बेनकाब होते पश्चिम के दोहरे मानदंड
बलवीर पुंज
बेनकाब होते पश्चिम के दोहरे मानदंड
जिसका डर था, आखिर वही हुआ। अमेरिका और यूरोप के कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में फिलीस्तीन के समर्थन में प्रारंभ हुआ आंदोलन, यहूदियों-इजराइल के प्रति घृणा में परिवर्तित हो गया। ‘हम हमास हैं’ और ‘हमास जिंदाबाद’ जैसे घृणा युक्त नारों के साथ इजराइल पर फिर से नृशंस जिहादी हमलों को दोहराने की कामना की जा रही है। इस संदर्भ में अमेरिकी संसद ने अपने देश में यहूदी-विरोधी परिभाषा के विस्तार हेतु विधेयक पारित किया है। शेष विश्व के साथ भारत भी इस घटनाक्रम को ध्यानपूर्वक देख रहा है। भारत और अमेरिका— दोनों ही लोकतांत्रिक देश हैं, जिनमें कई समानताएं और विरोधाभास हैं।
बहुत से प्रदर्शन-आंदोलन ऐसे होते हैं, जिनका वास्तविक एजेंडा उनके तत्कालीन स्वरूप से भिन्न होता है। अमेरिका में इजराइल-हमास युद्ध के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं, वे एकाएक आतंकी संगठन हमास के प्रति हमदर्दी, फिर यहूदियों के खिलाफ घृणा में बदल गए। भारत में वर्ष 2019-20 के दौरान ‘नागरिकता संशोधन कानून’ (सीएए) विरोधी प्रदर्शनों में क्या हुआ था? क्या यह सत्य नहीं कि तब सीएए के विरुद्ध कई प्रदर्शनकारियों ने मजहबी नारा बुलंद करके हिंदुओं के घरों-दुकानों को निशाना बनाया था और ‘हिंदुओं/हिंदुत्व से आजादी’ जैसे भड़काऊ नारे लगाए थे? जब वर्ष 2020-21 में कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ किसानों के एक वर्ग ने आंदोलन शुरू किया, तब कालांतर में वायरल हुई कई वीडियो में खालिस्तान समर्थकों द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की भांति मौत के घाट उतारने की धमकियां दी जा रही थीं।
जिस तरह किसान आंदोलन और सीएए-विरोधी प्रदर्शनों को विपक्षी दलों के प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन से राष्ट्रविरोधी शक्तियों ने ‘हड़प’ लिया था, ठीक उसी प्रकार अमेरिका में भी न्यूयॉर्क के महापौर एरिक एडम्स, पुलिस-प्रशासन और कई विश्वविद्यालयों ने छात्रों के प्रदर्शन में बाहरी लोगों के शामिल होने की पुष्टि की है। जिन व्यक्तियों-समूहों पर भारत में 100 दिन से अधिक चले सीएए-विरोधी प्रदर्शन (शाहीन-बाग सहित) और सालभर तक खींचे किसान आंदोलन के वित्तपोषण का आरोप लगा था, लगभग उन्हीं लोगों की भूमिका अमेरिकी विश्वविद्यालय में इजराइल-यहूदियों के खिलाफ छात्रों को भड़काने में सामने आ रही है। इसमें सबसे प्रमुख नाम— अमेरिकी धनाढ्य जॉर्ज सोरोस है, जो प्रधानमंत्री मोदी के प्रति भी अपनी घृणा खुलकर व्यक्त कर चुका है।
अमेरिकी मीडिया की मानें तो, छात्रों को जिस ‘स्टूडेंट फॉर जस्टिस इन फिलिस्तीन’ का समर्थन मिल रहा है, वह सोरोस की कई संस्थाओं द्वारा वित्तपोषित है। यहूदी विरोधी आंदोलन को उन कट्टरपंथी शोध-छात्रों द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है, जिन्हें सोरोस द्वारा धनपोषित ‘यूएस कैंपेन फॉर फिलिस्तीनी राइट्स’ से पैसा मिलता है। यह समूह सप्ताह में मात्र आठ घंटे फिलीस्तीन के समर्थन में प्रदर्शन करने पर छात्रों को तीन से छह लाख रुपये तक दे रहा है।
सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि भारत के हालिया सरकार-विरोधी आंदोलनों में प्रदर्शनकारियों द्वारा कई दिनों तक पिज्जा सहित अन्य पश्चिमी व्यंजन, बिरयानी आदि भोजन का आनंद लेते और रात में आराम हेतु विलासी अस्थायी आवास में ठहरने की तस्वीरें सामने आई थीं। ठीक उसी तरह अमेरिकी विश्वविद्यालयों में छात्र प्रदर्शनकारियों के लिए पिज्जा, सैंडवीच, कॉफी और चिकन के साथ प्रदर्शनस्थल पर कई दिनों तक जमे रहने के लिए एक जैसे टेंटों की व्यवस्था की गई है, जिनका एक ही स्रोत से ऑनलाइन क्रय हुआ है। स्पष्ट है कि इनके वित्तपोषण के पीछे एक ही समूह/व्यक्ति का हाथ है। इस प्रकार के परिदृश्य से भारत में वह वर्ग स्वयं को जोड़ पाएगा, जो ‘शाहीन बाग’ और ‘सिंघु सीमा’ पर महीनों चले प्रदर्शनों से प्रभावित हो चुका है।
