देश में हिन्दू-मुस्लिम विवाद का जिम्मेदार कौन?
बलबीर पुंज
देश में हिन्दू-मुस्लिम विवाद का जिम्मेदार कौन?
विपक्षी दलों का आरोप है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘हिन्दू-मुसलमान’ कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने 10 वर्ष के लंबे कार्यकाल में कभी भी जाति या मजहब के आधार पर भेदभाव नहीं किया है। परंतु सच्चाई यह है कि हिन्दू-मुस्लिम विमर्श इस भूखंड पर स्वाधीनता के दशकों पहले से रहा है और आज भी है। रोचक यह है कि मुसलमानों के नाम पर जो आरोप आज भाजपा-संघ-मोदी पर लगाए जाते हैं, वही स्वतंत्रता से पहले कांग्रेस-गांधी-नेहरू के विरुद्ध लगाए जाते थे। तब तथाकथित मुसलमानों के उत्पीड़न का आरोप लगाने वाले अंग्रेज और वामपंथी थे। कितनी विडंबना है कि आज वही कुत्सित काम कांग्रेस और वामपंथी कर रहे हैं। चुनाव में ‘हिन्दू-मुस्लिम’ इसलिए भी है, क्योंकि विपक्ष का एक भाग वोटबैंक की राजनीति के अंतर्गत पूरे मुस्लिमों को गरीब-पिछड़े की संज्ञा देकर आरक्षण देने की मांग कर रहा है।
आई.एन.डी.आई.ए. के प्रमुख सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के अनुसार, “मुस्लिमों को पूरा आरक्षण मिलना चाहिए।” यह विचार पहली बार सामने नहीं आया है। कांग्रेस वर्ष 2004-14 के बीच पांच बार मुस्लिम आरक्षण देने का प्रयास कर चुकी है, जिन्हें अदालतों ने असंवैधानिक मानते हुए रद्द कर दिया। हाल ही में कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने प्रदेश के सभी मुस्लिमों को ओबीसी कोटे में शामिल कर दिया था। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में नौकरियों-शिक्षा में मुसलमानों को राष्ट्रव्यापी आरक्षण देने का वादा किया था। स्वयं कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी भी इसका समर्थन कर चुके हैं। मामला केवल मुस्लिम आरक्षण तक सीमित नहीं है। हिन्दू समाज में जातीय मतभेद को और अधिक बढ़ाने हेतु राहुल जातिगत जनगणना करके जनसंख्या के हिसाब से राष्ट्रीय संपत्ति-संसाधनों को पुनर्वितरित करने का वादा कर रहे हैं। यदि इन मुद्दों पर देश में बहस होगी, तो स्वाभाविक रूप से हिन्दू-मुस्लिम तो होगा ही।
जिस प्रकार 1980 के दशक में इंदिरा गांधी ने खालिस्तानी चरमपंथी जनरैल भिंडारावाले को आगे रखकर हिन्दू-सिख संबंधों को लेकर प्राणघातक राजनीति की, ठीक उसी तरह राहुल के पिता राजीव गांधी ने वर्ष 1986 के शाहबानो मामले से ‘मुस्लिम वोटबैंक’ का बिगुल फूंक दिया था। तब मुस्लिम कट्टरपंथियों के समक्ष घुटने टेकते हुए तत्कालीन राजीव सरकार ने संसद में प्रचंड बहुमत के बल पर मुस्लिम महिला उत्थान की दिशा में आए सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को पलट दिया था। इसके बाद मुस्लिम-विरोध के कारण सलमान रुश्दी की ‘सैटनिक वर्सेज’ (1988) और तसलीमा नसरीन की ‘लज्जा’ (1993) पुस्तकों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसी विभाजनकारी सियासत से प्रेरित होकर वर्ष 2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने घुमा-फिराकर देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का बता दिया। मुस्लिम आरक्षण/कोटा/उप-कोटा देने का प्रयास, इसी विषैली श्रृंखला का अगला हिस्सा है।
भारतीय समाज का वंचित-शोषित वर्ग सदियों से उपेक्षित है। स्वतंत्रता के बाद देश के नीति-निर्माताओं ने उनके लिए संविधान में आरक्षण की उचित, तार्किक और आवश्यक व्यवस्था की, परंतु मुस्लिम आरक्षण से इनकार कर दिया। तब भी और आज भी मुस्लिम समाज का एक बड़ा वर्ग इसपर ‘घमंड’ करता थकता नहीं कि मुसलमानों का हिन्दू बाहुल्य भारत पर 800 वर्षों तक राज था। यह बखान उनके द्वारा वर्तमान समय में भी खिलजी, बाबर, औरंगजेब और टीपू सुल्तान आदि इस्लामी आक्रांताओं को ‘नायक’ मानने में झलकता है। यह मानसिकता ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ का बीजारोपण करके 1947 में इस्लाम के नाम पर भारत का विभाजन कर चुकी है। क्या समस्त मुस्लिम समाज को आरक्षण देने का प्रयास, देश को पुन: खंडित करने का प्रयास नहीं?
