करवट ले रहा यूरोप

करवट ले रहा यूरोप

  प्रशांत पोळ

करवट ले रहा यूरोपकरवट ले रहा यूरोप

अभी यूरोप में हूं। जर्मनी में। अपने भारत में मंगलवार, 4 जून को लोकसभा चुनाव के परिणाम आ गये थे। ठीक दो दिन बाद, गुरुवार 6 जून को यूरोपियन संसद के चुनाव का पहला चरण संपन्न हुआ। रविवार 9 जून को इसी चुनाव का दूसरा चरण था। फ्रांस और जर्मनी ने 9 जून को मतदान किया। 9 जून की रात्रि से परिणाम आना प्रारम्भ हुए, और मानो यूरोप में भूचाल आ गया।

इतिहास में यूरोप को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया है, हिटलर की नाजी पार्टी और दूसरे विश्व युद्ध ने। इसलिये 1945 में विश्व युद्ध समाप्त होने के पश्चात, न केवल जर्मनी में, वरन् समूचे यूरोप में, हिटलर का नाम लेना निषिद्ध है। अपराध है। और मात्र हिटलर का नाम ही नहीं, राष्ट्रवाद की बात करना भी मना है। यहां के लोगों का मानना है कि हिटलर ने अति राष्ट्रवाद की बातें कर के ही यूरोप को तबाही की सीमा तक पहुंचा दिया था।

इसलिए, यूरोपियन महासंघ बनने के बाद भी वहां मध्य मार्गी (सेंटर) और वामपंथी दलों के बीच मे ही राजनीतिक प्रतिद्वंद्वता चलती रही। दक्षिणपंथी पार्टियों का कोई विशेष अस्तित्व नहीं था।

किंतु पिछले दस वर्षों से परिस्थितियां बदलने लगीं। विशेषतः जब से सीरिया के अप्रवासी मुस्लिम, यूरोपियन देशों में शरण लेने लगे, और यूरोपियन महासंघ के देशों ने भी उदार मन से उन्हें आश्रय देना प्रारंभ किया, तब से असंतोष निर्मित होने लगा।

कुछ ही वर्ष बाद, यूरोपियन देशों को अपनी गलती का आभास हुआ। प्रकट रूप से तो वे बहुत अधिक कह नहीं सकते थे। किंतु उन देशों ने अप्रवासी मुसलमानों को देश से निकालना प्रारंभ कर दिया। लेकिन यह काम कठिन था। कारण, इसी बीच अनेक मुस्लिम अप्रवासी, शरणार्थी बनकर कानूनी और गैरकानूनी ढंग से इन यूरोपियन देशों की व्यवस्था (सिस्टम) में समा गये थे।

बात अगर यहीं तक रहती, तब भी ठीक था। ये सारे प्रवासी मुस्लिम, यूरोपियन देशों में, उनकी रीति- नीति का सम्मान करते हुए, घुल-मिल जाते तो शायद बात अलग थी। किंतु ऐसा हुआ नहीं, होना संभव भी नहीं था। इन प्रवासी मुस्लिमों ने अपने मजहब का आग्रह रखते हुए सड़कों पर नमाज, मस्जिदों से स्पीकर पर अजान जैसी बातें शुरू कर दीं। प्रारंभ में कुछ देशों की सरकारों ने, मजहबी स्वतंत्रता का पक्ष लेते हुए सब मान्य किया, पर यह रुका नहीं। मामला आगे बढ़ता गया।

फ्रान्स में तो मुस्लिम प्रवासी, गुंडागर्दी करते हुए रास्तों पर उतर आए। पेरिस के प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों को भी इन्होंने नहीं छोड़ा। दुकान, शोरूम, होटल सारे तोड़ डाले और एक बार नहीं कई बार फ्रान्स के अनेक शहरों में आज भी कानून व्यवस्था, इन प्रवासी मुस्लिमों के कारण कब बिगड़ जायेगी, इसका कोई अनुमान नहीं।

फ्रान्स अपवाद नहीं था। प्रवासी मुस्लिमों ने यही बात दोहराई बेल्जियम, जर्मनी, स्वीडन, डेन्मार्क, इटली आदि में। अगर कोई एक देश इन उपद्रवों से बचा रहा, तो वह था पोलेंड। उसने पहले दिन से ही यह भूमिका ली थी कि एक भी मुस्लिम प्रवासी को वह अपने देश में शरण नहीं देगा। इन सबकी प्रतिक्रिया होनी थी, हुई भी। फ्रान्स में, जर्मनी में, इटली में स्थानीय लोग इन उपद्रवियों के विरोध में सड़कों पर आए, वे पुरजोर विरोध करने लगे।

