धार की भोजशाला है वाग्देवी मंदिर

धार की भोजशाला है वाग्देवी मंदिर

धार की भोजशाला है वाग्देवी मंदिरधार की भोजशाला है वाग्देवी मंदिर

मध्यप्रदेश के धार में स्थित ऐतिहासिक भोजशाला इन दिनों चर्चा में है। इसका नाम परमार वंश के प्रख्यात राजा भोज के नाम पर रखा गया था। कभी इसकी पहचान वाग्देवी मंदिर के रूप में थी, लेकिन आज मुसलमान इसे कमालुद्दीन मस्जिद बताते हैं। मुस्लिम आक्रांताओं की क्रूरता के शिकार इस मंदिर के लिए हिन्दुओं को आज कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ रही है। मामला फिलहाल न्यायालय में विचाराधीन है। सरस्वती पूजा के अवसर पर भोजशाला का वातावरण तनावपूर्ण हो जाता है।

यहॉं सीढ़ियों के नीचे एक बंद कमरा है। पिछले दिनों एक सर्वेक्षण के दौरान जब एएसआई ने इस कमरे को खोला तो अंदर से हिन्दू धर्म से जुड़ी कई चीजें मिलीं, जिनमें मां वाग्देवी, भगवान गणेश, हनुमान जी, मां पार्वती और अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएं शामिल हैं। इनके अतिरिक्त शंख-चक्र, शिखर समेत अन्य ढेर सारे अवशेष भी मिले हैं। आइए जानते हैं वाग्देवी मंदिर कैसे बन गया कमालुद्दीन मस्जिद।

1034 में हुई थी भोजशाला की स्थापना

ऐतिहासिक और सरकारी दस्तावेजों में बताया गया है कि भोजशाला, सरस्वती सदन है, जिसकी स्थापना राजा भोज ने की थी। यहां परमार वंश के राजा भोज ने 1010 से 1055 ईस्वी तक शासन किया था। बताया जाता है कि राजा भोज ने 1034 में सरस्वती सदन की स्थापना की थी। यह एक कॉलेज था, जो आगे चलकर भोजशाला हो गया है। यहां शिक्षा प्राप्ति के लिए दूर-दूर से लोग आते थे। वहीं, राजा भोज के शासनकाल में ही यहां सरस्वती मां की मूर्ति स्थापित की गई थी, जिन्हें वाग्देवी भी कहा जाता है।

इतिहास की पुस्तकों में उल्लेख मिलता है कि 1875 में खुदाई के दौरान यहां मां की प्रतिमा मिली थी, जिसे अंग्रेजों का पॉलिटिकल एजेंट मेजर किनकेड 1880 में इंग्लैंड लेकर चला गया था। वहां के म्यूजियम में आज भी वह मूर्ति सुरक्षित है।

मुस्लिम शासकों ने बना दिया इस्लामिक ढांचा

धार जिले की सरकारी वेबसाइट पर बताया गया है कि भोजशाला राजा भोज के समय एक बड़ा अध्ययन केंद्र हुआ करती थी। यहां सरस्वती मंदिर भी था। बाद में यहां के मुस्लिम शासक ने इसे इस्लामिक ढांचे में परिवर्तित कर दिया। भोजशाला में मंदिर था, ढांचे में आज भी इसके प्रमाण दिखते हैं।

दूसरी ओर, मुस्लिम पक्ष के लोग अलाउद्दीन खिलजी के समय यानि 1307 से ही इसे अपना मजहबी स्थल बताते हैं। पुस्तकों में उल्लेख है कि 1305 से 1401 के बीच अलाउद्दीन खिलजी और दिलावर खां गौरी की सेनाओं के साथ गोगादेव और माहक देव की लड़ाई हुई थी। इसी दौरान कमालुद्दीन ने मकबरे और दरगाह का निर्माण करवाया था।

मस्जिद के फर्श पर श्लोक से पता चला कि यह भोजशाला है
दरअसल, भोजशाला विवाद की शुरुआत पहली बार 1902 में हुई थी। उस समय के तत्कालीन शिक्षा अधीक्षक काशीराम लेले ने ढांचे के फर्श पर संस्कृत के श्लोक देखे थे। श्लोकों के आधार पर उन्होंने इसे भोजशाला बताया था। इसके बाद 1909 में धार रियासत ने इसे संरक्षित स्मारक घोषित कर दिया। साथ ही यह पुरातत्व विभाग के अधीन हो गया।

धार के महाराज ने टंगवाई दोनों पक्षों की तख्ती

इस मामले में विवाद का दूसरा मोड़ भी आया, जब धार के महाराज ने 1935 में भोजशाला और कमाल मौलाना मस्जिद लिखी तख्ती टंगवा दी। इसी वर्ष परिसर में मुस्लिम पक्ष को नमाज पढ़ने की अनुमति भी दे दी गई। इसी निर्णय के बाद विवाद तूल पकड़ने लगा, जो आज तक चल रहा है। अभी यहां नमाज और पूजा दोनों की अनुमति है।

मंदिर के स्पष्ट साक्ष्य हैं यहॉं
भोजशाला के खंभों पर हिन्दू संस्कृति की झलक स्पष्ट दिखती है। बंद कमरे में मां वाग्देवी की प्रतिमा मिल ही चुकी है सर्वे में। संस्कृत में लिखे श्लोक मिले हैं। हिन्दू पक्ष का कहना है इस स्थान पर मस्जिद कभी रही ही नहीं। हिन्दू पक्ष की यह भी दलील है, कि जिन कमाल मौलाना की यहां मजार बताई जाती है, उन्हें धार में तो दफनाया ही नहीं गया। उनका कहना है कि एएसआई ने यहां पहले भी खुदाई की है, उसे हिन्दू स्थल होने के ही सबूत मिले हैं।

हिन्दू मंगलवार को करते हैं पूजा और मुस्लिम शुक्रवार को करते हैं इबादत

समय-समय पर भोजशाला को लेकर आंदोलन भी होते रहे हैं। इसके बाद सांप्रदायिक सौहार्द को बनाए रखने के लिए सरकारी आदेश भी बदलते रहे हैं। पहले था कि मुस्लिम हर शुक्रवार को यहां नमाज अता करेंगे। वहीं, हिन्दू सिर्फ बसंत पंचमी के दिन पूजा करेंगे। बाद में यह आदेश भी बदला, जिसमें कहा गया कि हिन्दू मंगलवार को सूर्योदय से सूर्यास्त तक पूजा करेंगे और मुस्लिम हर शुक्रवार को यहां इबादत करेंगे। अभी यही परंपरा चली आ रही है। 

हिन्दुओं का कहना है उनके लिए भोजशाला सिर्फ एक पुरातात्विक स्मारक नहीं है, बल्कि विद्या की देवी वाग्देवी, यानी सरस्वती को समर्पित एक पवित्र मंदिर होने के कारण उनकी आस्था का केंद्र है।

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