बालिकाओं का उपनयन संस्कार हमारी प्राचीन परम्परा
बालिकाओं का उपनयन संस्कार हमारी प्राचीन परम्परा
उपनयन एक पारंपरिक हिन्दू संस्कार है। यह 16 संस्कारों में दसवां संस्कार है। यह संस्कार हिन्दू धर्म में शिक्षा और जीवन के एक नए चरण में प्रवेश का प्रतीक है। उपनयन का अर्थ होता है गुरु के समीप जाना। उपनयन संस्कार तब होता है, जब शिष्य अपने गुरु के निकट रहकर उनसे दीक्षा लेता है। पहले जब बच्चे को शिक्षा के लिए गुरुकुल भेजने का समय आता था, तब उसका उपनयन संस्कार कर दिया जाता था। इस संस्कार के उपरांत माना जाता था कि अब बालक / बालिका का दूसरा जन्म होने वाला है। अब वह शूद्र से द्विज बनने की राह पर है।
स्कन्द पुराण में कहा गया है-
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत् द्विजः।
वेद-पाठात् भवेत् विप्रः ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः॥
अर्थात् जन्म से मनुष्य शूद्र, संस्कार से द्विज, वेद के पठन-पाठन से विप्र और जो ब्रह्म को जानता है, वही ब्राह्मण कहलाता है। यानि शिक्षा प्राप्त करके ही कोई द्विज अर्थात् ज्ञानी बन सकता है।
इस संस्कार के पश्चात बालक भिक्षा माँगता था, ताकि उसमें आत्मश्लाघा व अहं भाव रंच मात्र भी शेष न रहे। और चूंकि हमारे वेद, उपनिषद जेंडर न्यूट्रल हैं, वहॉं बालक / बालिका, स्त्री / पुरुष का कोई भेद नहीं है। इसलिए इनमें जैसे बालक के उपनयन संस्कार की बात आती है, वैसे ही वेदों, उपनिषदों और गृह्यसूत्र में बालिकाओं के उपनयन संस्कार का भी उल्लेख मिलता है।
ऋग्वेद में कहा गया है-
भीमा जाया ब्राह्मणस्योपनीता दुर्धां दधाति परमे व्योमन्।
अर्थात् वेदाध्येता की जाया (पत्नी) ब्राह्मणी यज्ञोपवीत धारण करके भयंकर (सबला) बन जाती है।
पराशर-संहिता के भाष्यकार आचार्य मध्वाचार्य जी ने लिखा है-
द्विविधा स्त्रियो ब्रह्मवादिन्यः सद्योवधवश्च। तत्र ब्रह्वादिनीनाम् उपनयनम् अग्निबन्धनम् वेदाध्ययनम् स्वगृहे भिक्षा इति, वधूनाम् तु उपस्थिते विवाहे कथंचित् उपनयनं कृत्वा विवाहः कार्यः।
अर्थात् स्त्रियाँ दो प्रकार की होती हैं, एक ब्रह्मवादिनी जिनका उपनयन होता है और जो अग्निहोत्र व वेदाध्ययन तथा अपने घर में भिक्षावृत्ति (घर के लोगों की निष्काम सेवा तथा स्वेच्छा से मिले अन्न-धन से जीवन यापन) करती हैं। दूसरी श्रेणी (सद्योवधु) की स्त्रियाँ वे हैं, जिनका शीघ्र ही विवाह होना है। इनका भी उपनयन-संस्कार करने के उपरांत ही विवाह करना चाहिए।
गोभिलीय गृह्यसूत्र में कहा गया है-
प्रावृतां यज्ञोपवीतिनीम् अभ्युदानयन् जपेत्, सोमोsददत् गन्धर्वाय इति।
अर्थात् कन्या को यज्ञोपवीत पहना कर पति के निकट लाकर कहें “सोमोsददत्”।
यम स्मृति में भी कन्याओं के उपनयन और वेदाध्ययन का उल्लेख है-
पुराकल्पे तु नारीणां मौञ्जीबन्धनमिष्यते। अध्यापनं च वेदानां सावित्रीवाचनं तथा॥
अर्थात् प्राचीनकाल में स्त्रियों का उपनयन / यज्ञोपवीत संस्कार होता था। वे वेद आदि शास्त्रों का अध्ययन करती थीं।
उपनयन संस्कार के दौरान बालक / बालिका को तीन सूतों से बना यज्ञोपवीत पहनाया जाता था। प्रत्येक सूत में तीन धागे होते थे यानि एक यज्ञोपवीत में कुल नौ धागे होते थे। तीन धागों का एक सूत देवऋण, दूसरा पितृऋण और तीसरा ऋषिऋण का प्रतीक होता था। इन सूतों को गायत्री मंत्र के तीन चरणों का भी प्रतीक बताया गया है। नौ धागों में एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान एवं दो मल और मूत्र के द्वारों के प्रतीक हैं। यज्ञोपवीत में पांच गांठें लगाई जाती थीं, जो पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों की प्रतीक थीं। यज्ञोपवीत की लंबाई 96 अंगुल होती थी, जो 64 कलाओं और 32 विद्याओं की प्रतीक थी। गुरुकुल में बालक को 32 विद्याएं (चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक) व 64 कलाएं (वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि) सिखाई जाती थीं।
देश में आज गुरुकुल तो रहे नहीं, लेकिन उपनयन संस्कार की परम्परा जीवित है। अधिकतर स्थानों पर अब यह संस्कार विवाह मण्डप में सम्पन्न करवाया जाता है। परंतु यज्ञोपवीत के सूतों की संख्या अलग अलग स्थानों पर अलग अलग होती है, कहीं 3 तो कहीं 6 सूतों के यज्ञोपवीत भी पहनाए जाने लगे हैं। लड़कों की तुलना में लड़कियों के उपनयन संस्कार के प्रकरण देखने और सुनने में कम आते हैं। हालांकि पिछले दिनों 30 जुलाई को अमरोहा के चोटीपुरा स्थित श्रीमद् दयानंद कन्या गुरुकुल महाविद्यालय में कक्षा सात की 134 नव प्रविष्ट बालिकाओं का उपनयन संस्कार कराया गया। सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने बच्चियों को आशीर्वाद दिया। इसके बाद उदयपुर में एक बच्ची का उपनयन संस्कार हुआ।
भारत के अलग अलग भागों में उपनयन संस्कार व यज्ञोपवीत को भी अलग अलग नामों से जाना जाता है। जैसे संस्कृत में इसे उपनयन संस्कार और धागे को यज्ञोपवीतम् कहते हैं, वैसे ही हिन्दी, मलयालम, कन्नड़ और तेलुगू में संस्कार को तो उपनयन संस्कार ही कहते हैं, लेकिन पवित्र धागे को क्रमश: जनेऊ, पूनूल और जनिवारा कहा जाता है। उड़िया में इसे पोइटा, बंगाली में पोइता, असमिया में लगुन, कश्मीरी में योन्या, कोंकणी में जान्नुवी, मराठी में जानवा, तमिल में पूनाल और नेपाली में जनाई कहते हैं।