इन प्रतिक्रियाओं का प्रतिबिंब चुनावों में पड़ना स्वाभाविक था। यूरोप में प्रखर राष्ट्रवाद, चुनावों के परिणामों में झलकने लगा। इटली में जियोर्जिया मेलोनी की FDI पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनी। जियोर्जिया मेलोनी प्रधानमंत्री चुनी गईं। नीदरलैंड में भी ‘पार्टी फॉर फ्रीडम’ PVV के गीर्ट वाइल्डर्स, निर्णायक भूमिका में उभरे। कुछ यूरोपियन देशों में राष्ट्रवाद के समर्थक और ‘अप्रवासी मुस्लिमों की गुंडागर्दी बंद करने की बात करने वाले’ सत्ता तक पहुंचे।

पिछले सप्ताह यूरोपीय संसद के चुनाव में भी यही चित्र सामने आया। पूरे यूरोप में, दक्षिण पंथ की ओर झुकने वाले गठबंधन EPP ने सबसे अधिक, 190 सीटें प्राप्त कीं। उसने अपने संकल्प पत्र में, गैर-कानूनी अप्रवासन को सख्ती के साथ रोकने और आतंकवाद को कुचलने की बात की है।

इटली में जियोर्जिया मेलोनी की एफडीआई पार्टी को 28.8 प्रतिशत मतों के साथ 24 सीटें मिली हैं, जो सन् 2019 के चुनाव से 14 सीटें अधिक हैं।

नीदरलैंड (हॉलैंड) में पीवीवी पार्टी ने, पिछले शून्य से 6 सीटों की छलांग मारी है। (यूरोप में अलग-अलग देशों के लिए यूरोपियन संसद की भिन्न-भिन्न सीटें हैं, अपने राज्यों जैसी)।

जर्मनी के परिणाम भी आश्चर्यजनक आए हैं। जर्मन लोग अति दक्षिणपंथी पार्टियों को ठीक नहीं मानते थे। किंतु इस बार दक्षिण पंथ की ओर झुकने वाली AFD (अल्टरनेटिव फॉर डॉईशलैंड) को 15.90% मत मिले हैं तथा वह दूसरे क्रमांक की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर आई है। दक्षिण पंथ के गठबंधन को जर्मनी में सबसे अधिक 3 सीटें मिली हैं।

किंतु असली चमत्कार हुआ फ्रांस में। वहां पर सत्तारूढ़ अमैनुएल मैक्रों के गठबंधन को करारा झटका लगा। यूरोपीय संसद में कुल 720 सदस्य होते हैं, जिनमें से 81 सदस्य फ्रांस से चुनकर आते हैं। इस बार मैक्रों के सत्तारूढ़ दल को मात्र 14 प्रतिशत वोट के साथ 13 सीटों पर संतुष्ट होना पड़ा। जिन्हें अति दक्षिणपंथी कहा जाता हैं, ऐसे ही मरीन ली पेन के ‘नेशनल रैली’ पार्टी को 31.37% वोट शेयर के साथ 30 सीटें मिलीं। इस समय नेशनल रैली के अध्यक्ष हैं, जॉर्डन बार्डीला।

राष्ट्रपति मैक्रों के लिए यह परिणाम चौंकाने वाले थे। किंतु उन्होंने इससे उबरने के लिए अप्रत्याशित कदम उठाया – संसद भंग की और राष्ट्रीय मध्यावधि चुनाव की घोषणा की। इस चुनाव का पहला चरण रविवार 30 जून और दूसरा चरण रविवार 7 जुलाई को है।

हम कल्पना कर सकते हैं, शुक्रवार 26 जुलाई से फ्रांस में, विशेषत: पेरिस में, ओलंपिक प्रारंभ हो रहे हैं, जो रविवार 11 अगस्त तक चलेंगे। अर्थात फ्रांस किन परिस्थितियों से गुजर रहा है, इसका अनुमान हम कर सकते हैं।

