हम जो देते हैं, वही हमारे पास लौटकर आता है
हम जो देते हैं, वही हमारे पास लौटकर आता है
हमारे जीवन में अध्यात्म का बड़ा महत्व है। जीवन एक ऐसी पहेली है, जो कभी समझ आती है और कभी नहीं। कभी कभी हमें लगता है हमने जितना किया हमें उसका उतना प्रतिफल नहीं मिला। ऐसा बार बार लगे तो हम निराशा के गर्त में गिरते जाते हैं। लेकिन इस दशा में यदि हमें अध्यात्म का सहारा मिल जाए तो सोच बदल जाती है, और फिर जीवन जीने का दृष्टिकोण भी। पिछले दिनों एक गीता सेमिनार में जाने का अवसर मिला। वहॉं गीता का श्लोक समझाते हुए वक्ता ने एक उदाहरण दिया, जो मन को कहीं छू गया।
दो दोस्त थे। वे यात्रा पर साथ निकले। भूख लगी तो एक पेड़ के नीचे भोजन करने बैठ गये। टिफिन खोल ही रहे थे कि एक तीसरा व्यक्ति वहॉं आ गया। उसने कहा मुझे भी भूख लगी है। दोनों दोस्तों ने उसका स्वागत किया और कहा आओ बैठो, हमारे पास भोजन है, जो भी है, मिल बांटकर खा लेंगे। टिफिन खोले, तो एक में तीन रोटियां निकलीं और दूसरी में पांच। अब व्यक्ति तीन और रोटियां आठ, ऐसे में निर्णय लिया गया कि सबको बराबर रोटियां मिलें इसके लिए हर रोटी के तीन टुकड़े कर लिए जाएं। अब 24 टुकड़े थे और लोग तीन। सबने प्यार से बातें करते हुए 8-8 टुकड़े खा लिए। चलते समय तीसरा व्यक्ति जो बाद में आया था, उसने उपहार स्वरूप दोनों दोस्तों को आठ स्वर्ण मुद्राएं दीं और कहा यथोचित बांट लेना। अब व्यक्ति दो और मुद्राएं आठ, इनका बंटवारा कैसे हो। एक दोस्त बोला हम 4-4 स्वर्ण मुद्राएं रख लेते हैं। तो दूसरा दोस्त बोला मैं चार क्यों लूं, मेरी तीन रोटियां थीं तो मुझे तीन लेनी चाहिए, तुम्हारी पांच रोटियां थीं तो तुम पांच रखो, अधिक लेकर मैं पाप का भागीदार क्यों बनूं? दोनों स्वयं कुछ निर्णय नहीं कर पाए तो पास ही स्थित मंदिर के पुजारी के पास पहुंचे और उनसे निर्णय करने को कहा। पंडित जी ने ध्यान लगाया और निर्णय दिया कि जिसकी तीन रोटियां थीं वह एक स्वर्ण मुद्रा रखे और जिसकी पांच रोटियां थीं उसे सात स्वर्ण मुद्राएं मिलनी चाहिए। ऐसा कैसे…? दोनों दोस्त एक दूसरे की ओर अचरज से देखने लगे। तब पंडित जी ने समझाया, जिसकी तीन रोटियां थीं, उसने नौ टुकड़े किए, आठ स्वयं खाए और सिर्फ एक टुकड़ा शेयर किया। दूसरे दोस्त से कहा आपके पास पांच रोटियां थीं, आपने 15 टुकड़े किए, 8 स्वयं खाए और 7 शेयर किए। इसलिए आप दोनों इसे 1:7 के अनुपात में बांट लें। यही यथोचित बंटवारा है।
कहानी सुनने के बाद लगा कि कर्म करने के बाद जीवन में कुछ ऐसा घट रहा हो, जिस पर हमारा वश नहीं, उसे ईश्वर का न्याय मान लेना चाहिए, क्योंकि हमारी बुद्धि बहुत सीमित है। परमात्मा सबका ध्यान रखते हैं। हम ही नहीं समझ पाते। हम जो देते हैं, वही हमारे पास लौटकर आता है।