विजयादशमी और दशहरा का वास्तविक अर्थ
कमलेश कमल
विजयादशमी और दशहरा का वास्तविक अर्थ
दशहरा क्या है? विजयादशमी क्या है?? इन प्रश्नों पर विचार करें; उससे पूर्व एक प्रश्न समुपस्थित है कि जागरण क्या है और यह जागरण हो किसका? आइए! देखते हैं:–
माता का ‘जगराता’ (जागरण की रात्रि का अपभ्रंश) कर हम माता को जगाते हैं अथवा स्वयं को? ईश्वरीय शक्ति नहीं सोई है; अपितु हमारी शक्ति प्रसुप्त है और जागरण उसी का है। यह ध्यान रहे कि ‘माता’ हमारे अंदर अवस्थित आदि-शक्ति है। इस तरह, जो हम सबके अंदर है, उस शक्ति का अर्थात् आभ्यन्तरिक शक्ति का जागरण करना ही ‘नवरात्र’ का अभीष्ट है।
जब हम विजयादशमी मनाते हैं, तो यह स्मरण रहे कि यह दुर्गोत्सव हमारे अपने ही ‘दुर्ग’ पर विजय का उत्सव है। अगर जीत गए, तो स्वयं को ही साधकर ‘सिद्ध’ होने की जीत है। वस्तुत:, स्वयं का ही जागरण हो गया, तभी विजयादशमी की सार्थकता है। इसी तरह, जिस पराम्बा, चिन्मात्र, अप्रमेय, निराकार, मंगलरूपा, आराधिता, मोक्षदा, सर्वपूजिता, सर्व-सिद्धिदात्री, नारायणी शक्ति की हम आराधना करते हैं, वह हमारे अंदर ही अवस्थित है। इसे समझकर ही हम अपनी संकल्पित इच्छाशक्ति से उस शिवा (शिव या कल्याण को उपलब्ध कराने वाली) को अनुभव कर आगे बढ़ सकते हैं। अपनी वासनाओं पर विजय प्राप्त कर सकते हैं और कर्म के बंधन काट सकते हैं।
700 श्लोकों से युक्त ‘दुर्गा-सप्तशती’ के पाठ को हम बाह्य और आंतरिक दोनों चक्षुओं को खोल कर पढ़ें। साथ ही, इनसे जुड़ी पूजा-पाठ की पद्धतियों को वैज्ञानिकता की कसौटी पर कसने का प्रयास करें।
दुर्गा-पाठ में जब पढ़ते हैं कि माता ने धूम-राक्षस(इसे धूम्र-राक्षस न लिखें) का वध किया, तो समझें भी कि संस्कृत साहित्य में धूम या धुआँ ‘अज्ञान’ का प्रतीक है। इस तरह, ‘धूम-राक्षस’ का अर्थ हुआ– ‘अज्ञान रूपी राक्षस’। आदि-शक्ति ने इसका वध किया; अर्थात् शक्ति के जागरण से अज्ञान का अंत हुआ। ‘रक्त-बीज’ संस्कारों के वाहक हैं। लोक में अभी भी DNA अथवा जीनपूल के लिए ‘रक्त-बीज’ का प्रयोग मिलता है। लोग कहते हैं– “उसका ‘रक्तबीज’ ही ख़राब है; अर्थात् दूषित है।” ध्यान दें कि यहाँ बीज ‘वीर्य’ का पर्यायवाची है। अस्तु, इस निष्पत्ति से रक्त-बीज के वध का अर्थ है– कुसंस्कारों का अंत। आशय है कि शक्ति के जागरण से आत्मा इतनी पवित्र हो गई कि अब कुछ भी असाधु-तत्त्व संस्कारों द्वारा वहन नहीं होगा।
जब हम आचमण करें, तो ‘गंगे च यमुना चैव गोदावरी सरस्वती नर्मदा सिंधु कावेरी जलेस्मिन् सन्निधिं कुरु’ पढ़ते समय यह ध्यान रहे कि ये पवित्र नदियों के नाम हैं; जिनसे हमारी आस्था सन्नद्ध है और जो हमारे संस्कार में प्रवाहित हैं। हम इनका पवित्र जल अत्यंत अल्प मात्रा में पी रहे हैं। यह भी ध्यान रहे कि आचमन में ‘चम्’ धातु है जिसमें पीना और ‘ग़ायब होना’ दोनों शामिल है। क्या संयोग है कि ‘चम्मच’ और ‘आचमन’ दोनों का मूल एक ही है। तो, आचमन का जल इतनी मात्रा में(एक चम्मच भर) हो कि आँतों तक न पहुँच सके। यह हृदय के पास ज्ञान चक्र जाते-जाते तिरोहित हो जाए, समाविष्ट हो जाए। यह प्रतीकात्मक रूप से ज्ञान की तैयारी है।
जब अर्घ्य दें तो पता हो कि जो अर्घ(अर्पण) के योग्य है, वही अर्घ्य (अर्घ् +य) है अथवा जो बहुमूल्य है और देने के योग्य है, वही अर्घ्य है। ऐसे में, पूजा-पाठ की सामग्री के साथ अपने मन के आदर और श्रद्धाभाव को भी मिलाएँ, जिससे वह देने योग्य हो जाए।
