विजयादशमी पर आयुध पूजा का विधान भारतीय परंपरा

विजयादशमी पर आयुध पूजा का विधान भारतीय परंपरा

डॉ. भारत भूषण ओझा

विजयादशमी पर आयुध पूजा का विधान भारतीय परंपराविजयादशमी पर आयुध पूजा का विधान भारतीय परंपरा

दशहरा यानी विजयादशमी का पर्व अधर्म पर धर्म की जीत का पर्व है। विजयादशमी पर कथा के अनुसार  महिषासुर नाम का एक बड़ा शक्तिशाली राक्षस था। उसने अमर होने के लिए ब्रह्मा की कठोर तपस्या की। ब्रह्माजी ने उसकी तपस्‍या से खुश होकर उससे वरदान मांगने के लिए कहा। मह‍िषासुर ने अमर होने का वरदान मांगा। इस पर ब्रह्माजी ने उससे कहा कि जो इस संसार में पैदा हुआ है उसकी मृत्‍यु निश्चित है इसलिए जीवन और मृत्यु को छोड़कर जो चाहे मांग सकते हो। ब्रह्मा की बातें सुनकर महिषासुर ने कहा कि फिर उसे ऐसा वरदान चाहिए कि उसकी मृत्‍यु देवता और मनुष्‍य के बजाए किसी स्‍त्री के हाथों हो। ब्रह्माजी से ऐसा वरदान पाकर महिषासुर राक्षसों का राजा बन गया और उसने देवताओं पर आक्रमण कर दिया। देवता युद्ध हार गए और देवलोक पर महिषासुर का राज हो गया।

महिषासुर से रक्षा करने के लिए सभी देवताओं ने भगवान विष्णु के साथ आदि शक्ति की आराधना की। इस दौरान सभी देवताओं के शरीर से एक दिव्य प्रकाश निकला, जिसने देवी दुर्गा का रूप धारण कर लिया। शस्‍त्रों से सुसज्जित मां दुर्गा ने महिषासुर से नौ दिनों तक भीषण युद्ध करने के बाद 10वें दिन उसका वध कर दिया। इसलिए इस दिन को विजयादशमी के रूप में मनाया जाता है। महिषासुर का नाश करने के कारण दुर्गा मां महिषासुरमर्दिनी नाम से प्रसिद्ध हो गईं।

दूसरी कथा के अनुसार भगवान श्री राम ने लगातार नौ दिनों तक लंका में रहकर रावण से युद्ध किया। फिर दशमी के दिन उस का वध कर दिया। तब से इस दिन को अधर्म पर धर्म की विजय के प्रतीक स्वरूप मनाया जाता है। दशहरा वाले दिन देश भर में अस्त्र-शस्त्र की पूजा का विधान है। मान्यता है कि इस दिन जो भी काम किया जाता है उसका शुभ फल अवश्य प्राप्त होता है। वहीं यह भी माना जाता है कि शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए इस दिन शस्त्र पूजा अवश्य की जानी चाहिए। सनातन परंपरा में शास्त्र और स्वयं की रक्षा के लिए धर्मसम्मत तरीके से शस्त्रों का प्रयोग होता रहा है। सनातन धर्म के सभी देवी देवता शस्त्र धारण करते हैं।

युद्ध कला साहित्य

विज्ञान तथा कलाओं की भांति युद्ध कला तथा शस्त्राभ्यास का उद्गम भी वेद ही हैं। अग्नि पुराण का उपवेद ‘धनुर्वेद’ पूर्णतया धनुर्विद्या को समर्पित है। अग्नि पुराण में धनुर्वेद के विषय में उल्लेख किया गया है कि उस में पाँच भाग इस प्रकार थेः

1.यन्त्र-मुक्ता – अस्त्र-शस्त्र के उपकरण जैसे धनुष और बाण।

2.पाणि-मुक्ता – हाथ से फेंके जाने वाले अस्त्र जैसे कि भाला।

3.मुक्ता-मुक्ता – हाथ में पकड़ कर, किन्तु अस्त्र की तरह प्रहार करने वाले शस्त्र जैसे कि बर्छी, त्रिशूल आदि।

