मंदिर-मस्जिद मामलों का समाधान क्या?
अवधेश कुमार
मंदिर-मस्जिद मामलों का समाधान क्या?
देश में असहज वातावरण बना हुआ है। काशी, ज्ञानवापी और मथुरा श्रीकृष्ण जन्मभूमि के न्यायिक और सार्वजनिक विवादों के बीच संभल से लेकर अजमेर शरीफ, भोजशाला आदि मुद्दों ने ऐसी तस्वीरें प्रस्तुत की हैं, मानो वर्तमान केंद्र सरकार एवं प्रदेश की भाजपा सरकारों की शह पर हिंदुओं का बहुत बड़ा समूह अधिक से अधिक मस्जिदों को ध्वस्त कर हिंदू स्थलों के निर्माण की तैयारी से आगे बढ़ चुका है। क्या वास्तव में यही सच है? इसका उत्तर है, नहीं। इस समय चारों ओर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का 2 जून, 2022 को नागपुर में दिया गया वक्तव्य याद किया जा रहा है। जिसमें उन्होंने कहा था कि अयोध्या, काशी और मथुरा की मान्यता रही है, लेकिन हर मस्जिद में मंदिर क्यों तलाशें। तब राजनीतिक दलों और परंपरागत संघ विरोधियों ने उनके बयानों को पाखंड बताया था तथा अधिकांश मुस्लिम नेताओं ने इसे आंखों में धूल झोंकना बता दिया था। आज वही लोग जगह-जगह उनकी पंक्तियों को उद्धृत कर पूछ रहे हैं कि फिर ऐसा क्यों हो रहा है? इन पर विशेष टिप्पणी की आवश्यकता नहीं, क्योंकि जिनकी राजनीतिक, बौद्धिक क्षेत्र से लेकर एक्टिविज्म में सम्पूर्ण प्रगति ही संघ विरोध में हुई हो, वो ऐसी ही प्रतिक्रियाएं देंगे। संघ को जानने वाले शत-प्रतिशत विश्वास करेंगे कि एक बार डॉक्टर भागवत के वक्तव्य के बाद स्वयंसेवक या संघ से जुड़े लोग ऐसा कदापि नहीं कर सकते।
ऐसा नहीं है कि संघ या हिंदू समाज के अंदर अपने प्राचीन धार्मिक स्थलों की वापसी की कामना नहीं है। यह ऐतिहासिक सच है कि इस्लामी आक्रमणकारियों और शासकों ने यहां पूजा स्थलों को ध्वस्त किया और उनके स्थान पर मस्जिद या अन्य इस्लामी भवन निर्मित किए। मुसलमानों के बीच भी इसे स्वीकार करने वाले लोग हैं। प्रश्न है कि आखिर इसका समाधान क्या है? क्या हर जिले या प्रखंड में ऐसे स्थलों को न्यायालय में ले जाना या उनके त्वरित समाधान के आतुर प्रयास आवश्यक हैं? इसमें दो राय नहीं कि संघ ही नहीं अधिकतर हिंदू, सिख, जैन और बौद्धों को लगता है कि इतिहास के कालखंड में हुए अन्यायों और क्रूरताओं का समाधान करते हुए धर्मस्थल वापस मिलने चाहिए। समस्या यह है कि भारत में हजारों ऐसे स्थान हैं। जिस संगठन को दूरगामी हिंदू राष्ट्र के लक्ष्य पर काम करना है, वह ऐसी जटिल समस्याओं के इस तरह त्वरित निदान का रास्ता नहीं अपना सकता। अयोध्या, काशी और मथुरा तीन का संघर्ष पुराना है और जैसा तब डॉ. भागवत ने कहा था कि संघ अपनी प्रवृत्ति के विपरीत जाकर अयोध्या आंदोलन का सहभागी बना, अब वह मंदिर के लिए किसी आंदोलन में शामिल होगा ऐसा सोचा नहीं गया। उनके कहने का यह भी अर्थ नहीं था कि संघ के स्वयंसेवक या अन्य संगठन आवश्यकतानुसार उनमें भाग नहीं लेंगे। आप देखेंगे कि उनमें से शायद ही कोई इस तरह त्वरित समाधान के लिए मामले को न्यायालय में ले जाता हो।
अनेक मामले हैं, जिनका कई स्तरों पर संघर्ष लंबे समय से चल रहा है। उदाहरण के लिए भोजशाला का संघर्ष पुराना है। इसी तरह संभल में भी राष्ट्रीय सतर पर आंदोलन नहीं दिखा, वहां हरिहर मंदिर मुक्ति के भाव से काम करने वाले पहले से सक्रिय हैं। लेकिन इन मामलों में ऐसे लोग भी न्यायालय में चले गए, जिनका कोई दूरगामी सकारात्मक उद्देश्य नहीं और न विषयों की गहरी समझ है। इसकी प्रतिक्रियाओं में पैदा होने वाली समस्याओं से निपटने की क्षमता की तो इनमें कल्पना ही नहीं की जा सकती है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि इनका समाधान नहीं हो या कट्टरपंथी मुस्लिम पक्षों या तथाकथित हिंदुत्व विरोधी स्वयं को सेक्युलर लिबलर मानने वाले समूहों व राजनीतिक दलों