अमेरिका में छात्र आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में वहां की संसद द्वारा पारित यहूदी-विरोधी कानूनी परिभाषा के विस्तार हेतु विधेयक महत्वपूर्ण हो जाता है। अमेरिकी मीडिया के अनुसार, इस विधेयक के कानून बनते ही वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडेन या भविष्य में किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति को यहूदी-विरोधी भावना बढ़ावा देने वाले और इजराइल पर निशाना बनाने वाले संस्थानों के वित्तपोषण और अन्य संसाधनों पर प्रतिबंध लगाने की अनुमति मिल जाएगी। कल्पना कीजिए, यदि भारत में ऐसा कोई हिंदू समर्थित कानून मोदी सरकार संसद में पारित कर दें, तो अमेरिका और यूरोपीय देश हमें सहिष्णुता-समरसता आदि विषयों पर शिक्षा देने लगेंगे। जो अमेरिकी शिक्षण संस्थान इस समय यहूदी-विरोधी अभियानों का केंद्र बने हुए हैं, उन्हीं से एक रटगर्स विश्वविद्यालय वर्ष 2021 के ‘डिस्मेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व’ (वैश्विक हिंदुत्व का खात्मा) सम्मेलन का हिस्सा भी बन चुका है।
भारत में जब सड़कों को बाधित करके सीएए विरोधी शाहीन बाग रूपी जिहादी प्रदर्शन हुआ, कृषि कानूनों के नाम पर गणतंत्र दिवस (2021) पर उन्मादी आंदोलनकारियों ने सैकड़ों ट्रैक्टरों पर तलवारों आदि धारदार हथियारों से सुरक्षा में तैनात पुलिसकर्मियों को मारने का प्रयास किया और लाल किले की प्राचीर पर मजहबी झंडा लहरा दिया— तब मोदी सरकार ने धैर्य का परिचय देते हुए त्वरित बल प्रयोग करने से परहेज किया था। उस समय अमेरिका, कनाडा सहित कई यूरोपीय देश, भारत को ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ और ‘मानवाधिकार’ आदि पर पाठ पढ़ा रहे थे। अभी सोशल मीडिया पर ऐसे कई वीडियो वायरल हैं, जिनमें अमेरिकी-यूरोपीय कानून-प्रवर्तक एजेंसियां प्रदर्शनकारी छात्रों को बर्बर तरीके से खदेड़ रहे हैं। यहां तक अमेरिका में उस महिला प्रोफेसर को भी नहीं बख्शा गया, जो पुलिसिया कार्रवाई से छात्रों को बचाने का प्रयास कर रही थी। इस पर भारतीय विदेश मंत्रालय ने 25 अप्रैल को कहा था, “प्रत्येक लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जिम्मेदारी की भावना और सार्वजनिक सुरक्षा-व्यवस्था के बीच संतुलन होना चाहिए। …हम सभी का मूल्यांकन इस बात से किया जाता है कि हम घर पर क्या करते हैं।”
वर्ष 1991 तक विश्व दो ध्रुवीय— अमेरिका और सोवियत संघ के बीच बंटा था। वामपंथ नीत सोवियत संघ के विघटन के बाद ऐसा माना जाने लगा कि विश्व में केवल एक ही ध्रुव— ‘अमेरिका’ का प्रभुत्व होगा। परंतु आज दुनिया बहु-ध्रुवीय हो चुकी है। इसमें सत्ता के कई केंद्र बन चुके हैं, जिसमें एक अत्यंत शक्तिशाली ‘राज्यहीन’, परंतु बिना उत्तरदायित्व वाला समूह है। किसी उपयुक्त संज्ञा के अभाव में इस वर्ग को ‘वोक’ (woke) कह सकते हैं। यह समूह छोटा, अति-मुखर और आक्रमक है, जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनी सरकारों को उसके उन घोषित एजेंडे को लागू करने से रोकने और व्यवस्था को पंगु करने का प्रयास करता है। वाम-फासिस्ट वैचारिक-अधिष्ठान से प्रेरित यह गिरोह, दिनदहाड़े बिना किसी अपराध-बोध के जनादेश का हरण करने में परांगत है। वे मानते हैं कि शेष समाज निर्णय लेने में असमर्थ है, इसलिए उन्हें ही उसका भला करने का दैवीय अधिकार प्राप्त है। यह गिरोह ‘शांतिपूर्ण-विरोध’ के नाम पर लंबे समय तक धरना-प्रदर्शन, हिंसक आचरण, सामान्य जीवन में व्यवधान डालने और शासन-प्रशासन को डराने-धमकाने की नीति अपनाता है। पानी सिर से ऊपर जाने पर जब सत्ता-अधिष्ठान बल प्रयोग को विवश होते हैं, तब वही कुनबा स्वयं को पीड़ित बताने/दिखाने के लिए मनगढ़ंत नैरेटिव गढ़ना शुरू कर देता है। तत्कालिक राजनीतिक लाभ के लालच में अवसरवादी दल भी इनके समर्थन में खड़े हो जाते हैं। जिस ‘टूलकिट’ का भारत में सीएए और कृषि-सुधार विरोधी प्रदर्शनों में उपयोग हुआ था, उसका अब अमेरिका शिकार है। विडंबना देखिए कि अराजकता को समाप्त करने हेतु जिन उपायों को अक्सर अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश, दमनकारी और अलोकतांत्रिक बताते हुए निंदा करते हैं, वे उनका कहीं अधिक भयंकर रूप में अपने यहां बिना किसी ग्लानि-भाव के उपयोग कर रहे हैं। क्या यह स्वयंभू लोकतांत्रिक देशों द्वारा दोहरे मापदंड अपनाने की पराकाष्ठा नहीं?
(स्तंभकार ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक के लेखक हैं)