इस समय, चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में दक्षिणपंथी पार्टियां आगे दिख रही हैं। ली पेन ने घोषित किया है कि यदि उनकी पार्टी चुनाव जीतती है, तो राष्ट्रपति जॉर्डन बार्डेला होंगे। इस समय फ्रांस में दक्षिणपंथी, मध्यम मार्गी और वामपंथी पार्टियों में गठबंधन बनाने के लिए अफरा-तफरी चल रही है। रिपब्लिकन अध्यक्ष एरिक सिओट्टी ने जब अति दक्षिण पंथ के गठबंधन में शामिल होने की घोषणा की, तो बाकी सदस्यों ने उन्हें ही पार्टी से निकाल दिया। लेकिन बाद में कोर्ट ने इस निर्णय को उलट दिया। सिओट्टी, पार्टी के अध्यक्ष पद पर कायम हुए। चुनाव के लिए दिन कम हैं। गठबंधन बन रहे हैं, और इसलिए उथल-पुथल चल रही है। पर कुल मिलाकर यह बात सामने आ रही है, कि फ्रांस में जो भी सत्ता पर आएगा, उसे अप्रवासन (इमिग्रेशन) के नियमों का कड़ाई से पालन करना पड़ेगा और मुस्लिम प्रवासियों के उपद्रवों पर अंकुश रखना पड़ेगा।

यूरोप में मुस्लिम प्रवासियों पर बहुत कम राजनीतिक दल खुलकर बोल रहे हैं। जर्मनी, इटली, नीदरलैंड, बेल्जियम के एक – दो दल, स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि वे यूरोप को इस्लामीकरण से बचाने के लिये संकल्पित हैं (De-Islamization of Europe)। अधिकतर राजनीतिक दल, इस पर अप्रत्यक्ष रूप से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। किंतु न बोलते हुए भी आशय स्पष्ट है। यूरोप के इस्लामीकरण के विरोध में काफी हद तक जन जागरण हो गया है।

यूरोपीय देशों की दो प्रमुख समस्याएं हैं – वह पूर्णतः अप्रवासन (इमीग्रेशन) के विरोध में भूमिका नहीं ले सकते। यह संभव भी नहीं है। जर्मनी, डेनमार्क, नॉर्वे, फ्रांस जैसे देशों में काम करने के लिए मनुष्य बल की आवश्यकता है। इमीग्रेंट्स के बिना यूरोप का चलना कठिन है।

वे खुलकर न कहें, किंतु उन्हें मुस्लिम इमीग्रेंट से परेशानी है। वह अच्छे इमीग्रेंट्स चाहते हैं। यहीं मामला पेचीदा हो जाता है। बहुत कुछ अस्सी के दशक के, असम के ‘बहिरागत हटाओ’ आंदोलन जैसा। असम को बांग्लादेशी घुसपैठिये नहीं चाहिए थे। वस्तुतः उनका संघर्ष बांग्लादेशी ‘मुस्लिम घुसपैठियों’ से था। किंतु आंदोलन खड़ा हुआ ‘बहिरागत’ के विरोध में अर्थात सभी अप्रवासियों के विरोध में, चाहे वह बांग्लादेश से शरणार्थी के रूप में आने वाला हिंदू हो, या व्यापार के लिए राजस्थान से पीढ़ियों पहले आया, मारवाड़ी समुदाय हो। बाद में अथक प्रयासों से असम के लोगों में ‘बहिरागत’ संकल्पना स्पष्ट हुई। आज वैसी ही स्थिति फ्रांस सहित अधिकतम यूरोपियन देशों की है।

यूरोप की दूसरी समस्या है (जो शायद वैश्विक है), मुस्लिम अप्रवासियों की आक्रामकता, उपद्रव और गुंडागर्दी, जिसका विरोध यूरोप के मुस्लिम बुद्धिजीवी नहीं करते। सामान्य यूरोपियंस में इस बात का बेहद गुस्सा है। मुसलमानों के उपद्रव का विरोध न करना, यह सारे मुसलमानों की मौन सम्मति माना जा रहा है, जो सामान्य यूरोपियन नागरिकों को अखर रहा है।

एक बात तो तय है, यूरोप करवट ले रहा है और इसका एक प्रमुख कारण इस्लाम है। इसके क्या परिणाम होंगे, यह तो भविष्य बताएगा।

Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *