क्यों अपने ही पूर्वजों की पहचान दिखाई न देती…?
डॉ. नीलप्रभा नाहर
क्यों अपने ही पूर्वजों की पहचान दिखाई न देती…?
व्याकुल और व्यथित मन में
भावों की बाढ़ उमड़ आई
क्या लिखूं, कैसे लिखूं
कुछ राह दिखाई न देती।
क्या सब गूँगे बहरे हैं?
या चहरों पे हमारे चहरे हैं
क्यों अपनी ही चीख
हमें सुनाई न देती।
अत्याचारों को देख देख
हिमालय भी हिल जाता है
मृत देह पर जीने वाला
गिद्ध भी शरमाता है,
दृश्य देखकर रूह काँपती
आवाज़ सुनायी न देती।
मतांतरण का खूनी खेल
कितनी सदियों से जारी है
क्यों अपने ही पूर्वजों की
पहचान दिखाई न देती।
एकात्म भाव का जीवन दर्शन
आज किसी को याद नहीं
हाहाकार उठे कहीं भी
क्यों अनुगूँज सुनाई न देती।
अलग अलग हिस्से हैं
एक समान ही क़िस्से हैं
अपने लहू से सत्य लिखे
वो क़लम दिखाई न देती।
नाम धर्म का, और खून की होली
नाच रही है, असुरों की टोली
जो न रंगी हो रक्त से
वो धरा दिखाई न देती।
कोई पंथ हो या मज़हब
क्या कोई अंतर पड़ता है
घाव लगे जब गहरे तो
रक्त लाल ही बहता है
मानव की यह समानता
क्यों उन्हें दिखाई न देती?
मानवता को शर्मसार करे
साथ न उसका देना होगा
जीवन का विश्वास भरे
उसे ही धर्म कहना होगा
जब मौन तोड़ता सज्जन है
दुर्जनता दिखाई न देती।
बस यही राह दिखाई है देती
यही राह दिखाई है देती।
क्या बात लेखिका जी
क्या भाव , क्या अभिव्यक्ति
एक अकेला पार्थ खड़ा है ,
सिर्फ़ एक यथार्थ खड़ा है
मानव मन नितांत पड़ा है
असुरों का ब्रह्मांड बड़ा है
सिर्फ़ और सिर्फ़ पार्थ अड़ा है
अंतोदय एक यथार्थ खड़ा है
उम्दा रचना