घृणा से सराबोर मजहबी उन्मादी

घृणा से सराबोर मजहबी उन्मादी

बलबीर पुंज

घृणा से सराबोर मजहबी उन्मादीघृणा से सराबोर मजहबी उन्मादी

बीते दिनों विश्व के अलग-अलग कोने से कई हिंसक घटनाएं सामने आईं। मैं बिना किसी टिप्पणी के इन्हें सुधी पाठकों के साथ साझा कर रहा हूं। अब वे स्वयं निष्कर्ष निकालें कि आखिर क्यों 21वीं सदी में भी मजहब के नाम पर हिंसा होती है? इसके पीछे की मानसिकता क्या है? क्या यह कभी समाप्त हो सकती है? यदि हां, तो कैसे?

अमेरिका के न्यू ऑरलियन्स स्थित बोरबान स्ट्रीट्स में नए वर्ष का जश्न मना रहे लोगों पर एक जनवरी को तड़के 3.15 बजे शम्सुद्दीन जब्बार ने ट्रक चढ़ा दिया। इसमें कुल 15 लोगों की मौत हो गई, जबकि 35 से अधिक लोग घायल हो गए। मासूमों की जान लेने वाले शम्सुद्दीन को पुलिस ने मुठभेड़ के दौरान मार गिराया। बोरबान स्ट्रीट शहर के फ्रेंच क्वार्टर में ऐतिहासिक पर्यटन स्थल है, जहां उसके संगीत एवं बार के कारण काफी भीड़ जुटती है। नरसंहार करने पर आमादा शम्सुद्दीन ने भीड़ की ओर अपना वाहन मोड़ दिया और लोगों को रौंदते हुए निकल गया।

बकौल अमेरिकी मीडिया, आतंकवादी शम्सुद्दीन जब्बार स्टाफ सार्जेंट के तौर पर अमेरिकी सेना में सेवा भी दे चुका है। वह वर्ष 2007-15 में अफगानिस्तान में तैनात था और उसे सेना में साहसिक कार्यों के लिए मान-सम्मान भी मिला था। वह आईटी विशेषज्ञ भी था। हमले से पहले अपने द्वारा जारी एक वीडियो में जब्बार, आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट (आईएस) के प्रति निष्ठा व्यक्त कर रहा था। हमले में शामिल वाहन से जांचकर्ताओं को आईएस का झंडा भी मिला है। अमेरिकी मीडिया द्वारा एक वीडियो जारी किया गया है, जिसमें जब्बार के घर में विस्फोटकों को इकट्ठा करने के लिए एक वर्कबेंच दिख रही है। उसका घर रासायनिक अवशेषों और बोतलों से भरा हुआ है। इसी वीडियो में अलमारी के ऊपर एक खुली हुई कुरान भी दिखाई दी, जिसमें लिखा था, “…वे अल्लाह के लिए लड़ते हैं, और मारते हैं और खुद मारे जाते हैं…।“

बात केवल अमेरिका या नववर्ष तक सीमित नहीं है। जर्मनी के मैगडेबर्ग में बीते 21 दिसंबर को क्रिसमस की खरीदारी कर रहे लोगों को एक सऊदी डॉक्टर ने जानबूझकर अपनी बीएमडब्ल्यू कार से कुचल दिया। इस हमले में एक बच्चा सहित पांच लोगों की मौत हो गई, 200 अन्य घायल हो गए। वह तेज गति से 400 मीटर तक कार दौड़ाता चला गया। हमलावर की पहचान 50 वर्षीय डॉक्टर तालेब अब्दुल जवाद के रूप में हुई है, जिसे गिरफ्तार किया जा चुका है। ब्रितानी समाचार पत्र ‘द गार्जियन’ के अनुसार, हमलावर तालेब 2006 से जर्मनी में रह रहा था, उसे 2016 में शरणार्थी का दर्जा दिया गया था। रिपोर्ट के अनुसार, तालेब पर सऊदी अरब में आतंकवाद फैलाने और मध्यपूर्व से यूरोपीय देशों में लड़कियों की तस्करी करने जैसे गंभीर आरोप लगे हैं। नैरेटिव बनाया जा रहा है कि तालेब ‘इस्लाम विरोधी’ विचार रखता था। परंतु इस्लाम छोड़ चुके लोगों के एक समूह का कहना है कि तालेब घोषित इस्लामी लक्ष्यों की पूर्ति हेतु ‘तकियाह’ अवधारणा का उपयोग कर रहा है, जिसमें मजहबी फर्ज पूरा करने के लिए छल-कपट की छूट है।