4.हस्त-शस्त्र – हाथ में पकड़ कर आघात करने वाले हथियार जैसे तलवार, गदा आदि।

5.बाहु-युद्ध – निशस्त्र हो कर युद्ध करना।

युद्ध कला प्रशिक्षण 

प्रथम शताब्दी में भी में युद्ध कला तथा शस्त्राभ्यास के विषयों पर संस्कृत में कई ग्रंथ लिखे गये थे। आठवीं शताब्दी के उद्योत्ना कृत ग्रंथ ‘कुव्वालय-माला’ में कई कई युद्ध क्रीड़ाओं का उल्लेख किया गया है, जिनमें धनुर्विद्या, तलवार, खंजर, छड़ियों, भालों तथा मुक्कों के प्रयोग से प्रशिक्षण दिया जाता था। शिक्षार्थियों की दक्षता आँकने के लिये प्रतिस्पर्धायें आयोजित की जाती थीं। रामायण में राम जी द्वारा शिव धनुष उठा कर अपनी शारीरिक क्षमता का प्रमाण देने का वृतान्त सर्वविदित है। महाभारत में भी उल्लेख मिलते हैं, जब गुरु द्रोणाचार्य ने कौरव पाँडव राजकुमारों के लिये प्रतिस्पर्धायें आयोजित कीं थीं। सभी राजकुमारों को एक मिट्टी के बने पक्षी की आँख पर लक्ष्य साधना था, जिसमें केवल अर्जुन ही सफल हुए थे। इसी प्रकार अर्जुन ने द्रौपदी के स्वयंवर के समय नीचे रखे तेल के कढ़ाहे में देख कर ऊपर घूमती हुई मछली की आँख को बींध दिया था। एक अन्य महाभारतकालीन उल्लेख में निशस्त्र युद्ध कला का वर्णन है, जिसमें दो प्रतिद्वन्दी मुक्कों, लातों, उंगलियों तथा अपने शीश के आघातों से परस्पर युद्ध करते हैं।

निशस्त्र युद्धाभ्यास  – बाहु-युद्ध 

सुश्रुत लिखित सुश्रुत संहिता में मानव शरीर के 107 स्थलों का उल्लेख है, जिनमें से 49 अंग अति संवेदनशील बताये गये हैं। यदि उन पर घूंसे या किसी अन्य वस्तु से आघात किया जाये तो मृत्यु हो सकती है। भारतीय शस्त्राभ्यास के समय उन स्थलों पर आघात करना तथा अपने आप को आघात से कैसे बचाना चाहिये सिखाया जाता था। पल्लवराज नरसिंह्म वर्मन ने पत्थर की कई प्रतिमायें लगवायी थीं, जिन को निशस्त्र अभ्यास करते समय अपने प्रतिद्वंद्वी को निष्क्रिय करते दर्शाया गया था।

युद्ध क्रीड़ा 

कुश्ती को मल-युद्ध कहा जाता था। हनुमान, भीम, और भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलराम इस कला में निपुण थे। आज भी भारतीय खिलाड़ी उन्हीं में से किसी एक को अपना आराध्य मान कर अभ्यास करते हैं।

प्रथम शताब्दी की बुद्ध धर्म की कृति ‘लोटस-सूत्र’ में भी मुक्केबाज़ी, मुष्टिका प्रहार, अंगों को जकड़ना तथा उठा कर फेंकने आदि के अभ्यासों का उल्लेख मिलता है।   

तीसरी शताब्दी में पतंजलि योग सूत्र के कुछ अंश, तथा नट नृत्य कला की मुद्रायें भी युद्ध क्रीड़ाओं सें शामिल की गयी थीं।

प्राचीनकाल से कलारिप्पयात, वज्र-मुष्ठि तथा गतका आदि कलायें युद्ध प्रशिक्षण का अंग रही हैं।

कलारिप्पयात  

कलारिप्पयात विश्व का सर्वप्रथम युद्ध अभ्यास है। इसकी शुरुआत केरल के चौला राजाओं के काल से हुई। यह अति उग्र और भयानक कलाभ्यास है, जिसमें लात, घूंसों के आघातों से क्रमशः निरन्तर कठिन और उग्र शस्त्रों का प्रयोग भी किया जाता है। इस में खंजर, तलवार, भाले सभी कुछ प्रयोग किये जाते हैं तथा उनके अतिरिक्त एक अन्य भयानक शस्त्र धातु में बना हुआ चाबुक भी प्रयोग में आता है। खंजर तीन धार वाले तथा अत्यन्त तीखे होते हैं। आघात मर्म स्थलों पर और वध करने की धारणा से किये जाते हैं। कलारिप्पयात  का मुख्य हथियार एक लचीली दो धारी तलवार होती है, जिसे प्रतिस्पर्धी अपनी कमर पर लपेट कर रखते हैं। युद्ध के समय इसे हाथ में गोलाकार स्थिति में पकड़ कर रखा जाता है और फिर अचानक प्रतिद्वंदी पर आघात किया जाता है। सावधान ना रहने की अवस्था में प्रतिस्पर्धी की मृत्यु निश्चित है। यह विश्व भर में एक अनूठा शस्त्र है। इस कला का अभ्यास कड़े नियमों तथा कुशल गुरु के सानिध्य में किया जाता है। 

इस कला के शिक्षार्थी शिव और शक्ति को अपना आराध्य मानते हैं।

बुद्ध धर्म के साथ साथ कलारिप्पयात का प्रसार दूरगामी पूर्वी देशों में भी हुआ। बुद्ध प्रचारक दूरगामी देशों की यात्रा करते थे, इसलिये दूसरे धर्म के हिंसक विरोधियों से अपनी सुरक्षा के लिये वह इस कला का प्रयोग भी सीखते थे। इसका प्रयोग केवल प्रतिरक्षा के लिये ही होता था। अतः कलारिप्पयात कला बुद्ध धर्म की अहिंसा की नीति के अनुकूल थी।

वज्रमुष्टि 

वज्रमुष्टि का अर्थ है इन्द्र के वज्र का समान मुष्टिका से प्रहार करना। क्षत्रियों को युद्ध में कई बार अपने वाहन और शस्त्रों के खो जाने के कारण निशस्त्र हो कर पैदल भी युद्ध करना पड़ता था। यद्यपि युद्ध के नियमानुसार निशस्त्र पर प्रहार करना नियम विरुद्ध था तथापि नियम का उल्लंघन करने वाले भी सभी जगह होते हैं। अतः कुटिल शत्रुओं से युद्ध की स्थिति में क्षत्रिय मल युद्ध तथा मुष्टिका प्रहारों से अपना बचाव करते थे। आघात तथा बचाव के विधान परम्परा गत पीढ़ी दर पीढ़ी सिखाये जाते थे।

वज्र मुष्टि का अभ्यास शान्ति काल में सीखा जाता था और सभी प्रकार के आक्रमण तथा बचाव के गुर सिखाये जाते थे। संस्कृत में उन्हें संस्कृत नट कहा जाता है। नट को जाग्रत करने की आध्यात्मिक  कला  कठिन परिश्रम, अनुशासन नियमों के पालन तथा एकाग्रता की साधना के पश्चात ही सम्भव थी। मुस्लिमों के आगमन और अधिकरण के पश्चात इस कला के विशेषज्ञ मार दिये गये और यह समाप्त हो गयी। 1804 ईसवी में अँग्रेज़ों ने इस पर पूर्णतया प्रतिबन्ध लगा दिया। 

गतका

गतका पंजाब का युद्ध कौशल है। यह दो अथवा चार टोलियों में खेला जाता है। प्रतिस्पर्धियों के पास बेंत, तलवार या खड्ग (खाँडा) आदि हथियार होते हैं तथा गोलाकार ढाल भी होता है। इस को यूरोपीय तलवारबाज़ी की तरह ही खेला जाता है और इस कला में पंजाब के निहंग समुदाय की गतका बाजी अति लोकप्रिय प्रदर्शन है।

भारतीय युद्ध कलाओं का निर्यात

भारत के युद्ध कौशल क्रीड़ाएं जैसे कि जूडो, सुम्मो मलयुद्ध बुद्ध प्रचारकों के साथ साथ चीन, जापान तथा अन्य पूर्वी देशों में प्रचलित हुईं। 

