स्वाधीनता के बाद सरकार ने विक्रम संवत के बजाय अपनाया शक संवत
डॉ. बालू दान बारहठ
स्वाधीनता के बाद सरकार ने विक्रम संवत के बजाय अपनाया शक संवत
किसी भी देश के लिए समय की गणना एक लंबा इतिहास लिए होती है, जिसके अनेक सांस्कृतिक, राजनीतिक व नैतिक आयाम होते हैं। यह किसी राष्ट्र के गौरवशाली इतिहास, उसके वैभव, उसकी राजनीतिक उपलब्धियों व सामरिक विजयों के साथ साथ वैज्ञानिक व खगोलीय प्रगति का प्रतीक भी होती है। लेकिन दुर्भाग्य से इतिहास की हेराफेरी द्वारा भारत एक ऐसी कालगणना का कैदी हो गया है, जिसका अपने इतिहास से कोई वास्ता नहीं। हम सब जानते हैं कि भारत की अपनी वैज्ञानिक कालगणना रही है, जिसे संवत के रूप में परिभाषित किया गया है। सृष्टि संवत, ऋषि संवत, ब्रह्मा संवत, युधिष्ठिर संवत आदि संवत के रूप में अनेक कैलेंडर प्रचलित रहे हैं। तत्पश्चात विक्रम संवत तथा शालीवाहन या शक संवत प्रचलन में आए। इसे 78वीं ईसवी में आरम्भ किया गया था।
गुप्त वंश के काल को भारत का स्वर्णिम काल माना जाता है। इस यशस्वी कालखंड में चंद्रगुप्त नाम से एक राजा हुए थे, जिन्होंने विक्रमादित्य की उपाधि धारण कर चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नाम से ख्याति प्राप्त की थी। राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने ईसवी सन् से 57 वर्ष पूर्व शकों पर ऐतिहासिक विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में विक्रम संवत आरम्भ किया था, जो कालगणना की दृष्टि से सटीक भी है, वैज्ञानिक भी है और आक्रांता शकों पर विजय के रूप में राष्ट्रीय गौरव की घटना से भी जुड़ा है। दूसरी ओर आज पूरे विश्व में मानक के रूप में स्थापित होने पर भी ईसवी सन् न वैज्ञानिक है, न प्रमाणिक और न ही प्रकृति अनुरूप है। इसका आरंभ रोम से हुआ था, जहां इसमें पहले दस महीने ही हुआ करते थे। बाद में सीजर जूलियस तथा सीजर ऑगस्टस के नाम पर दो महीने जोड़े गए व लंबे समय तक यह जूलियस कैलेंडर के रूप में जाना जाता रहा।1532 में पॉप ग्रेगरी ने इसमें कुछ संशोधन किए, तब से इसे ग्रेगोरियन कैलेंडर के रूप में जाना जाता है।स्पष्ट ही है कि ईसवी सन् का भारत के इतिहास से कोई सन्दर्भ नहीं है। लेकिन आज इस तथाकथित नववर्ष का ऐसा कोलाहल है कि उस पर प्रश्न उठाना स्वयं को प्रश्नों के घेरे में खड़ा करने के सदृश्य है। लेकिन हास्यास्पद तो यह है कि आज भारत के स्व व गौरव के आधार पर शुरू हुए संवत (विक्रम संवत) को साम्प्रदायिक व रिलीजियस घटना पर शुरू हुए कैलेंडर (ईसवी सन्) को सेक्युलरिज्म का पैमाना बना दिया गया है।
वास्तव में यूरोप अपने मूल स्वरूप में ही रिलिजन केंद्रित रहा है।उसका राजनीतिक, दार्शनिक चिंतन भी ईसाइयत आधारित ही है। जिस थॉमस हाब्स को वैज्ञानिकता का पिता कहा जाता है उसकी पुस्तक “लेवियाथन” में 657 बार बाइबल का उल्लेख है।दरअसल सेक्युलरिज्म की समूची अवधारणा ही उन्हीं समाजों हेतु प्रासंगिक है, जहां रिलिजन इतिहास केंद्रित, राजनीतिक रूप से स्थापित, विस्तारवादी व विज्ञान के साथ तनावयुक्त हो। हमारे यहाँ किसी गेलीलियो या कोपरनिकस को जिंदा नहीं जलना पड़ा। पाश्चात्य सेक्युलरिज्म हमारे सन्दर्भ में बहुत शुष्क, बोझिल व महत्वहीन है।
बहरहाल हम राजनीतिक रूप से दोनों अब्राहिम मतों के अधीन रहे।इस्लाम अधिक समय, अधिक हिंसक व वीभत्स रहा, परन्तु ईसाइयत तीक्ष्ण, सूक्ष्म व बहुआयामी प्रभाव वाली सिद्ध हुई।अपनी राजनीतिक शक्ति के द्वारा उसने विभिन्न गैर पश्चिमी सभ्यताओं की बौद्धिक व सांस्कृतिक सम्पतियों को हड़पा है, उनमें हीनताबोध को पैदा कर विश्व का सफल “मैकडॉनल्डीकरण” किया है। यही कारण है कि आज अपने नववर्ष जैसे रिलीजियस आयोजन को ईसाई सभ्यता “वैश्विक उत्सव” के रूप में स्थापित करने में सफल रही है जबकि हम अपनी कालगणना को वैज्ञानिक और तार्किक होते हुए भी अपनी पीढ़ी को ठीक से अवगत नहीं करवा पाए। सही अर्थों में तो यह एक सांस्कृतिक नरसंहार ही है। दुर्भाग्य यह भी रहा कि स्वाधीन भारत ने भी अपने राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में विक्रम संवत को स्वीकार नहीं किया। वास्तव में तो यह भी औपनिवेशिक मानसिकता का एक प्रमाण ही है कि ईसवी कैलेंडर के पश्चात आरम्भ हुए संवत को ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुकूल बनाकर उसको राष्ट्रीय कैलेंडर बनाया गया ताकि उनकी प्राचीनता, प्रमाणिकता तथा सर्वोच्चता बनी रहे जबकि राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में विक्रम संवत को स्वीकार करना चाहिए था, जो ईसवी कैलेंडर से अधिक प्राचीन ही नहीं अपितु प्रमाणिक, वैज्ञानिक व प्रकृति अनुकूल है। रोचक यह भी है कि संविधान को अंगीकार करने की तिथि के रूप में डॉ. आंबेडकर द्वारा विक्रम संवत (मिती मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी संवत 2006 विक्रमी) को स्वीकार किया, लेकिन 1957 में सरकार ने शक संवत को राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में स्वीकार कर लिया और यह सब इतनी धीमी गति से हुआ कि हमें पता ही नहीं चला।