प्रागैस्लामी अरबी ध्वज अल् उकाब में गरुड़ भगवान विष्णु का प्रतीक चिह्न है
प्रागैस्लामी अरब में हिंदू-संस्कृति- (भाग-17)
गुंजन अग्रवाल
प्रागैस्लामी मक्का में मुहम्मद साहब के एक पूर्वज ‘कुसा-बिन्-क़लाब’ (Qusa-bin-Kalab) ने एक लोकतान्त्रिक सरकार की स्थापना की थी। उन्होंने सरकार के विभिन्न कार्यों को कुरैशियों के विभिन्न कुलों में विभाजित कर दिया था। विभिन्न स्रोतों के अनुसार ये कार्य या मन्त्रालय 10 से 17 तक थे। इस सरकार में दो प्रकार के ध्वज मान्यताप्राप्त थे— 1. ‘अल्-लवाए’ (Al-Lawaae) (युद्ध-ध्वज) और 2. ‘अल् उकाब’ (Al-Uqaab) (राष्ट्रीय ध्वज)।
कुरैशियों के युद्ध-ध्वज ‘अल्-लवाए’ का तो कोई चित्र इतिहास में उपलब्ध नहीं है, जिससे वह दिखने में कैसा था अथवा किस रंग का था, यह पता नहीं चल सका है। राष्ट्रीय ध्वज ‘अल् उक़ाब’ बानी उम्मैय्या वंश द्वारा थामा जाता था। यह काले रंग का आयताकार ध्वज था, जिसके मध्य में गरुड़ का चित्र था। ‘उकाब’ का अर्थ गरुड़ या बाज होता है।
प्रागैस्लामी अर्वस्थान के राष्ट्रीय ध्वज पर गरुड़ का चित्र था, यह इस बात को प्रमाणित करता है कि उस समय सम्पूर्ण अर्वस्थान विष्णुपूजक था। ‘हरिहरेश्वरमाहात्म्य’ के कथनानुसार ‘मुकाम-ए-अब्राहम’ में स्थापित स्वर्णमण्डित पदचिह्न भगवान् विष्णु का ही है। इसलिए वह क्षेत्र भगवान् शंकर के तीर्थ के साथ-साथ भगवान् विष्णु के तीर्थ के लिए भी प्रसिद्ध रहा है। मक्का में भगवान् विष्णु के पदचिह्न के कारण अर्वस्थान का राष्ट्रीय ध्वज ‘गरुड़ध्वज’ था। उसी परम्परा का निर्वाह कर रहे मिश्र के राष्ट्रीय ध्वज पर आज भी गरुड़ का चित्र है और ’60 के दशक में लीबिया और सीरिया भी अपने ध्वज पर गरुड़ का चिह्न रखते थे जो अरब-राष्ट्रीयता का प्रतीक है। विभिन्न अन्य अरबी-देश, जैसे- संयुक्त अरब अमीरात और इराक़ अपने राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में गरुड़ का ही प्रयोग करते हैं।
मुहम्मद साहब ने अपने इस्लामी झण्डे का नाम ‘अल् उक़ाब’ ही रखा, किन्तु उससे गरुड़ का चित्र हटा दिया था। अर्थात् उनका झण्डा चिह्नरहित एकदम काले रंग का था।
लन्दन के ब्रिटिश म्यूज़ियम में प्रागैस्लामी अरब में पाई गई एक शिला प्रदर्शित है। इसके ऊपरी भाग में गोल सूर्य और अर्धचन्द्र उत्कीर्ण है। निचले भाग में अभिलेख है। इस प्रकार अभिलेखों में सूर्य और चन्द्रमा की आकृति उत्कीर्ण करना वैदिक प्रथा है, जिससे यह भाव प्रकट किया जाता है कि अभिलेख उत्कीर्ण करवानेवाले की कीर्ति यावच्चन्द्रदिवाकरौ (अर्थात् जबतक सूर्य और चन्द्र अस्तित्व में रहेंगे, तब तक) अमर रहेगी। ठीक ऐसा ही चिह्न पुरी के जगन्नाथ-मन्दिर के शिखर पर फहराती हुई ध्वजा पर भी अंकित है। अतः यह चिह्न अर्वस्थान में पाया जाना यह सिद्ध करता है कि प्रागैस्लामी अर्वस्थान में वैदिक-संस्कृति थी। इस्लामी-ध्वजों पर लगाया जानेवाला अर्द्धचन्द्र और तारे का चिह्न उपर्युक्त प्राचीन वैदिक चिह्न का ही थोड़ा बदला हुआ रूप है। (1)
(लेखक महामना मालवीय मिशन, नई दिल्ली में शोध-सहायक हैं तथा हिंदी त्रेमासिक ‘सभ्यता संवाद’ के कार्यकारी सम्पादक हैं)
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