जब हम संकल्प करें तो अपनी वासनाओं, बुराइयों पर विजय का संकल्प करें। जब हम शुद्धि करें (कर शुद्धि, पुष्प शुद्धि, मूर्ति एवं पूजाद्रव्य शुद्धि, मंत्र सिद्धि, शरीर-मन की शुद्धि) तो यह स्मरण रहे कि यह साधना है, कोई आडंबर नहीं। तदुपरांत दिव्या: कवचम्, अर्गलास्तोत्रम् , कीलकम्, वेदोक्तं रात्रिसूक्तम् से लेकर त्रयोदश अध्याय तक पाठ करते समय हमें शब्दों के महत्त्व पर विचार अवश्य कर लेना चाहिए। कील का अर्थ धुरी है। तो यहाँ दुर्गासप्तशती में ‘कील’ साधना की ‘धुरी’ है, ध्येय है। कवच अपने सद्विचारों एवं संयम का संकल्प है। जब कवच का पाठ करें तो समझें कि आध्यात्मिकता का कवच पहन रहे हैं; जिससे सांसारिक वासनाओं के अस्त्र-शस्त्र बेध न सकें। अर्गला का अर्थ किवाड़ की सिटकनी है। इस तरह चित्त और आभ्यन्तरिक भित्ति के पट पर यह अर्गला(सिटकनी) है। दूसरे शब्दों में, यह बाह्य-व्यवधानों को अंदर प्रवेश न देने का प्रण है। ध्यान करें कि इसी तरह हम जो भी पढ़ रहे हैं, उसका ऐसा ही कुछ शुभंकर अर्थ है।
अंत में क्षमा प्रार्थना, श्रीदुर्गा मानस पूजा, सिद्ध कुंजिकास्तोत्रम्, आरती आदि के पाठ के समय नित यह ध्यान रहे कि हमें अपनी ही आंतरिक शक्ति को जगाना है; अपने ही सत्त्व, रजस् और तमस् वाली त्रिगुणात्मक प्रकृति पर विजय पाना है, किसी बाहरी व्यक्ति या वस्तु पर नहीं।
अगर हम ऐसा कर सके, तो हमारी यह शक्ति नित्या (“जो नित्य हो, विनष्ट न हो), सत्या (सत्यरूपा) और शिवा (सर्वसिद्धिदात्री) हो जाएगी। हम पुलकित भाव से अपनी साधना को फलीभूत होते देख सकेंगे और हमारा सर्वविध अभ्युदय हो सकेगा।
शब्द-साधकों के लिए मंत्र है–
ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषां यशांसि न च सीदति धर्मवर्ग:।
धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा
येषां सदाभ्युदयदा भगवती प्रसन्ना।।
एक और विचारणीय बिंदु है कि विजयादशमी ‘दुर्गापूजा’ भी है और ‘दशहरा’ भी। स्मर्तव्य है कि दुर्गापूजा के रूप में यह आदि-शक्ति की महती आसुरी-शक्ति (महिषासुर) पर विजय का उल्लास है। इसी तरह, दशहरा के रूप में यह ‘जिसमें मन रमे’–उस राम की ‘गर्जना करने वाले’(रावण) पर विजय का उत्सव है।यहाँ ठहरकर सोचें कि आपने इन नौ दिनों में क्या किया? क्या दशहरा का अर्थ 10 मनोरोगों या पापों पर विजय नहीं है? मनोवैज्ञानिक रूप से DSM-05 भी 10 रोगों की बात करता है तो वेद-उपनिषद् से लेकर मनु-स्मृति तक में 10 विकारों की चर्चा है। समीचीन है कि अंदर उठने वाले इन 10 विकारों के राव:(रु मूल), रौरव, शोर या ‘गर्जन’ को भाषा-वैज्ञानिक आधार ‘रावण’ समझा जाए। यह भी समझना चाहिए कि भाषा-वैज्ञानिक आधार पर तो रावण का अर्थ ही है– जो रौरव या शोर करे, जो लोगों का पीडन (पीड़न न लिखें) अथवा उत्पीडन करे। कह सकते हैं कि रावण वह है, जो लोगों को रुलाए।
हम जानते हैं कि रावण की हार हुई। यह हार तो हर रावण की होगी और हर युग में होगी; क्योंकि दूसरी ओर राम हैं। राम तो ‘रमन्ति रामः’ हैं। विचारणीय है कि एक तरफ़ ‘रौरव वाला रावण’ हो और दूसरी तरफ़ ‘रमण वाले राम’ तो अन्ततः जय राम की ही होगी।
राम-रावण संग्राम को बाह्य-शोर (रावण)और ‘भगवत्ता में रमने की इच्छा-शक्ति’ (राम) के द्वंद्व के रूप में भी देखा जा सकता है। वस्तुतः, यह केवल बुराई के प्रतीक के रूप में रावण के किसी स्थूल पुतले में आग लगाकर उत्सव मना लेने से अच्छा है। अंदर के रावण का वध हो, यह काम्य हो।
द्रष्टव्य है कि आज के परिप्रेक्ष्य में काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, हिंसा, स्तेय (चोरी), अनृत(झूठ), व्यभिचार और अहं रूपी 10 विकारों को ही ‘दशानन’ मानना चाहिए; जिसे ज्ञान और साधना से समूल नष्ट करने को उद्यम हो। यदि इन पर विजय हो गई हो, तभी आपके लिए विजय की दशमी (विजयादशमी) सिद्ध हुई। ”राम की रावण पर’ या ‘दुर्गा की महिषासुर पर’ विजय की गाथा से आप प्रेरणा लें, यही श्रेयस्कर है। साधक के लिए तो ‘दस विकारों का हरण’ ही दशहरा या विजयदशमी है। राम, रावण, दुर्गा, महिषासुर, दशहरा, आदि शब्दों के मूलार्थ से तो यही व्यंजित हो रहा है।