कश्मीर और गुलाम कश्मीर में अंतर क्यों?

कश्मीर और गुलाम कश्मीर में अंतर क्यों?

बलबीर पुंज

कश्मीर और गुलाम कश्मीर में अंतर क्यों?कश्मीर और गुलाम कश्मीर में अंतर क्यों?

अभी कश्मीर से दो समाचार सामने आए। लोकसभा चुनाव के दौरान श्रीनगर में ढाई दशक में पहली बार सर्वाधिक— 38 प्रतिशत मतदान हुआ है। वहीं पाकिस्तान के कब्जे वाले गुलाम कश्मीर में हजारों लोग दो वक्त की रोटी के लिए बंदूक गोलियों का सामना करने को तैयार हैं और पाकिस्तानी सरकार भी उन्हें आटे के बदले मौत देने में संकोच नहीं कर रही है। दोनों घटनाएं देखने में मामूली लग सकती हैं, परंतु ये अपने भीतर एक बहुत महत्वपूर्ण संदेश समेटे हुए हैं। खंडित भारत आज जो कुछ भी है, वह अपनी बहुलतावादी हिंदू संस्कृति के कारण है। वहीं गुलाम कश्मीर की बदहाली और पाकिस्तान के विनाश के लिए उसकी ‘काफिर-कुफ्र’ प्रेरित कट्टरवादी सोच जिम्मेदार है। 

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, गुलाम कश्मीर में आटे की आसमान छूती कीमत और बिजली की दरों में वृद्धि के विरुद्ध आंदोलित लोगों पर पाकिस्तानी रेंजरों ने गोलियां बरसा दीं। बीते नौ माह से वे दमन सहते हुए रह-रहकर धरना-प्रदर्शन कर रहे थे, परंतु सरकार की नजरअंदाजी के बाद इसने 10 मई को हिंसक रूप ले लिया। हजारों लोग ‘आजादी-आजादी’ के नारे लगाते हुए पाकिस्तानी सरकार के विरुद्ध सड़कों पर उतर आए। इस दौरान मीरपुर-मुजफ्फराबाद आदि क्षेत्रों में आंदोलन को कुचलने हेतु तैनात पाकिस्तानी रेंजरों को स्थानीय लोगों ने दौड़ा-दौड़ाकर पीटा और उनके वाहनों को फूंक दिया। इस जनाक्रोश को थामने के लिए शहबाज शरीफ सरकार ने 23 अरब पाकिस्तानी रुपये का सब्सिडी पैकेज गुलाम कश्मीर के लिए जारी किया था। चूंकि यह सहायता ‘ऊंट के मुंह में जीरे’ के समान थी, इसलिए इसे आंदोलनकारियों ने अस्वीकार कर दिया। 

स्पष्ट है कि गुलाम कश्मीर के लोगों को अब इस्लाम के नाम पर अधिक मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। वे देख रहे हैं कि समय बीतने के साथ उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति लगातार गिरती जा रही है। दशकों के शोषण के बाद वहां न तो बिजली-सड़क-पानी की समुचित व्यवस्था है और न ही जिंदा रहने के लिए पर्याप्त अनाज। इसकी तुलना में जम्मू-कश्मीर में स्थानीय लोगों का जीवनस्तर धारा 370-35ए के संवैधानिक क्षरण के बाद निरंतर सुधर रहा है। इसके कारण उनका शासन-प्रशासन पर विश्वास भी बढ़ रहा है। 18वें आम चुनाव के चौथे चरण (13 मई) में श्रीनगर सीट पर 1996 के बाद बिना किसी अप्रिय घटना के पहली बार सर्वाधिक मतदान— इसका प्रमाण है। यह सकारात्मकता घाटी में बहते विकास की बयार की देन भी है। जम्मू-कश्मीर की जीडीपी वर्ष 2018-19 में 1.6 लाख करोड़ रुपये थी, जो बढ़कर 2.64 लाख रुपये करोड़ हो गई है। दिसंबर 2023 तक क्षेत्र का जीएसटी राजस्व 6018 करोड़ था, जो वित्तवर्ष 2022-23 की अवधि से 10.6 प्रतिशत अधिक है। 

जम्मू-कश्मीर की नई औद्योगिक नीति (2019) के अंतर्गत, देश-विदेश से 90 हजार करोड़ रुपये के निवेश प्रस्ताव आ चुके हैं, जिसे जमीनी स्तर में उतारने हेतु दशकों से लंबित आधारभूत सुधारों के साथ 46 नए औद्योगिक क्षेत्रों का निर्माण और अन्य अवरोधकों को दूर किया जा रहा है। पर्यटन, जम्मू-कश्मीर जीडीपी का प्रमुख आधार है। वर्ष 2023 में यहां दो करोड़ों से अधिक पर्यटक (विदेशी सहित) आए थे, जिसके इस वर्ष और अधिक बढ़ने की संभावना है। देर रात तक लोग प्रसिद्ध शिकारा की सवारी का आनंद ले रहे हैं। घाटी में रात्रि बस सेवा बहाल की गई है, तो स्कूल-कॉलेज और विश्वविद्यालय भी सुचारू रूप से चल रहे हैं। दुकानें भी लंबे समय तक खुली रहती हैं। तीन दशक से अधिक के अंतराल के बाद नए-पुराने सिनेमाघर भी सुचारू रूप से संचालित हो रहे हैं। इस परिवर्तन में प्रधानमंत्री नरेंद्र के साथ इस केंद्र शासित प्रदेश के उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा ने भी प्रशासनिक कुशलता का परिचय दिया है। स्वतंत्रता के बाद यह पहली बार है, जब जम्मू-कश्मीर प्रशासन का शीर्ष नेतृत्व भ्रष्टाचार के आरोपों से मुक्त है। स्वाभाविक है कि इससे स्थानीय कश्मीरी संतुष्ट हैं। 

