दुःख का आत्मसात ही साधक के लिये निरन्तर बढ़ने की प्रेरणा है
कौशल अरोड़ा
जीवन में कर्म का महत्व निरंतरता से प्राप्त किया जा सकता है। साधक द्वारा किये गए कर्मों का परिणाम साधक के जीवन में सुख या दु:ख की अनुभूति के रूप में होता है। ये परिणाम दीर्घकाल में उसके द्वारा किये गए कार्य की समीक्षा भी करते हैं। प्रायः दुःख का प्रत्येक के जीवन मे सुख से अधिक महत्व होता है। क्योंकि दुःख में ही जीवन का विकास है ओर इसलिए दुःख का प्रभाव जीवन में रहता ही है। व्यक्ति के अनुभव से उसके द्वारा किये गये कार्य के परिणाम करवट लेते हैं।
आशावादी व सकारात्मक सोच इस दुःख में निरन्तर आगे बढ़कर लक्ष्य सिद्धि में मध्यमार्गी होती है। यही प्रभाव साधक को अपने अन्दर समा लेता है ओर सुख, दुःख से अतीत के जीवन में प्रवेश कराता है। दूसरी ओर साधनगामी अपने पर दुःख का प्रभाव हावी नहीं होने देते। उसके अनुभव से सीख लेना नहीं चाहते। एक सहारा छूटता है, तो दूसरे सहारे को अंगीकार कर लेते है। जब तक सुख में दुःख का दर्शन, उसका आत्मसात ओर उसके प्रभाव को दैनिक जीवन मे हावी होने से रोकेंगे नहीं, उसके लिये यत्न नहीं करेंगे। तब तक दुःख जीवन मे प्रवेश करता रहेगा। सक्षम होना और अपनी दिशा अपने मानस पटल पर स्वयं तय करना ही संतुलित जीवन क्रिया है। जिसे कंदराओं में रहने वाले ऋषि मुनि ओर चतुर्मास में प्रवचन करने वाले कथा वाचक कहते रहे है। जो तप की दिव्य दृष्टि का ऋषि ज्ञान ही है।
जब साधक दुःख के प्रभाव में पूरी तरह से घिर जाता है फिर भी संतुलित जीवन मे सत्य के मार्ग को छोड़ता नहीं है। उस ओर लक्षसिद्धि से बढ़ता रहता है, तभी दुःखहारी श्रीहरि स्वयं दुःख हर लेते हैं। वर्तमान की वेदना ही भविष्य की सत्ता का आभास कराती है। साधक को हर पल अपनी निद्रा में भी धारण किये गये लक्ष्य से डगमगाना नही चाहिये। अतः दुःख को वेदना समान न मानकर आचरण रूपी मानना ही श्रेष्ठकर है। यही नकारात्मक प्राणवायु साधक को लक्ष्य से विचलित करने के लिये परिस्थितिवश जन्मती है।
दुःख के प्रभाव की पहचान में साधक को मूल रूप से वस्तु, व्यक्ति ओर परिस्थिति से आस्तिक सम्बन्ध न रखना ओर न ही किसी से कुछ आशा रखना ही उसके लक्ष्य की प्राप्ति की सीढ़ी मात्र है। जिसका वह अनुसरण करता है। दुःख का भाव, प्रभाव और दुःख के भोग में बड़ा अन्तर है। दुःख का प्रभाव साधन है और सुख का भोग असाधन है। राग-द्वेष-जनित चिन्तन करना ही दुःख का भोग है। यह अनुभवशील है कि दुःख का प्रभाव करुणित होने तथा सुखियों को देख प्रसन्न होने से होता है। समस्त विकारों का मूल सुख का भोग व उसका प्रलोभन है और समस्त विकास का मूल दुःख का प्रभाव ओर निरन्तर आगे बढ़ने की प्रेरणा है। बिना यत्न के सुख प्राप्ति की लालसा साधक के लिये दुःख का कारण होती है। यही कारण साधक के विकास की कड़ी में दुःख का आत्मसात ही निरन्तर बढ़ने की प्रेरणा देता है। वही प्रेरणा जीवन को जीने के लिये संतुलित रहने का मूल-मंत्र है।