते थे, वही पढ़ाया गया दशकों से। धर्म की परिभाषा ही बदल दी गई। उस सांस्कृतिक चेतना की अवहेलना की गई, जो भारत के मूल में है। धर्म तो भारत के मूल में है, वह इस से निरपेक्ष कैसे हो सकता है? निर्मल वर्मा ने अपने निबंध में इस विचार को समझाया है। मैकाले की शिक्षा नीति ने यही तो प्रतिपादित किया था : भारत को अपने मूल से विमुख करना। अंग्रेजी भाषा सिखाना उद्देश्य नहीं था, बल्कि भारत की मूल संस्कृति के स्थान पर अंग्रेजी संस्कृति को प्रतिस्थापित करना मैकाले का ध्येय था।
साहित्य, इतिहास, और सिनेमा, सभी में यह योजनाबद्ध रूप से हुआ। शब्द गढ़े गए, “गंगा जमुनी तहजीब” जैसे। और किनारे पर धकेल दिया गया मूल विचार को। सरकारें आईं और गईं। यह मैकाले चलता रहा, पर अब चुनौती मिल रही है उसे। राम चुनौती दे रहे हैं। उन सब विमर्शों को जिन्होंने उन्हें टेंट में रहने दिया। जिन विमर्शों ने मस्तिष्क में यह कूट कूट कर भर दिया कि “हिंदू” और “राष्ट्र” की चर्चा करना बहुत ही अनुचित और अप्रासंगिक है; इस्लामिक और ईसाई सभ्याएं भारत का अभिन्न अंग हैं। इन सभ्यताओं का मूल उद्देश्य क्यों छिपाया गया?पाठ्यक्रमों में यही विमर्श हावी रहा। प्रेमचंद का साहित्य पढ़ाया गया, पर उनकी कहानी “जिहाद” कितने विद्यार्थी अपने पाठ्यक्रम में पढ़ पाए? अरविंद घोष का “भारत और बाहरी प्रभाव” पर विचार कितने पाठ्यक्रमों में पढ़ाया गया? वीर सावरकर, शचींद्र नाथ सान्याल, रामकृष्ण खत्री, बारीन्द्र घोष, भाई परमानंद, रामप्रसाद बिस्मिल, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस आदि राष्ट्र नायकों की जीवनियां कितने उत्तर औपनिवेशिक अध्ययन के पाठ्यक्रमों में निर्धारित की गईं और प्रतिरोध के विमर्श में इनके नाम क्यों नहीं आए अब तक? संस्कृत के महाकाव्य और नाटकों के कितने अनुवाद अन्य भाषाओं के पाठ्यक्रमों में पढ़ाए गए? इतिहास क्यों अछूता रहा इन सब विषयों से? अफ्रीकी राष्ट्र नायकों और लेखकों ने “नेग्रीट्यूड” के विमर्श को अकादमिक विमर्श में स्थापित किया, पर भारतीय लेखक “भारतवर्ष” के विमर्श को क्यों स्थापित नहीं कर पाए? कारण तो पहले से स्पष्ट हैं। द्रोही पहले भी थे, और उनकी खेप अब भी है। फरवरी 1915 में कृपाल सिंह नामक एक व्यक्ति ने अंग्रेजों का जासूस बनकर क्रांतिकारियों द्वारा संगठित पूरे विप्लव को विफल कर दिया था। ढेरों उदाहरण हैं ऐसे, जिन्होंने भारत की मूल चेतना के साथ द्रोह किया। उनकी खेपों ने राष्ट्र का इतिहास लिखा और लिखवाया।
अब राम जी अपने निवास में आए हैं तो उनका विमर्श भी पुनर्स्थापित होगा। राम जी तो भारत की आत्मा हैं, भारत का मूल हैं, चेतना हैं राष्ट्र की। उनकी कथा वे स्वयं सुनाएंगे, असंख्य मुखों से, लेखनियों से।