श्रेष्ठ कौन?
नीलू शेखावत
श्रेष्ठ कौन?
यो ह वै ज्येष्ठम् च श्रेष्ठ च वेद ज्येष्ठश्च ह वै श्रेष्ठश्च भवति प्राणो वाव ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च। ५.१.१
“जो ज्येष्ठ और श्रेष्ठ को जानता है वह ज्येष्ठ और श्रेष्ठ हो जाता है। निश्चय ही प्राण ज्येष्ठ और श्रेष्ठ हैं।”
एक बार प्राण और इन्द्रियां – “मैं श्रेष्ठ हूँ-मैं श्रेष्ठ हूँ” कहकर परस्पर विवाद करने लगे। सुलह न हो पाने के कारण वे प्रजापति के पास गए। इन्द्रियों में वाक्, चक्षु, श्रोत्र और मन आदि सभी ने एक स्वर में कहा- हम श्रेष्ठ हैं। प्राण ने भी ऐसा ही कहा।
दोनों की बात सुनकर प्रजापति ने कहा-
“यस्मिन्व उत्क्रांते शरीरम् पापिष्ठतरमिव दृष्येत् स वः”
“तुम दोनों में जिसके उत्क्रमण से यह शरीर बहुत पापिष्ठ अर्थात् प्राणहीन तथा उससे भी अत्यंत निकृष्ट सा दिखाई दे और शव के समान अस्पृश्य जान पड़े , वही सबसे श्रेष्ठ है।”
इतना सुनते ही वाक इंद्रिय ने उत्क्रमण किया। एक वर्ष प्रवास के अनंतर उसने सबसे पूछा- “मेरे बिना तुम किस प्रकार जीवित रह सके? “
वे बोले- “जिस प्रकार गूंगा व्यक्ति बिना वाणी के प्राणों का प्राणन करता है।”
इसी प्रकार क्रमश: चक्षु, नासिका, श्रोत्र और मन ने शरीर को त्यागा।
देखने की शक्ति निकलने से अंधा, सुनने की शक्ति निकलने से शरीर बहरे की तरह जीवित रहा। इस प्रकार सभी इन्द्रियों के निकलने पर भी शरीर का अस्तित्व बना रहा। अंत में मन भी निकल गया, जिसके जाते ही शरीर मूढ़ और बालवत हो गया। किंतु शरीर का कार्य चलता रहा। सब इन्द्रियां अपना प्रयोग कर चुकी थी। अब प्राण की बारी थी, जब प्राण जाने लगे तो-
यथा सुहय: षड्वीशशंकुन्संखिदेदेवमितरांन्प्राणान्ससमखिदत्तहाभिस्मेत्योचुर्भगवन्नेधि।
लोक में जिस प्रकार अच्छा घोड़ा अपनी परीक्षा के लिए चढ़े हुए मनुष्य द्वारा चाबुक मारे जाने पर पैर में बंधी कीलों को उखाड़ फेंकता है, उसी प्रकार उसने वाक् आदि अन्य इंद्रियों को उखाड़ दिया। अर्थात् शरीर शव बन गया।
उसी समय सभी इन्द्रियों ने एक साथ, प्राण से कहा- ” हे भगवन! आप ही हमारे स्वामी हो, आप ही श्रेष्ठ हो, हमारे सभी गुणों के अधिष्ठाता आप ही हो। आप हमें न त्यागिए।”
ऋषियों ने इसीलिए ईश्वर को प्राणस्वरूप बतलाकर प्राणोपासना को श्रेष्ठ उपासना कहा है।
(छांदोग्य पंचम अध्याय)