अवार्ड की पुकार (व्यंग्य)
शुभम वैष्णव
अलमारी में रखा हुआ एक अवार्ड बार-बार चिल्ला रहा था और अपने मालिक से कह रहा था – हे निष्ठुर प्राणी मैंने ऐसा क्या अपराध किया है जो तुमने मुझे अब तक इस तरह अलमारी में सजाकर अपने पास रख रखा है जबकि तुमने कई अवार्ड जो मेरे साथी संगी भी थे, को तुमने देश में असहिष्णुता बढ़ने के नाम पर वापस कर दिया था। फिर मुझे अब तक क्यों संभाल कर रख रखा है, यह बात अब भी मेरे मन मस्तिष्क में बिजली की तरह कौंध रही है। तुम अपने आपको सेक्युलर बताते हो फिर भी तुमने मेरे साथ यह अन्याय क्यों किया?
तुम्हारी आंखों के सामने ही सीएए के विरोध के नाम पर दिल्ली में दंगे हुए, शाहीन बाग में धरने के नाम पर सड़कें जाम की गईं और दिल्ली में मारकाट की गई। दूसरी ओर बेंगलुरु में मजहबी उन्माद में कुछ लोगों ने घरों में तोड़फोड़ की, आग लगा दी। आम आदमी की कार, मोटरसाइकिलों को आग के हवाले कर दिया गया। ये सब घटनाएं तुम्हारे सामने घटीं फिर भी तुम मौन धारण किए रहे।
तुम्हारे सेक्युलरिज्म की ऐसी क्या मजबूरी है कि एक तरफ तो तुम एक मामूली सी घटना को भी सांप्रदायिक बता देते हो और दूसरी ओर ऐसी सुनियोजित हिंसा व अराजकता की घटनाओं पर आंखें मूंद लेते हो। एक घटना पर तो तुम सारे जहान में ढिंढोरा पीट देते हो जबकि दूसरी घटना पर तुम्हारी बोलती बंद हो जाती है। क्या तुम्हारी दृष्टि में हिंसा की ये सब घटनाएं सहिष्णुता हैं जो तुम इतने खामोश हो? तुम्हारे मुंह से एक शब्द भी नहीं निकल पा रहा है। यह तो बताओ तुम्हें किस से इतना डर लगता है जो तुम इस तरह का दोगलापन दिखाते हो?
तुम्हारे साथ साथ रहते मुझे एक बात तो समझ आ गई है कि तुम्हारी संवेदनाएं भी लाभ-हानि व वोट बैंक आदि के तराजू पर तुलकर प्रकट होती हैं। मेरे मालिक होने के नाते शायद तुम मेरी पुकार को जरूर सुनोगे।