संयुक्त राष्ट्र में गूंजी आवाज: गुलाम कश्मीर से अवैध कब्जा हटाए पाकिस्तान
प्रमोद भार्गव
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् (यूएनएससी) में कश्मीर का मुद्दा उठाने पर भारत ने पाकिस्तान को ललकारते हुए, उसे गुलाम कश्मीर से अपना अवैध कब्जा तत्काल हटा लेने की चेतावनी दी है। न्यूयॉर्क में आयोजित बैठक में संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थाई मिशन में काउंसलर डॉ. काजल भट्ट ने कहा कि ‘मैं भारत की स्थिति के बारे में स्पष्ट करना चाहूंगी कि संपूर्ण केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर और लद्दाख भारत के अभिन्न और अभिभाज्य हिस्से थे, हैं और रहेंगे। इसमें वह क्षेत्र भी आते हैं, जो पाकिस्तान के अवैध कब्जे में हैं। अतएव हम पाकिस्तान का आह्वान करते हैं कि वह अपने अवैध कब्जे सभी भूखंडों से हटा ले, अन्यथा परिणाम भुगतने को तैयार रहे।’ दरअसल इस मंच से पाकिस्तान के प्रतिनिधि मुनीर अकरम ने अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा पर खुली बहस के दौरान जम्मू-कश्मीर का मुद्दा उठाया था। इस मौके पर उठाए गए भ्रामक सवालों के जबाव में काजल भट्ट के राष्ट्रबोध ने अंगड़ाई ली और उन्होंने पाकिस्तान को जोरदार फटकार लगा दी। इसके बाद गुलाम कश्मीर का मुद्दा वैश्विक स्तर पर एक बार फिर से गरमा गया है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि विभाजन की जिस अव्यावहारिक व अप्राकृतिक मांग के आगे नेहरू समेत हमारे तत्कालीन नेता जिस तरह से नतमस्तक होते चले गए, उससे न केवल जम्मू-कश्मीर, बल्कि पाक अधिकृत कश्मीर, भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश को भी विभाजन का दर्द झेलना पड़ा है। जबकि विभाजन के समय ही यह साफ लगने लगा था कि यह अखंड भारत की विरासत को खंडित करने की अंग्रेजी हुकूमत की कुटिल चाल है। बावजूद कांग्रेस नेता यह नहीं समझ पाए कि जो शेख अब्दुल्ला ‘मुस्लिम कांफ्रेंस का गठन कर कश्मीर की सामंती सत्ता से मुठभेड़ कर रहा है, उसे शह मिलती रही तो वह भस्मासुर भी बन सकता है? 1931-32 में शेख की मुलाकात नेहरू तथा खान अब्दुल्ल गफ्फार खान से हुई। इन्हें सीमांत गांधी भी कहा जाता है। इस गुफ्तगू से शेख को इतनी ताकत और दृष्टि मिली कि शेख ने अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए ‘मुस्लिम कांफ्रेंस’ से मुस्लिम शब्द हटा दिया और ‘नेशनल’ जोड़ दिया। जिससे राष्ट्रीयता का भ्रम हो। इसी समय जिन्ना ने पृथकतावादी अभियान चला दिया। फिरंगी शासक तो चाहते भी यही थे कि भारत को आजादी धर्म के आधार पर बंटवारे की परिणति में हो। आमतौर से ऐसा माना जाता है कि कश्मीर समस्या 1947 के बाद पनपी व विकसित हुई। जबकि वास्तव में इसकी शुरुआत जम्मू-कश्मीर के महाराजा गुलाबसिंह के दरबार में ‘अंग्रेज रेजिमेंट’ की नियुक्ति के साथ ही हो गई थी। किंतु अंग्रेज नाकाम रहे। इसी समय दुर्भाग्य से कश्मीर के गिलगिट क्षेत्र के राजा रणवीर सिंह का देहांत हो गया। अंग्रेजों ने शोक में डूबे राज-परिवार की इस कमजोरी को एक अवसर माना और सक्रियता बढ़ा दी।