यह सब इसलिए संभव हुआ है, क्योंकि भारत वर्ष 2014 से आमूलचूल परिवर्तन का साक्षी बन रहा है। कई प्रकार के वैश्विक उथलपुथल के होते हुए भी भारत— दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2014-2024 के बीच पांच करोड़ 41 लाख रोजगारों का सृजन हुआ है। लद्दाख से कन्याकुमारी और कच्छ से लेकर कामरूप तक मोदी सरकार विभिन्न जनकल्याणकारी योजनाओं के अंतर्गत, पिछले 10 वर्षों में लगभग 90 करोड़ लाभार्थियों को बिना किसी जाति, पंथ, मजहबी और राजनीतिक भेदभाव के 34 लाख करोड़ रुपये डीबीटी के माध्यम से वितरित कर चुकी है। परंतु कश्मीर की खूबसूरती, कश्मीरी हिन्दुओं के बिना अधूरी है। जब तक यहां मूल संस्कृति के ध्वजावाहक लौटते नहीं, तब तक घाटी सूनी है। 

गुलाम कश्मीर की दयनीय स्थिति, पाकिस्तान की बदहाली का प्रतिबिंब मात्र है। सामान्य पाकिस्तानी बीते कई वर्षों से कमर तोड़ महंगाई और लकवाग्रस्त आर्थिकी नीतियों से जूझ रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने 3 अरब डॉलर के बेलआउट पैकेज की स्वीकृति देते समय जो कड़ी शर्ते लगाई थीं, उसके कारण वहां पहले व्याप्त नकदी संकट, भारी-भरकम कर्ज और मुद्रा-स्फीति में अत्याधिक वृद्धि हो गई है। एक समय पाकिस्तान में महंगाई दर 38 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है। वहां स्थिति कितनी विकराल है, यह दर्जनभर अंडों के दाम 400 रु, 600 रु/किलो चिकन, दूध 200 रु/लीटर, चावल 300 रु/किलो, टमाटर 200/किलो और प्याज 250 रु/किलो की दर से स्पष्ट है। 

वर्ष 2022 से जारी रूस-यूक्रेन युद्ध से वैश्विक खाद्य और ईंधन की कीमतें बढ़ने के बाद पाकिस्तानी विदेशी मुद्रा भंडार में अत्याधिक दबाव में है। इसी तरह का वित्तीय असंतुलन श्रीलंका को कंगाल कर चुका है। अब अधिक राजस्व पाने हेतु पाकिस्तानी सरकार ने अपने नागरिकों पर कर का भारी बोझ डाल दिया है। जब भीषण महंगाई के कारण लोग टैक्स जमा नहीं कर पा रहे हैं, तो पाकिस्तानी सरकार दूरसंचार कंपनियों के साथ मिलकर टैक्स न जमा करने वाले उपभोक्ताओं के मोबाइल बैलेंस से पैसे काटकर सरकारी खजाना भर रही है। 

व्यापक रूप से विदेशी सहायता पर निर्भर पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था में उसका निजी क्षेत्र आज भी अविकसित है। उसका शेयर बाज़ार वर्षों से मृत-प्राय है। आईएमएफ के अनुसार, पाकिस्तान को अगले पांच वर्षों में 123 अरब डॉलर के सकल वित्तपोषण की आवश्यकता है। पीओके इसलिए भी अधिक झुलस रहा है, क्योंकि फरवरी 2019 में पाकिस्तान समर्थित पुलवामा आतंकवादी हमले के बाद भारत द्वारा सूखे खजूर, सेंधा नमक, सीमेंट और जिप्सम जैसे पाकिस्तानी उत्पादों पर सीमा शुल्क 200 प्रतिशत करने से पीओके में व्यापारियों को भारी क्षति पहुंची है। 

पाकिस्तान की तुलना हम उस घर के मालिक से कर सकते हैं, जो अपने पड़ोसी के प्रति वैमनस्य और घृणा से लबालब भरा है। वह मूर्ख मालिक अपने घर को यह सोचकर आग के हवाले कर देता है कि इसके धुएं से उसका पड़ोसी भी परेशान होगा। प्रगति से ध्यान हटाकर स्वयं को इस्लामी आतंकवाद की पौधशाला बनाना और उसी में पनपे जिहादियों द्वारा अपने ही हजारों-लाख सहबंधुओं को मौत के घाट उतारना— इसका प्रमाण है। अब जो पाकिस्तान अपनी कु-नीतियों के कारण पहले ही दिवालिया होने की चौखट पर खड़ा है, वह कैसे अपने कब्जे वाले कश्मीर का भला कर सकता है?  

(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)

Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *