स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाएं
प्रो. विवेकानंद तिवारी
स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाएं
प्रत्येक कालखंड में महिलाओं ने भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। समाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वे न केवल पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चली हैं, अपितु अनेक अवसरों पर अग्रणी भूमिका में भी रही हैं। स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी सहभागिता एवं अग्रणी भूमिका से उन्होंने भारतीय दर्शन को सिद्ध करते हुए समूची दुनिया के सामने घोषित कर दिया कि वे शक्तिस्वरूपा हैं। जैसे आदिशक्ति ने समय-समय पर विभिन्न रूप लेकर अनेक अन्यायी और अत्याचारियों का विनाश किया, वैसे ही भूमिका वे अवसर आने पर आधुनिक भारत में भी निभाती रही हैं। स्वतंत्रता आंदोलन में जीवन-आहुति देने वाली महिलाओं की एक लंबी श्रृंखला है। सन्यासी विद्रोह की देवी चौधरानी, चुआड़ की रानी शिरोमणि, कित्तूर की रानी चेनम्मा, शिवगंगा राज्य की वेलु नाचियार, भारत छोड़ो आंदोलन की प्रमुख महिला नेतृत्व अरुणा आसफ अली, टीटागढ़ कांड की सरोजदास चौधरी और भूमिगत स्वयंसेवक दल की संस्थापक सुचेता कृपलानी, रानी ईश्वरी कुमारी, ननीबाला, पार्वती देवी, प्रफुल्ल नलिनी बह्म, मणिबेन वल्लभभाई पटेल, माया घोष, मृदुलाबेन साराभाई, सरलादेवी साराभाई, सावित्री देवी, हजरत महल और माता स्वरूपरानी आदि कुछ ऐसे ही प्रमुख नाम हैं। इनका स्मरण आज की पीढ़ी में ऊर्जा, साहस और समर्पण का संचार कर सकता है। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि भारत के स्वाधीनता आंदोलन का मूल्यांकन महिलाओं की भूमिका को अनदेखा करके नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान विभिन्न क्रांतिकारी गतिविधियों में अनेक महिलाओं ने अपने प्राणों की किंचित चिंता किये बिना हिस्सा लिया, जिन महिलाओं ने कभी घर से बाहर कदम भी नहीं रखा था, उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए अनेकों अन्य भारतीय महिलाओं को नेतृत्व प्रदान किया। हजारों महिलाओं ने स्वतंत्रता के यज्ञ को अपनी आहुति देकर सफल बनाया। सत्याग्रह के दौरान 15 हजार से भी अधिक महिलाएं जेल गईं। उन्होंने जेलखानों को आराधना गृह का नाम दिया। लाठियों और गोलियों की चिंता न करते हुए अनगिनत महिलाओं ने इस देश की स्वाभिमानी नागरिक होने का कर्तव्य हँसते-हँसते अदा किया। ये महिलाएं आज नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्वरूप हैं, इन्होंने अपने अदम्य साहस से भारत को परतंत्रता की जंजीर से मुक्त कराने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
स्वाधीनता आंदोलन में हिस्सा लेकर अपना जीवन धन्य करने की प्रतिस्पर्धा मातृशक्ति के बीच जोरों पर थी। प्रत्येक जाति, संप्रदाय, क्षेत्र एवं वर्ग से वे आगे आईं।
राजघरानों की महिलाएं- दक्षिण भारत के कित्तूर की रानी चेन्नमा पहली भारतीय वीरांगना हैं, जिन्होंने वर्ष 1824 में ब्रिटिश सेना के विरुद्ध बिगुल बजा दिया था। हिमाचल प्रदेश के राजा भवानी सेन की तीसरी पत्नी रानी खैरागढ़ी क्रान्तिकारियों को भरपूर धन देकर उनकी सहायता करती रहीं और अपना वश चलने तक उन्होंने उन क्रान्तिकारी वीरों को सुरक्षा प्रदान की, जिन्हें बाद में पकड़े जाने पर काले पानी भेज दिया गया।
झांसी की रानी और उनकी तलवार को कौन नहीं जानता। उनकी तलवार के पीछे जो फौज थी, उसके बहुत से महत्वपूर्ण पदों पर महिलाएँ तैनात थीं, जिन्होंने अंग्रेजों को छठी का दूध याद दिला दिया था। रानी के तोपखाने से लेकर उनकी सुरक्षा तक महिलाएं सम्भाल रही थीं। झलकारी बाई रानी की अंगरक्षक थीं। रानी लक्ष्मीबाई के गम्भीर रूप से घायल होने पर उनका छत्र और मुकुट लगाकर झलकारी ने अंग्रेजों को तब तक भ्रम में रखा, जब तक रानी की समाधि नहीं बन गई।
अन्य वीरांगनाएं- 1857 के विद्रोह को हवा देने वाले प्रसिद्ध मंगल पांडे को चर्बी वाले कारतूस की सूचना अंग्रेजों की रसोई में काम करने वाली एक साधारण महिला लज्जो ने दी थी। इसके अतिरिक्त इसी विद्रोह की अग्नि में एक वीरांगना उदा देवी का नाम भी आता है। उन्होंने एक पेड़ पर चढ़कर 32 अंग्रेज सेनिकों को मार दिया था। इसी प्रकार मुजफ्फरपुर के छोटे से गाँव की महिला मुंडभर की महाविरी देवी और आशा देवी अँग्रेजी सेना का सामना करते हुए बलिदान हो गईं थीं। मैडम भीकाजी कामा भारत की प्रथम क्रान्तिकारी महिला थीं, जिन्होंने निष्कासित जीवन व्यतीत करते हुए विदेश में भारत की लड़ाई को जीवित रखा। उनका जन्म 24 सितंबर 1861 को बंबई के एक पारसी परिवार में हुआ था। विदेश में रहते हुए वे श्यामा जी, लाला हरदयाल, सावरकर आदि के साथ सक्रिय रहीं। 1907 में जर्मनी में अंर्तराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए उन्हें राष्ट्रीय ध्वज फहराने का गौरव प्राप्त हुआ।