दरअसल अंग्रेजों ने 1885 में ही यह योजना बना ली थी कि किसी भी तरह जम्मू-कश्मीर के दुर्गम व सुरक्षित क्षेत्र गिलगिट व बाल्टिस्तान पर कब्जा करना है। जिससे अमेरिका की सैन्य गतिविधियों के लिए एक सुरक्षित स्थान मिल सके। अमेरिका इसे सोवियत संघ पर शिकंजा कसने की दृष्टि से उपयुक्त क्षेत्र मान रहा था। लिहाजा अंग्रेजों ने “षड्यंत्रपूर्वक इस क्षेत्र को ‘गिलगिट एजेंसी’ नाम देकर 1889 में अपने कब्जे में ले लिया। इसके अधीनता में आते ही सिंधु नदी के पूर्व और रावी नदी के पश्चिम तट तक समूचे पर्वतीय भू-भाग पर अंग्रेजों का नियंत्रण हो गया। इस समय गिलगिट में प्रतापसिंह राजा रणवीर सिंह के उत्तराधिकारी के रूप में शासक थे। प्रतापसिंह अंग्रेजों की साजिश का शिकार हो गए। गुलाब सिंह की मृत्यु के बाद हरिसिंह जब राजा बने तो 1925 में उनकी आंखें खुलीं और गिलगिट की साजिश को समझा। तब हरिसिंह ने हिम्मत व सख्ती से काम लेते हुए अपनी सेना गिलगिट भेजकर अंग्रेजी सेना को गिलगिट छोड़ने को विवश कर दिया और यूनियन जैक उतारकर कश्मीरी झंडा किले पर फहरा दिया। यह अप्रत्याशित घटनाक्रम अंग्रेजों को एक शूल की तरह चुभता रहा।
1930 में जब स्वतंत्रता आंदोलन एक प्रखर राष्ट्रवाद के रूप में देशव्यापी हो गया तो इस राजनीतिक समस्या के हल के बहाने लंदन में गोलमेज सम्मेलन आहूत किया गया। भारतीय राजाओं के अधिकृत प्रतिनिधि के रूप में हरिसिंह ने इसमें हिस्सा लिया। यहां हरिसिंह ने गिलगिट बाल्टिस्तान समेत, संपूर्ण जम्मू-कश्मीर को ‘संघीय राज्य’ बना देने की पुरजोर पैरवी की। किंतु यह मांग अंग्रेजों की मंशा के अनुकूल नहीं थी, इसलिए सिरे से खारिज कर दी। यहां अंग्रेजों ने गिलगिट क्षेत्र से हरिसिंह द्वारा अंग्रेज सेना की बेदखली की गई थी, उसके प्रतिकार स्वरूप साजिश तो रची ही, औपनिवेशिक कूटनीति व भारत को विभाजित करने की मंशा को फलीफूत देखने के नजरिए से शेख अब्दुल्ला को महत्व देकर उसे कश्मीरी शासक के विरुद्ध उकसाना शुरू कर दिया। नतीजतन शेख ने अलगाववादी संगठन ‘मुस्लिम कांफ्रेंस’ की नींव डाल दी। इसी दौरान शेख की मुलाकात नेहरू से हुई, जो मित्रता में बदल गई। 1932 से ही शेख ने कश्मीर पर नाजायज कब्जे के लिए जंग छेड़ दी।
इसके बाद से लेकर 1947 तक के कालखंड में 1942 की अगस्त क्रांति और दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद जब फिरंगी हुकूमत के विरुद्ध जबरदस्त असंतोष और सशस्त्र संघर्ष की घटनाएं आम हो गईं तो अंग्रेजों ने अनुभव किया कि अब भारत पर नियंत्रण संभव नहीं है, तब उन्होंने भारतीय रियासतों के विलीनीकरण के लिए धार्मिक व क्षेत्रीय उपराष्ट्रीयताओं को भी उकसाना शुरू कर दिया। फलतः शेख समेत अनेक हिंदू व मुस्लिम नरेशों में एक नए स्वतंत्र देश पर राज करने की मनोकमना अंगड़ाई लेने लगी। जबकि रियासतों का विलय भारतीय राष्ट्र को अखंड भारत का रूप देकर एक सशक्त व एकीकृत संविधान द्वारा संचालित राजनीतिक इकाई का निर्माण करना था। इसी समय शेख ने स्वतंत्र कश्मीर का सुल्तान बनने का सपना देखना शुरू कर दिया। मुस्लिम लीग तो जिन्ना के नेतृत्व में पहले से ही मुसलमानों के लिए पृथक मुस्लिम देश बनाने की मांग कर रही थी।
1946 में शेख ने हरिसिंह के विरुद्ध ‘महाराजा कश्मीर छोड़ो आंदोलन’ छेड़ दिया। 20 मई 1946 को शेख ने श्रीनगर की मस्जिदों का दुरुपयोग करते हुए सांप्रदायिक उन्माद फैलाने के ऐलान कराए। नतीजतन शेख की गिरफ्तारी हुई और उन्हें तीन साल की सजा सुनाई गई। इस गिरफ्तारी के बाद कश्मीर की स्थिति पूरी तरह नियंत्रण में थी। किंतु यह गिरफ्तारी नेहरू हो रास नहीं आई। नेहरू ने शेख की गिरफ्तारी को गलत ठहराते हुए दिल्ली के राजनीतिक हलकों में हरिसिंह को दोषी ठहराना शुरू कर दिया। नेहरू शेख को छुड़ाने के लिए इतने उतावले हो गए कि जब देश स्वतंत्रता संग्राम की निर्णायक लड़ाई लड़ रहा था, तब 19 जून 1946 को नेशनल ऐयरवेज के हवाई जहाज से लाहौर होकर रावलपिंडी पहुंचे और फिर रावलपिंडी से कार द्वारा श्रीनगर पहुंच गए। यहां के कश्मीरी पंडितों ने नेहरू को समझाइश दी कि आपको गुमराह किया जा रहा है, महाराजा अपनी जगह सही हैं। किंतु नेहरू को ये शब्द कानों में पिघले शीशे की तरह लगे। हरिसिंह ने नेहरू का कहना नहीं माना तो ‘सत्याग्रह’ की घोषणा कर दी। मित्रता के भुलावे में नेहरू द्वारा की गई यह भूल और शेख को छुड़ाने की जिद्द व जुनून कालांतर में ऐतिहासिक भूल साबित हुए। हरिसिंह ने कठोरता बरतते हुए नेहरू के हठ को सर्वथा नकार दिया और उन्हें हिरासत में लेकर कश्मीर की सीमा से बाहर का रास्ता दिखाकर रिहा कर दिया।