की अतिवादी प्रतिक्रियाएं एवं व्यवहार उचित हैं। वो ज्यादा गैर जिम्मेवार और उत्तेजना बढ़ाने वाला है। सभी जानते हैं कि सर्वे से कोई भी मस्जिद मंदिर में नहीं बदल सकती, इसके बावजूद संभल की साफ सुनियोजित दिख रही हिंसा हमारे सामने है। जब दूसरे पक्ष इस तरह कानून हाथ में लेकर हिंसा करेंगे तो फिर उनके विरुद्ध भी प्रतिक्रियाएं होंगी। न्यायालय में मामला है तो न्याय, संविधान और कानून की परिधि में रहकर दूसरे पक्ष को संघर्ष करना चाहिए। हमारी चिंता वर्तमान विश्व में बढ़ती जटिलताएं तथा भारत की आंतरिक शांति, एकता, अखंडता और विकास है।
भाजपा और संघ के संदर्भ में लंबे समय से किए गए दुष्प्रचारों के कारण अतिवादी पक्षों ने मुसलमानों के एक बड़े समूह के अंदर यह दुष्प्रचार कर दिया है कि खतरा सीधे मजहब पर है और यह हमारे अस्तित्व बचाने का प्रश्न है। बड़े-बड़े मजहबी और राजनीतिक नेता एवं इस्लामी विद्वान जब झूठ बोलते हैं कि उनकी मस्जिदें छीनीं जा रही हैं, मदरसे तोड़े जा रहे हैं तो इसका सीधा असर होता है। सच यह है कि भारत में किसी भी मजहब या संप्रदाय का स्थल बिना न्यायिक आदेश के परिवर्तित हो ही नहीं सकता और न हुआ है। स्वतंत्रता के बावजूद अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर की वापसी के लिए भी लगातार 70 वर्ष संघर्ष के बाद उच्चतम न्यायालय का निर्णय आया। सारे मामले इस कारण भी इन जटिल अवस्थाओं को प्राप्त हुए क्योंकि स्वतंत्रता के बाद प्रमुख स्थलों के समाधान का सरकारों ने प्रयत्न ही नहीं किया। सरदार वल्लभ भाई पटेल, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, डॉ. राजेंद्र प्रसाद आदि की पहल पर सोमनाथ के समाधान की तरह अन्य प्रमुख स्थलों का भी समाधान हो सकता था। सच कहें तो विभाजन के बावजूद मुस्लिम प्रश्न या मुस्लिम समुदाय का गैर मुसलमानों के साथ उत्पन्न समस्याओं के समाधान की जगह उन्हें छूने तक से परहेज की नीति सरकारों ने अपनाई और यह कुछ पार्टियों और नेताओं के लिए थोक मुस्लिम वोट पाने का माध्यम भी बन गया। स्वाभाविक ही इसके विरुद्ध लोगों के अंदर क्षोभ और उत्तेजना पैदा होती रही। त्रासदी देखिए कि वास्तविक विवाद भी हिंदुओं की ओर से उठाने पर संतुलित रुख अपना कर समाधान के प्रयास के स्थान पर उन्हें ही खलनायक और दोषी करार दिया जाता है। कहने का तात्पर्य कि मंदिर मस्जिद विवादों को अगंभीरता से न्यायालय में ले जाने वालों से कहीं अधिक घातक और खतरनाक आचरण इन विरोधियों का है। इनकी समाधान में कोई रुचि नहीं बल्कि हिंदुत्व समर्थकों को केवल कटघरे में खड़ा करना है। गैर भाजपा दलों का कोई एक नेता संभल में हुई एकपक्षीय हिंसा के विरोध में अगर एक शब्द नहीं बोल रहा तो इसे क्या कहा जाए।
बावजूद सोचना होगा कि इस समय भारत के अंदर और बाहर जो परिस्थितियां हैं, उनमें हमारी प्राथमिकताएं क्या हों? कुछ स्थलों को न्यायिक विवादों में ले जाने से समाधान हो जाए तो इसका समर्थन किया जा सकता है। न भूलें कि ऐसे कदमों से स्वयं मुसलमानों के अंदर एक समूह को भी अपने कट्टरपंथियों के दबाव में आकर या तो चुप रहना पड़ता है या फिर इस झूठ का समर्थन कि मजहब के रूप में संपूर्ण इस्लाम और इस्लामी स्थलों को ही समाप्त करने का षड्यंत्र किया जा रहा है। फिर क्या सभी मंदिर मस्जिद विवादों के स्थायी निपटारे के लिए भारत की आंतरिक तैयारी है? क्या होने वाली अतिवादी व हिंसक प्रतिक्रियाओं का गैर मुस्लिम समुदाय विशेषकर हिन्दू कानूनी परिधि में अहिंसक रहते हुए भी झेलने और सामना करने की स्थिति में हैं? सबसे बड़ी बात कि क्या ऐसे सारे मामलों का समाधान भी संभव है? ये सारे ऐसे प्रश्न हैं जो डॉ. मोहन भागवत की कुछ पंक्तियों के पीछे सोच में निहित थे और वे आज भी उसी तरह प्रासंगिक हैं।