जापान की युद्ध कला सुमराई में भी कई विशेषतायें भारतीय संस्कृति से परिवर्तित हुईं, जैसे कि तलवारों की पवित्रता, वीरगति की लालसा तथा अपने स्वामी के लिये प्राणों का बलिदान करने की भावना, मानव का प्राणायाम के माध्यम से पांच महाभूतों के साथ एकाकार करना आदि मानसिक्तायें भारत की उपज हैं। यदि मन और शरीर में एकाग्रता है तो शरीर की क्षमतायें असीमित हो जाती हैं। इस सिद्धान्त को आधार मान कर बुद्ध धर्म के एक प्रचारक बौधिधर्म ने शाओलिन मन्दिर का निर्माण चीन में किया था जहां से युद्ध कलाओं की इस परम्परा की शुरुआत हुई।

दक्षिणी राज्यों में होती है शस्त्र पूजा

आयुध पूजा या शस्त्र पूजा नवरात्रि का एक अभिन्न अंग है। भारत में नवरात्रि के अंतिम दिन अस्त्र-शस्त्र पूजन की परंपरा सदियों से चली आ रही है। इस दिन उन चीजों की भी पूजा होती है, जिनसे व्यक्ति बुद्धि और समृद्धि प्राप्त करता है। हथियार, पुस्तकें, गाड़ियां, घरेलू उपकरण आदि की पूजा प्राचीन काल से होती आ रही है। तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में इसे आयुध पूजा के नाम से जाना जाता है। इसके अलावा यह त्योहार केरल, ओडिशा, कर्नाटक में मनाया जाता है। महाराष्ट्र में आयुध पूजा को खंडे नवमी के रूप में मनाया जाता है।

शिवाजी और राजा विक्रमादित्य करते थे शस्त्र पूजा

भारत की सभ्यता और संस्कृति शांति का संदेश देने वाली रही है, लेकिन जब-जब युद्ध की नौबत आई तो वीरता और शौर्य के उदाहरण से भी हमारा धर्म और इतिहास भरा पड़ा है। कहा जाता है कि कभी युद्ध अनिवार्य हो जाए तो शत्रु के आक्रमण की प्रतीक्षा करने के बजाए उस पर हमला करना कुशल रणनीति है। इसी के अंतर्गत भगवान राम ने भी विजयादशमी के दिन रावण से युद्ध के लिए लंका की ओर कूच किया था। मराठा रत्न शिवाजी ने अस्त्र-शस्त्र की पूजा कर इसी दिन औरंगजेब के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की थी। राजा विक्रमादित्य भी इस दिन शस्त्रों की पूजा किया करते थे।

भारतीय सेना भी हर साल दशहरे के दिन शस्त्र पूजा करती है। इस पूजा में सबसे पहले मां दुर्गा की दोनों योगिनियां जया और विजया की पूजा होती है फिर अस्त्र-शस्त्रों को पूजा जाता है। इस पूजा गंगा का उद्देश्य सीमा की सुरक्षा में देवी का आशीर्वाद प्राप्त करना है। मान्यताओं के अनुसार रामायण काल से ही शस्त्र पूजा की परंपरा चली आ रही है।

कारीगर करते हैं अपने उपकरणों की पूजा

ऐतिहासिक रूप से आयुध पूजा हथियारों की पूजा करने के लिए थी, लेकिन इसके वर्तमान स्वरूप में सभी प्रकार की मशीनों की पूजा एक ही दिन की जाती है। दक्षिण भारत में यह एक ऐसा दिन है, जब शिल्पकार या कारीगर भारत के अन्य हिस्सों में विश्वकर्मा पूजा के समान अपने अन्य उपकरणों की पूजा करते हैं, क्योंकि इनका हमारे जीवन में बहुत महत्व है। यही कारण है कि शस्त्र पूजा के दिन छोटी-छोटी चीजें जैसे पिन, सुई, चाकू, कैंची, हथौड़ा ही नहीं, बल्कि बड़ी मशीनों, गाड़ियों, बसों आदि को भी पूजा जाता है।

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