नेहरू ने इस आचरण को नितांत अव्यावहारिक माना और हरिसिंह से बदला लेने का संकल्प ले लिया। इसलिए देश की 562 रियासतों को विलय करने का जो दायित्व पटेल बड़ी चतुराई से संभाल रहे थे, उसमें एक जम्मू-कश्मीर का दायित्व नेहरू ने जबरदस्ती अपने हाथ ले लिया। इसी कालखंड में 24 अगस्त 1946 को नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार बना दी गई। यह वह दौर था, जब पूरे भारत में सांप्रदायिक दंगों के साथ अनिश्चय, अविश्वास एवं अराजक वातावरण छाया हुआ था। इसी समय 20 फरवरी 1947 को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने ऐतिहासिक घोषणा की, कि जून 1948तक भारत को स्वतंत्र कर दिया जाएगा। इस घोषणा के परिणाम की जिम्मेबारी एडमिरल लुइस माउंटबेटन को सौंपी गई। 24 मार्च 1947 को वायसराय के रूप में माउंटबेटन ने भारत के प्रशासनिक दायित्व अपने हाथ में ले लिए। माउंटबेटन ने अलग-अलग गोपनीय मुलाकातें लीगी व कांग्रेसी नेताओं से करके भारत विभाजन का संकल्प गांधी के विरोध के बावजूद ले लिया। अंततोगत्वा 4 जुलाई 1947 को ब्रिटेन की संसद के दोनों सदनों में ‘भारतीय स्वतंत्रता विधेयक-1947’ पेश कर दिया, जो मत-विभाजन से पारित हो गया। 18 जुलाई 1947 को ब्रितानी हुकूमत ने अनुमोदन भी कर दिया। इसी विधेयक के तहत भारत को धर्म के आधार पर दो स्वतंत्र औपनिवेशिक राज्यों में बांट दिया गया।
जम्मू-कश्मीर रियासत का विलय नेहरू के हाथ में होने के कारण असमंजस में रहा। डोगरा राजा हरिसिंह जहां कश्मीर की स्वतंत्र राज्य की परिकल्पना कर रहे थे, वहीं उनके प्रधानमंत्री रामचंद्र काक पाकिस्तान के साथ विलय पर विचार कर रहे थे, क्योंकि उनकी पत्नी यूरोपियन थीं, इसलिए उनकी आंखें मुंद गईं थीं। इसी अनिश्चिता के दौर में 22 अक्टूबर 1947 को शेख की शह पर पाक फौज जीपों व ट्रकों पर सवार होकर कश्मीर में चढ़ी चली आई। इस संकट से मुक्ति के लिए हरिसिंह विवश हुए और उन्होंने 26 अक्टूबर 1947 को विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। इसके बाद 27 अक्टूबर 1947 को कबिलाइयों को बेदखल करने के लिए हवाईजहाज से सेना भेज दी गई। भारतीय सैनिकों ने कबिलाईयों को खदेड़ दिया, किंतु दुर्गम क्षेत्र होने के कारण मुजफ्फराबाद का पीओके, गिलगिट व बाल्टिस्तान क्षेत्र पाक के कब्जे में बना रहा। इस परिप्रेक्ष्य में नेहरू जल्दबाजी में संयुक्त राष्ट्र संघ चले गए। संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् ने इसे विवादित क्षेत्र घोषित कर दिया। परिणामस्वरूप युद्धविराम तो हो गया, लेकिन कश्मीर की शासन व्यवस्था को लेकर नेहरू, हरिसिंह और शेख के बीच ‘दिल्ली समझौता’ हुआ। इस समझौते के आधार पर ही नेहरू ने शेख के सुपुर्द जम्मू-कश्मीर की कमान सौंप दी। इसके बाद कश्मीर को विशेष दर्जा देने के लिए 370 का अनुच्छेद पटेल और अंबेडकर के विरोध के बावजूद जोड़ दिए गए, जो अलगाव की दरार मोटी करते चले गए। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की दृढ़ इच्छाशक्ति और राष्ट्रबोध के चलते यह अनुच्छेद-370 खत्म कर दिया गया है, लेकिन अभी गुलाम कश्मीर से पाकिस्तान का अवैध कब्जा हटाया जाना शेष है।