स्वामी विवेकानंद : राष्ट्र और समाज के लिए समर्पित सन्यासी
स्वामी विवेकानंद : राष्ट्र और समाज के लिए समर्पित सन्यासी
स्वामी विवेकानंद ने केवल 30 वर्ष की आयु में ही विश्व के समक्ष भारत के ज्ञान की पताका फहराई थी। स्वामी विवेकानंद की निर्मिति के पीछे त्याग और तप की विराट शक्ति थी, जो उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस और गुरुमाता शारदा देवी के रूप में सदैव विद्यमान रही, परंतु उस शक्ति की ग्राह्यता के लिए ‘विवेकानंद’ रूपी व्रतधारी का आदर्श जीवन चरित्र भी था, जो राष्ट्र-समाज, धर्म-अध्यात्म को जहां एक ओर तर्क और विज्ञान की कसौटी पर रखता था, तो दूसरी ओर असीम श्रद्धा के साथ महान हिंदू पूर्वजों, धर्मग्रंथों, परम्पराओं के प्रति समर्पण का एकात्म भी प्रस्तुत करता था। एक ऐसा परिव्राजक संन्यासी जिसका क्षण-क्षण राष्ट्र और समाज के लिए समर्पित रहा। एक-एक विचार राष्ट्रीय जीवन को सशक्त-समृद्ध करने के लिए रहा। उन्होंने केवल कोरे उपदेश ही नहीं दिए बल्कि उसको साकार करने के लिए स्वयं को राष्ट्र की यज्ञ वेदी में समर्पित कर दिया। स्वामी विवेकानंद युवाओं के लिए सबसे बड़े आदर्श इसीलिए हैं क्योंकि उनके जीवन का एक-एक पक्ष, एक-एक विचार-अनंत ऊर्जा की विद्युतमय तरंगों से परिपूर्ण हैं। उनके विचार और दर्शन में तथ्य-तर्क, धर्म-कर्म, ज्ञान-विज्ञान सबका समावेश है। वे कहते हैं कि मनुष्य, केवल मनुष्य भर चाहिए। बाकी सब कुछ अपने आप हो जाएगा। आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी, श्रद्धा सम्पन्न और दृढ़ विश्वासी निष्कपट नवयुवकों की। ऐसे सौ मिल जाएं, तो संसार का कायाकल्प हो जाए।
जब हम स्वयं के युवा होने का दावा करते हैं तो यह प्रश्न भी उठता है कि क्या हम स्वामी जी के उन सौ युवाओं की अर्हता को पूरा करते हैं? इतना ही नहीं जब वे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं, तो हमें सर्वसामर्थ्यवान होने का बोध भी प्रदान करते हैं। स्वामी जी कहते हैं कि आगे बढ़ों। हमें अनंत शक्ति, अनंत उत्साह, अनंत साहस तथा अनंत धैर्य चाहिए, तभी महान कार्य सम्पन्न होगा। मेरे बच्चे, मैं जो चाहता हूं, वह है लोहे की नसें और फौलाद के स्नायु जिनके भीतर ऐसा मन वास करता हो, जो वज्र के समान पदार्थ का बना हो। बल, पुरुषार्थ, क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज ।
यह सब कैसे प्राप्त होगा? निःसंदेह इसके लिए चारित्रिक श्रेष्ठता और दृढ़ इच्छा शक्ति से सम्पन्न बनना होगा क्योंकि यही दो मूल्य होते हैं, जो किसी भी राष्ट्र और समाज की उन्नति में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। स्वामी जी उच्च चारित्रिक बल और इच्छाशक्ति को जागृत करने के लिए अपने विविध उद्बोधनों / पत्र-व्यवहारों में आह्वान करते हुए कहते हैं कि तुमको आवश्यकता है, चरित्र की और इच्छाशक्ति को सबल बनाने की। अपनी इच्छाशक्ति का प्रयोग करते रहो तो और भी उन्नत हो जाओगे। इच्छा सर्वशक्तिमान है। केवल चरित्र ही कठिनाइयों के दुर्भेद्य पत्थर की दीवारों को भेदकर उस पार जा सकता है। किसी मनुष्य का चरित्र वास्तव में उसकी मानसिक प्रवृत्तियों एवं मानसिक झुकाव की समष्टि ही है। हम अभी जो कुछ हैं, वह सब अपने चिंतन का ही फल है। चिंतन ही बहुकाल स्थायी है और उसकी गति भी दूरव्यापी है। अतः तुम क्या चिंतन करते हो, इस विषय में विशेष ध्यान रखो। हमारा प्रत्येक कार्य, प्रत्येक अंग संचालन, प्रत्येक विचार हमारे चित्त पर इसी प्रकार का एक संस्कार छोड़ जाता है। हम प्रत्येक क्षण जो कुछ होते हैं, वह इन संस्कारों के समूह द्वारा ही निर्धारित होता है। प्रत्येक मनुष्य का चरित्र इन संस्कारों की समष्टि द्वारा ही नियमित होता है। यदि भले संस्कारों का प्राबल्य रहे, तो मनुष्य का चरित्र अच्छा होता है और यदि बुरे संस्कारों का, तो बुरा।
स्वामीजी अपने कालखंड में समाज को संगठित करने के लिए युवाशक्ति में नव चैतन्यता भर रहे थे। उनके अनुसार कैसा होना चाहिए युवा? साथ ही युवाओं को प्रशिक्षित करने के लिए वे आत्मोत्सर्ग की भावना से ओत-प्रोत रहते थे। जो सच्चे हृदय से भारतीय कल्याण का व्रत ले सकें तथा उसे ही जो अपना एकमात्र कर्तव्य समझें, ऐसे युवकों के साथ कार्य करते रहो। उन्हें जागृत करो, संगठित करो तथा उनमें त्याग का मंत्र फूंक दो। भारतीय युवकों पर ही यह कार्य सम्पूर्ण रूप से निर्भर है। मैंने तो इन नवयुवकों का संगठन करने के लिए जन्म लिया है। यही क्या, प्रत्येक नगर में सैकड़ों और मेरे साथ सम्मिलित होने को तैयार हैं और मैं चाहता हूं कि इन्हें अप्रतिहत गतिशील तरंगों की भांति भारत में सब ओर भेजूं, जो दीन-हीनों एवं पददलितों के द्वार पर सुख, नैतिकता, धर्म और शिक्षा उडेल दें और इसे मैं करूंगा या मरूंगा।
फिर जब बात आती है शिक्षा की तो स्वामी जी का शिक्षा के उद्देश्य से क्या आशय था? युवा होने के नाते हम शिक्षा का क्या अर्थ ग्रहण करते हैं? केवल डिग्री जो हमारे रोजगार जीविकोपार्जन का माध्यम बनती है? क्या शिक्षा वह जिसे हम तथाकथित आधुनिकता के विषाक्त रंग-रोगन में समेटे ‘अभिजात’ होने का मिथ्यादम्भ पाले फिरते रहते हैं? स्वामी विवेकानंद ने शिक्षा को अत्यंत सुंदर रूप में परिभाषित किया है। वे कहते हैं कि जो शिक्षा साधारण व्यक्ति को जीवन संग्राम में समर्थ नहीं बना सकती, जो मनुष्य में चरित्र-बल, परहित भावना तथा सिंह के समान साहस नहीं ला सकती, वह भी कोई शिक्षा है? जिस शिक्षा के द्वारा जीवन में अपने पैरों पर खड़ा हुआ जाता है, वही है शिक्षा। यह शिक्षा आचार-व्यवहार में कैसे प्रकट होगी? इसके लिए वे उन्नति के दो सूत्र देते हुए कहते हैं कि ‘त्याग’ और ‘सेवा’ ही भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं. इन दो बातों में भारत को उन्नत करो। ऐसा होने पर सब कुछ अपने आप ही उन्नत हो जाएगा।
वस्तुतः स्वामी विवेकानंद ने युवा होने के जिन अर्थों को-बोध को प्रकट किया। हमें उन्हें आत्मसात कर कर्तव्य पथ की ओर अग्रसर होना पड़ेगा। 21वीं सदी भारत की है, उसकी बागडोर युवाओं के हाथों में हैं। ऐसे में उच्च चारित्र्यबल से सम्पन्न, आत्मानुशासित, आत्मगौरव से परिपूर्ण विचारों के प्रवाह की आवश्यकता है, जो राष्ट्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रवाहमान हो। राष्ट्र की गौरवपूर्ण धरोहर के साथ नागरिक कर्तव्यों का पालन करना। ‘स्व’ को केंद्रित रखकर व्यक्तिगत जीवन से लेकर समाज जीवन शुचिता की ओर अग्रसर होना। उच्छृंखलता के विकृत वातावरण को समाप्त करते हुए सर्जनात्मकता के साथ गतिमान रहना। युवा होने के नाते यह हमारा प्राथमिक और अनिवार्य दायित्व है। समाज को स्वावलम्बी बनाने के उद्देश्य से नवाचारों और नवोन्मेष के पथ पर सतत अग्रसर रहना। सामाजिक समरसता को आचार और व्यवहार में उतारना और विभाजनकारी शक्तियों के प्रतिकार करने के लिए प्रति क्षण तत्पर रहना होगा। त्याग और सेवा को आचरण में उतारना होगा। इसके साथ ही तकनीकी के प्रसार के साथ ही जिस ढंग से चुनौतियां राष्ट्रजीवन के समक्ष आई हैं। उनके उपाय भी हमें ही खोजने होंगे। समाज को जागरूक करना पड़ेगा। फिर जब हम राष्ट्र प्रथम की भावना के साथ अपने जीवन को गढ़ेंगे तो निश्चय ही सर्वत्र राष्ट्र की जय-जयकार सुनाई देगी। भारत माता विश्व गुरु के पद पर सिंहासनारुढ़ होकर राष्ट्र को अमरता के पथ की ओर प्रेरित करेंगी।