क्या मोदी सरकार हिन्दू-मुसलमान में अंतर करती है? पिछले 10 वर्षों में विभिन्न जनकल्याणकारी योजनाओं (पीएम-आवास, उज्जवल, मुद्रा, जनधन, किसान सहित) के अंतर्गत, लगभग 90 करोड़ लाभार्थियों को बिना किसी जाति, पंथ, मजहबी और राजनीतिक भेदभाव के 34 लाख करोड़ रुपये डीबीटी के माध्यम से वितरित किया गया है। यही नहीं, वैश्विक महामारी कोरोना कालखंड से मोदी सरकार निशुल्क टीकाकरण के साथ पिछले चार वर्षों से देश के 80 करोड़ों लोगों को मुफ्त अनाज दे रही है। इन्हीं प्रयासों से लगभग 25 करोड़ भारतीय बहुआयामी गरीबी से बाहर निकल चुके हैं। फिर भी स्वयंभू सेकुलरवादी और वामपंथी भाजपा को ‘मुस्लिम-विरोधी’ के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वास्तव में, मुस्लिम समाज के बड़े वर्ग में भाजपा विरोधी पूर्वाग्रह, उनके राष्ट्रीय भावना-आकांक्षाओं के प्रति ऐतिहासिक अलगाव का हिस्सा है, जो ब्रितानियों के दौर से चला आ रहा है।
यह सही है कि भारतीय मुसलमानों का बड़ा वर्ग आज भी विशेषकर शिक्षण मामले में पिछड़ा है। जब समाज का कोई हिस्सा शिक्षा में पीछे रह जाता है, तो उसका दुष्प्रभाव अन्य क्षेत्रों में स्वत: दिखता है। इसका जिम्मेदार कौन है? क्या इसके लिए वे कट्टरपंथी मुस्लिम उत्तरदायी नहीं, जो अपने बच्चों को इस्लाम के नाम पर मदरसों में जाने के लिए प्रेरित करते हैं। चूंकि मदरसे में पढ़ने और पढ़ाने वाले अधिकांश इस्लाम को ही मानने वाले होते हैं, इसलिए उनकी आकांक्षाएं, दृष्टिकोण और कर्तव्य, शेष समाज से अलग दिखते हैं। उदाहरणस्वरूप, जब बढ़ती जनसंख्या के प्रति जागरूकता फैलाने हेतु दशकों पहले ‘हम दो, हमारे दो’ नारा दिया गया, तब भी मुस्लिम जनसंख्या निरंतर बढ़ती रही। प्रधानमंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद के हालिया अध्ययन के अनुसार, 1950 और 2015 के बीच जहां भारतीय मुसलमानों की जनसंख्या 43.15 प्रतिशत तक बढ़ चुकी है, तो बहुसंख्यक हिन्दुओं की हिस्सेदारी 7.82 प्रतिशत घट गई है।
इस संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक अन्य टीवी साक्षात्कार में दिया विचार महत्वपूर्ण हो जाता है। उनके अनुसार, “मैं मुस्लिम समाज के पढ़े-लिखे लोगों को कहता हूं कि आत्ममंथन करिए। सोचिए देश इतना आगे बढ़ रहा है, अगर कमी आपके समाज में महसूस होती है, तो क्या कारण हैं?… ये आपके मन में जो है कि सत्ता पर हम बिठाएंगे, हम उतारेंगे, उसमें आप अपने बच्चों का भविष्य खराब कर रहे हो…।” सच तो यह है कि मुस्लिम समाज के साथ उन स्वयंभू सेकुलरवादियों को भी आत्मचिंतन करना चाहिए, जो प्रगतिशील-उदारवादी मुसलमानों के बजाय कट्टरपंथी मुस्लिमों को अधिक महत्व देते हैं और उन्हें ही समाज का असली प्रतिनिधि मानते हैं।
(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)