जगद्गुरु योगेश्वर कृष्ण
तृप्ति शर्मा
जगद्गुरु योगेश्वर कृष्ण
भगवान श्री कृष्ण के आविर्भाव, चरित्र और वचनों की अनंत महिमा है। इन सब का रहस्य तभी समझा जा सकता है जब भगवान में दृढ़ श्रद्धा और विश्वास हो। भगवान के अवतार लेने का हेतु जगत का कल्याण ही है। वे संसार में प्रकट होकर सज्जनों का उद्धार और दुर्जनों का संहार करते हैं। भगवद्गीता में भगवान ने अपनी वाणी में एक मनुष्य की लौकिक जीवन जीने की कला से लेकर पारलौकिक मोक्ष प्राप्ति तक की हितकारी नीतियां बताई हैं, जिनका पालन मानव कल्याण की कामना से होना ही चाहिए। भगवान सुकृती भक्तों का तो उद्धार करते ही हैं साथ ही दुराचारी एवं अनीति के पोषक मनुष्यों को दंड देकर उनका कल्याण भी करते हैं। आश्चर्य की बात है कि जिस राक्षसी पूतना ने अपने स्तनों में विष लगाकर कृष्ण को मारने की नीयत से उन्हें दूध पिलाया, उसको भी भगवान ने दंडित करके वही गति दी जो एक धाय को मिलनी चाहिए।
भगवान श्री कृष्ण के पृथ्वी पर अवतार की अवधि में उनकी प्रत्येक लीला दिव्य व गूढ़ संदेश देने वाली है। उनकी पूरी जीवन लीला न केवल सनातन धर्मियों के लिए, अपितु संपूर्ण मानव जाति के लिए एक महान संदेश है। उनका जन्म भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ। वे देवकी की आठवीं संतान थे। उन्होंने गाय चराने की लीला कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की अष्टमी से शुरू की, जिसे हम गोपाष्टमी कहते हैं। अर्थात कृष्ण लीला में अष्टमी का विशेष महत्व है। उनके प्रकट होते ही कारागार के ताले खुलने से लेकर, जरा नामक व्याध को हेतु बनाकर अपनी लीला संवरण कर लेने तक सभी लीलाएं अनंत दिव्य कर्म वाली हैं। उनकी योग माया का प्रभाव भक्तों को चकित कर देता है। इसलिए सर्व देवमय प्रभु गृहस्थ धर्म निभाते हुए भी महान योगीश्वर हैं, लौकिक होते हुए भी आलौकिक हैं, साकार होते हुए भी निराकार हैं, वे स्थूल होते हुए भी सूक्ष्म हैं।
परंतु हमारे धर्म विश्लेषकों व कथा वाचकों ने श्री कृष्ण के व्यक्तित्व व लीलाओं का वर्णन वैसे ही किया जैसी उनकी प्रवृत्ति या उनका ज्ञान था। उनके उज्ज्वल चरित्र को छलिया, रसिया, माखन चोर आदि उपमा देकर हल्के रूप में समाज के सामने रखा। श्री कृष्ण का माखन चुराने या मटकी फोड़ने का कोई अभिप्राय नहीं था। उन्होंने बालकों के अधिकार का माखन कंस को भिजवाने का हमेशा विरोध किया।घर की समृद्धि का पहला प्रयास यही होना चाहिए कि बच्चे हृष्ट-पुष्ट बनें। लक्ष्मी स्वरूपा भगवान श्रीकृष्ण की अर्धांगिनी, जिनके साथ वे गृहस्थ आश्रम का पालन करते हुए देव ऋषि व पितृ ऋण से उऋण हुए, सती रुक्मणी को छोड़कर गोपियों के साथ रासलीला व निराधार राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंगों की प्रस्तुति करने से समाज में धर्म व संस्कारों की बहुत हानि हुई है। इनकी आड़ में सनातन पुरुष के महान व्यक्तित्व पर अनेक आक्षेप लगाते हुए अनर्गल बोला जाता रहा है। उनकी यह छवि समाज में इतनी प्रसारित कर दी गई कि विश्व को दिए गए महान संदेश पर हमारे युवाओं का ध्यान ही नहीं गया। श्रीकृष्ण यहाँ प्रेम का नहीं, त्याग, समर्पण और कर्तव्य निर्वहन का संदेश देने आये थे।
श्री कृष्ण शांति के अग्रदूत थे। वे मानते थे कि युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं है। वे महाभारत का युद्ध टालने के लिए पांडवों हेतु पांच गांव लेने पर भी समझौता करने को तैयार थे। परंतु जहां कौरवों द्वारा सुई की नोक तक भी अधिकार में न देने की बात की गई तब उस अन्याय के विरुद्ध युद्ध अपरिहार्य बताते हुए कृष्ण ने अर्जुन से कहा –
‘उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृत निश्चय :।’
जब कृष्ण मथुरा आ गए थे, तब उद्धव ने अपनी ब्रज यात्रा में बताया कि गोधूलि के समय ग्वाल बालों की बांसुरी के स्वर आ रहे थे, अर्थात कृष्ण जी की विशेषता बांसुरी नहीं वह पांचजन्य शंख है, जिसके बजाने का अर्थ है अधर्म को ललकारना और धर्म की स्थापना की उद्घोषणा करना।
प्रेम और शांति की प्रतीक बांसुरी बजाने वाले श्री कृष्ण धर्म के विरुद्ध पांचजन्य शंख बजाने का भी संदेश देते हैं।
हमारे बच्चों को यह कभी नहीं बताया जाता कि भगवान श्री कृष्ण एक महान योद्धा, दूरदर्शी प्रबंधक, कुशाग्र बुद्धि और विश्व के प्रथम कूटनीतिज्ञ व राजनेता थे। आज युवा श्री कृष्ण के एक ही रूप से परिचित हैं, जिसका गलत प्रचार प्रसार समाज में किया जा रहा है।वास्तव में वासुदेव का दिव्य रूप आसक्ति का नहीं अनासक्ति का संदेश देता है। श्री कृष्ण अकर्मण्यता को छोड़ कर्म करने का, लौकिक कर्तव्य में लिप्त रहते हुए आत्मा को निर्लिप्त रखने का मार्ग दिखाते हैं। उनकी लीलाओं का उद्देश्य उसी ब्रह्म स्वरूप से साक्षात्कार करना है, जिस तत्व का उन्होंने स्वयं अपने माता-पिता को ज्ञान दिया। जीवन जीने की कोई भी कला गीता के संदेश से बाहर नहीं है। आज नितांत आवश्यक है कि युवा अकर्मण्यता को छोड़कर भगवान के उस संदेश को समझें, जो समाज में शांति और धर्म की स्थापना के लिए अर्जुन को दिया था। उनका यह संदेश केवल अर्जुन के लिए नहीं था बल्कि उन सभी जागृत वीरों के लिए है जो न्याय- अन्याय और धर्म -अधर्म में अंतर समझकर धर्म की रक्षा के लिए तत्पर रहते हैं। भगवान श्री कृष्ण द्वारकाधीश होने पर भी विश्व कल्याण के लिए महाभारत के युद्ध में अर्जुन के सारथी बने। भगवान की लीलाओं के प्रति विश्वास होना चाहिए, संशय नहीं। श्री कृष्ण ने गीता में कहा है -संशय आत्मा विनश्यति।
पार्थ सारथी बनकर भगवान ने यही संदेश दिया है कि उनके मार्गदर्शन में ही मानव जाति का कल्याण है महाभारत जीवन की सच्चाई है, हमें पग पग पर महाभारत (संशय संघर्ष) का सामना करना पड़ता है। उस समय जो भगवान का विश्व रूप पहचान कर उनके द्वारा बताई गई समय अनुसार नीतियों का अनुसरण करता है, वह अर्जुन बन जाता है, और जो उनको सामान्य ग्वाला समझकर उपेक्षा करता है, वह दुर्योधन बन जाता है। तो आइए इस जन्माष्टमी से लड्डू गोपाल में हम उनके जगतगुरु योगेश्वर स्वरूप के दर्शन करें और प्रत्येक युग में प्रासंगिक गीता के उपदेशों का पालन करने का प्रयास करें।