तपोभूमि अलवर में स्वामी विवेकानंद जी का आगमन
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डॉ. अभिमन्यु
तपोभूमि अलवर में स्वामी विवेकानंद जी का आगमन
स्वामी विवेकानंद ने जन जागरण के लिए पूरे भारत में अनेक यात्राएं कीं। इसी क्रम में वे योद्धाओं के रक्त से दीप्त वीर प्रसविनी धरती राजस्थान की ओर अग्रसर हुए। 1891 ई. के फरवरी महीने की 14 तारीख की सुबह वे अलवर नगर के रेलवे स्टेशन पर उतरे। दोनों ओर उद्यान और हरियाली भरी भूमि में सुशोभित राजपथ पर चलते-चलते अंत में एक राजकीय दंत चिकित्सालय के सामने पहुंचे। वहां एक बंगाली सज्जन को खड़ा देखकर उन्होंने बांग्ला भाषा में पूछा, इधर साधु सन्यासियों के रहने के योग्य कोई स्थान है क्या? उक्त सज्जन का नाम था श्री गुरु चरण लश्कर और वही उस औषधालय के चिकित्सक थे। चिकित्सक महोदय ने स्वामी जी के लिए बाजार में दो मंजिला एक मकान में ठहरने की व्यवस्था कर दी। धीरे-धीरे स्वामी जी के अनुरागियों की संख्या बढ़ने लगी। इसमें न सिर्फ हिंदू बल्कि मौलवी सहित अनेक मुसलमान भी स्वामी जी के मधुर संभाषण से मुग्ध हो रहे थे।
कुछ ही दिनों में स्वामी जी के अनुरागियों की संख्या अत्यंत बढ़ जाने के कारण स्वामी जी को अलवर राज्य के अवकाश प्राप्त इंजीनियर पंडित शंभूनाथ जी के घर में ठहराया गया। यहां पर प्रतिदिन स्वामी जी का भक्तों से वार्तालाप का क्रम प्रारंभ हो गया।
अलवर प्रवास के दौरान स्वामी जी ने विभिन्न विषयों पर अपने विचार प्रकट कर अपने अनुयाइयों की जिज्ञासाओं का समाधान किया तथा समाज को नई दिशा देने का कार्य किया। एक अवसर पर किसी ने स्वामी जी से पूछा, “महाराज आप गेरुआ वस्त्र क्यों पहनते हैं?” स्वामी जी ने तुरंत उत्तर दिया क्योंकि यह भिक्षुक की पोशाक है। अन्य कपड़े पहनने पर गरीब लोग मुझसे भिक्षा चाहेंगे, किंतु मैं स्वयं ही भिक्षुक हूं, अक्सर एक कौड़ी भी मेरे पास नहीं होती है। अतः चाहने पर भी यदि नहीं दे पाता हूं, तो मुझे अत्यंत कष्ट होता है। गेरुआ पहने देखकर वो लोग भी समझते हैं, कि मैं उन लोगों की तरह ही हूं, इसलिए भिक्षुक से कुछ मांगने की बात भी उनके मन में नहीं उठती। गेरुआ वस्त्र के बारे में स्वामी जी का यह एक अभिनव विचार था।
इसी तरह एक बार अलवर महाराज के दीवान मेजर रामचंद्र ने स्वामी जी को अपने घर आमंत्रित किया। वहीं पर अलवर के महाराज ने स्वामी जी से प्रश्न किया कि आप तो अद्वितीय पंडित हैं, इसलिए आप तो सहज ही काफी धन उपार्जन कर सकते हैं। ऐसा नहीं कर आप भिक्षा मांगने क्यों निकले हैं? बिना संकोच के स्वामी जी ने महाराज से प्रति प्रश्न किया, महाराज क्या आप कह सकते हैं कि “अपने राज कार्य की अवहेलना कर आप दिन-रात साहबों के साथ खाना खाकर शिकार करने क्यों निकलते हैं?” महाराज ने थोड़ी देर विचार कर उत्तर दिया, “मैं ऐसा क्यों करता हूं, कह नहीं सकता फिर भी, हॉं, यह मुझे अच्छा लगता है।” स्वामी जी ने भी सहर्ष कहा “ठीक है, मुझे भी इसी प्रकार भिक्षुक की तरह घूमने निकलना अच्छा लगता है।” स्वामी जी ने बिना किसी संकोच के महाराज को जैसा प्रश्न वैसा प्रत्युत्तर दिया।
इसके बाद महाराज मंगलसिंह ने स्वामी जी से मूर्ति पूजा के बारे में प्रश्न किया कि, “लोग मूर्ति पूजा क्यों करते हैं, उसमें मेरा बिल्कुल विश्वास नहीं हैं?” इसका उत्तर देते हुए स्वामी जी ने महाराज के दीवान से वहां कमरे में लगी महाराज की तस्वीर पर थूकने को कहा, आप लोग में से कोई भी इस पर थूक सकता है, कागज के अतिरिक्त यह कुछ नहीं है। ऐसा सुनकर सभी भय से त्रस्त हो गए। दीवान ने स्वामी जी से कहा यह हमारे महाराज की तस्वीर है, हम ऐसा कार्य नहीं कर सकते। तब स्वामी जी ने महाराज से कहा, एक दृष्टि से यह मात्र एक चित्र है न कि आप, तथापि दूसरी दृष्टि से यह आप ही हैं। इसकी ओर देखते ही वे लोग स्वयं आपको देखने लगते हैं। इसी कारण, जो लोग आपका व्यक्तिगत रूप से जितना सम्मान करते हैं, इस चित्र का भी उतना ही सम्मान करते हैं। जो भक्त मूर्ति पूजा करते हैं, उनके संबंध में भी ठीक यही बात घटित होती है। भक्तगण इसलिए भगवान की प्रतिमा की पूजा करते हैं कि यह प्रतिमा उन लोगों को उनके अपने इष्ट का या इष्ट के ऐश्वर्य की महिमा का स्मरण कराती है तथा उन लोगों की ध्यान धारणा में सहायक होती है। जो भक्त मूर्ति पूजा करते हैं, वे उस पत्थर की पूजा नहीं कर रहे होते हैं, बल्कि उस अद्वितीय चैतन्य स्वरूप परमात्मा की पूजा कर रहे होते हैं। भगवान को जो जिस रूप में समझता है या उनका जिस रूप में चिंतन मनन करता है, उसी रूप में उनकी पूजा करता है। मूर्ति पूजा के महत्व के बारे में स्वामी जी के विचार, मूर्ति भंजकों को करारा उत्तर है कि वे कितनी अज्ञानता में जी रहे हैं।
ऐसे ही एक बार स्वामी जी ने पौरुष और उद्यम के बारे में अपने विचार प्रकट किए। स्वामी जी का मानना था, मनुष्य यदि वीर्यवान और शक्तिमान है, तो उसके बुरे कर्म करने पर भी, मैं उसके प्रति श्रद्धा रखता हूं क्योंकि उसका साहस और वीरत्व ही एक दिन उसे कुपथ त्यागने की प्रेरणा देगा और वह फिर कभी स्वार्थ सिद्धि के लिए काम नहीं करेगा। अंततः वह सत्य की उपलब्धि करने में समर्थ हो सकेगा।
स्वामी जी अलवर के युवकों को संस्कृत सीखने के लिए प्रेरित करते थे। समय-समय पर स्वामी जी ही उन लोगों को पढ़ाया करते और कहा करते थे, संस्कृत पढ़ो, उसके साथ-साथ पश्चिमी देशों के विज्ञान का अनुशीलन भी करो। स्वामी जी कहा करते थे कि भारत का इतिहास भारतीयों को ही लिखना होगा क्योंकि अंग्रेजों ने हम लोगों के देश का जो इतिहास लिखा है, उससे हमारे मन में दुर्बलता ही आएगी क्योंकि वे केवल हमारे पतन और अवनति का ही उल्लेख करते हैं। ये विदेशी लोग हमारी धर्म संस्कृति, हमारी रीति नीति से कम परिचित हैं। ऐसे में ये निष्पक्ष भाव से भारत का इतिहास कैसे लिख सकते हैं।
इसी तरह बातचीत के क्रम में एक शिष्य ने स्वामी जी से पूछा कि हम लोग अर्थोपार्जन के लिए नौकरी करते हैं। अतः हम इसे निस्वार्थ सेवा कैसे कह सकते हैं? नौकरी करना तो अंततः दासत्व है। इसके अतिरिक्त इन दिनों व्यवसायिक जीवन ऐसा हो गया है, कि एक व्यापारी के लिए सत्य और सरलता का निर्वाह करना एक प्रकार से असंभव हो गया है। इसके उत्तर में स्वामी जी ने कहा कि यह हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली का दोष है, व्यक्तिगत रूप से मैं अनुभव करता हूं कि यदि कोई कृषि कार्य को अपना पेशा या व्यवसाय बना लेता है, तो इसमें कोई क्षति नहीं है। राज ऋषि जनक ने एक हाथ से हल पकड़ा और दूसरे से वेद का अध्ययन किया, हमारे प्राचीन ऋषिगण कृषक थे। इतना ही नहीं, देखो, अमेरिका ने कृषि का विकास कर कितनी प्रगति की है। हमें इसके विज्ञान को जानना चाहिए और अपनी कृषि के विकास में उस ज्ञान का उपयोग करना चाहिए। एक किसान का बेटा थोड़ी सी शिक्षा लेने के बाद अपने पैतृक कार्य को छोड़कर शहर में जाता है और गोरे लोगों के अधीन नौकरी करता है। यदि शिक्षित लोग गांव में रहने जाएं, तो छोटे गांव भी विकसित हो जाएंगे और यदि कृषि कार्य वैज्ञानिक तरीके से हो तो उपज भी अधिक होगी। इस तरह स्वामी जी ने वैज्ञानिक कृषि एवं गांव के विकास के बारे में कितने सुंदर एवं आधुनिक विचार उस समय प्रकट किए थे।
अब समय आ चुका था, जब 28 मार्च को स्वामी जी ने अलवर के भक्तों से विदा ली। इसके बाद अलवर से 18 मील दूर पांडुपोल की ओर चले, दूसरे दिन 16 मील दूर टहला गांव की ओर प्रस्थान किया और टहला में नीलकंठ महादेव के प्राचीन मंदिर में रात्रि विश्राम किया। फिर दूसरे दिन प्रातःकाल यात्रा प्रारंभ कर नारायणी माता नामक देवी स्थान पर रुके और रात बिताकर अगले दिन बसवा नामक रेलवे स्टेशन से जयपुर की यात्रा प्रारम्भ की। इस प्रकार स्वामी विवेकानंद जी का अलवर प्रवास राजस्थान के लिए अविस्मरणीय छाप छोड़ जाता है। अलवर में स्वामी जी ने भक्तों से बातचीत के दौरान अनेक विषयों पर अपने विचार प्रकट किए, जो न केवल भारत को बल्कि सम्पूर्ण विश्व को नई दिशा एवं प्रेरणा प्रदान करते हैं।