आईएस ने सोमालिया के उत्तरपूर्वी क्षेत्र पुंटलैंड में एक सैन्य अड्डे पर हमले की भी जिम्मेदारी ली है, जिसमें 22 सैनिकों की मौत हो गई। युगांडा में आईएस से जुड़े विद्रोही समूह ने भी कई हिंसक हमले किए। मार्च 2024 में आईएस के एक रूसी कॉन्सर्ट हॉल पर किए हमले में 143 लोग, तो जनवरी 2024 में ईरानी शहर केरमान में हुए दो विस्फोटों में लगभग 100 लोग मारे गए थे। बीते वर्ष ओमान की एक मस्जिद पर आत्मघाती हमले में नौ लोग मारे गए थे। इन हालिया घटनाओं से पहले कई यूरोपीय नगर— लंदन, मैनचेस्टर, पेरिस, नीस, स्टॉकहोम, ब्रुसेल, हैमबर्ग, बार्सिलोना, बर्लिन, ऐम्स्टर्डैम, हनोवर आदि में भी आतंकवादी हमले हो चुके हैं, जिन्हें स्थानीय मुस्लिम शरणार्थियों ने ही अंजाम दिया था। दो वर्ष पहले ब्रिटेन के लेस्टर-बर्मिंघम में हिंदुओं के घरों-मंदिरों पर स्थानीय मुस्लिम समूह द्वारा योजनाबद्ध हमला हुआ था। यूरोपीय देश स्वीडन बीते कई वर्षों से इसी प्रकार के कई मजहबी हिंसा का शिकार हो रहा है। फ्रांसीसी थिंकटैंक ‘फोंडापोल’ के एक शोध के अनुसार, “वर्ष 1979 से अप्रैल 2024 के बीच, दुनियाभर में 66,872 इस्लामी हमले दर्ज हुए, जिसमें कम से कम 2,49,941 लोगों की मौत हो गई।

ब्रिटेन का ‘रॉदरहैम स्कैंडल’ भी दुनियाभर में फिर से सुर्खियों में है, जिसे ‘ग्रूमिंग गैंग स्कैंडल’ के नाम से जाना जाता है। रॉदरहैम, कॉर्नवाल, डर्बीशायर समेत कई ब्रितानी शहरों में वर्ष 1997 से 2013 के बीच अनेक नाबालिग बच्चियों (अधिकांश श्वेत) का संगठित अपराध के अंतर्गत यौन-शोषण किया गया था। एक जांच रिपोर्ट के अनुसार, पीड़ितों की संख्या 1500 से अधिक है। इन मामलों में जारी अदालती सुनवाई में जिन्हें अब तक दोषी ठहराया गया है या फिर जिन पर आरोप लगा है, उनमें 80 प्रतिशत से अधिक लोग मुस्लिम हैं। इन सबकी औसत आयु 30-40 वर्ष है।

आखिर इस प्रकार के मामले सामने क्यों आते हैं? बहुत से लोगों का मानना है कि यदि मुस्लिम समाज को आधुनिक शिक्षा से जोड़ा जाए, तो इसे रोका जा सकता है। अमेरिका के न्यू ऑरलियन्स में आतंकवादी घटना को अंजाम देने वाला शम्सुद्दीन जब्बार पढ़ा-लिखा, आईटी विशेषज्ञ और अमेरिकी सेना में अधिकारी था। अमेरिकी व्यवस्था द्वारा उसके साथ किसी भी अन्याय की कोई जानकारी नहीं है। भयावह 9/11 आतंकवादी हमला (न्यूयॉर्क, 2001) करने वाले भी आधुनिक विषयों में पारंगत थे। भारत सहित शेष विश्व में इस तरह के उच्च-शिक्षित (डॉक्टर-प्रोफेसर सहित) आतंकवादियों की एक लंबी सूची है। ब्रिटेन में ‘ग्रूमिंग गैंग’, जिसके अधिकांश सदस्य एशियाई मूल के मुस्लिम हैं— वे अन्य किसी यूरोपीय देश की भांति ब्रिटेन में शरणार्थी के रूप में पनाह लिए हुए हैं। भारत में भी मजहब के नाम पर हिंसक घटनाएं सामने आती रहती हैं। इसके लिए अक्सर हिंदूवादी संगठनों को एकाएक कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। ‘लव-जिहाद’ को भी “काल्पनिक” बताया जाता है। यदि ऐसा है, तो अमेरिका और यूरोपीय देशों के मामलों के लिए कौन जिम्मेदार है? सच तो यह है कि ऐसी घटनाएं तब तक होती रहेंगी, जब तक इसके पीछे की जहरीली मानसिकता को चिन्हित करके निपटा न जाए।

(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)

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