नायकर रामासामी पेरियार: ये कैसे समाज सुधारक?
बलबीर पुंज
विगत दिनों तमिलनाडु सरकार ने प्रत्येक वर्ष 17 सितंबर को इरोड वेंकट नायकर रामासामी पेरियार की जयंती को ‘सामाजिक न्याय दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय किया। मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन द्वारा 8 सितंबर को इस संबंध में विधानसभा में की गई घोषणा पर मुझे कोई हैरानी नहीं, क्योंकि यह उनकी पार्टी- द्रविड़ मुन्नेत्र कझगम (द्रमुक) के इतिहास और राजनीतिक दर्शन के अनुरूप है। इस पूरे घटनाक्रम में सबसे स्तब्ध करने वाला पक्ष भाजपा प्रदेश इकाई द्वारा इस प्रस्ताव का समर्थन करना है।
मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के अनुसार, “पेरियार की विचारधारा सामाजिक न्याय, स्वाभिमान, तर्कवाद और समानता के विचारों पर आधारित थी। उनकी विचारधारा ने पिछली शताब्दी के दौरान तमिल समाज के विकास की आधारशिला रखी और यह भविष्य का मार्ग भी प्रशस्त करेगी।” आखिर स्टालिन यहां पेरियार के किन विचारों और तर्कों की बात कर रहे हैं?
“द्रविड़-आंदोलन” के पुरोधा पेरियार ने सदैव देश में ब्रितानी राज का समर्थन किया। उनका आरोप था कि चूंकि कांग्रेस उत्तर-भारतीयों, ब्राह्मण-बनियों और हिंदी भाषी पार्टी है, तो अंग्रेजों के भारत छोड़ने की स्थिति में देश पर कांग्रेसी मुखौटे के पीछे ब्राह्मण-बनियों का ही शासन होगा और वे भारत में दोबारा वर्ण-व्यवस्था लागू करेंगे। इसलिए बहुसंख्यकों की भलाई इसमें है कि ब्रितानियों का शासन देश में बना रहे। क्या इस चिंतन को किसी भी दृष्टि में स्वाभिमान, सामाजिक न्याय, तर्कवाद और समानता के विचारों से जोड़ सकते है?
जो लांछन तब पेरियार तत्कालीन कांग्रेस पर लगाते थे, आज वही आक्षेप वर्तमान कांग्रेस, उन्मत्त वामपंथी, पेरियार के मानसबंधु और जिहादियों का कुनबा- भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगाते है। भारत-हिंदू विरोधी चिंतन और गुलाम मानसिकता से उत्पन्न यह झूठा-भ्रामक विचार आज भी राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा है, अंतर केवल इतना है कि इस बार आरोपी बदल गया है।
पेरियार उस विकृत आत्मसम्मान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे, जो ब्रितानियों की “बांटो-राज करो” नीति और चर्च-ईसाई मिशनरी का विषाक्त उत्पाद थे, जिसके माध्यम से अंग्रेज अपने शासन को, तो चर्च हिंदू समाज के वंचित, शोषित और जनजाति वर्गों के मतांतरण को शाश्वत बनाना चाहते थे। इस संबंध में ब्रिटेन, चर्च और पेरियार के गठजोड़ ने असमानता और अन्याय के नाम पर “आर्य बनाम द्रविड़”, “ब्राह्मण बनाम गैर-ब्राह्मण”, “हिन्दी बनाम तमिल”, “तमिलवासी बनाम गैर-तमिलवासी”, “दक्षिण-भारत बनाम उत्तर-भारत” का विषाक्त राजनीतिक दर्शन प्रस्तुत किया। इस पर मैं 9 दिसंबर 2020 के इसी कॉलम में “क्या दक्षिण की राजनीति बदलेगी?” शीर्षक से विस्तृत आलेख लिख चुका हूं।
पेरियार का राजनीतिक चिंतन कितना घृणित और वैमनस्य से भरा था, यह उनके आयोजनों से स्पष्ट है। वर्ष 1930 से ही वे ब्राह्मणों का विरोध करने हेतु हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों (नग्न चित्रों सहित) का अपमान करते रहे। उन्होंने वर्ष 1953 में भगवान गणेश की प्रतिमा को खंडित किया, तो 1956 में चेन्नई स्थित मरीना समुद्र तट पर हिन्दू आराध्यों की तस्वीरों-मूर्तियों को जलाया। वर्ष 1971 में तो उन्होंने सेलम में एक विशाल रैली का आयोजन करके श्रीराम-सीता की निर्वस्त्र मूर्तियों को जूतों-चप्पलों की माला के साथ जुलूस भी निकाला।
बात केवल यही तक सीमित नहीं है। रामासामी के सहयोगी रहे वे.अनाइमुथु ने अपनी पुस्तक लिखा था कि एक बार पेरियार ने अपने लोगों को आदेश दिया कि जब भी ब्राह्मण पत्रकार उनके स्थान पर आएं, तो उन्हें बेरहमी से धक्का देकर बाहर निकाल दें। इसी तरह “तमिझार थलाइवर” (तमिल नेता) के रचयिता सामी चिदंबरनार ने पेरियार के एक वक्तव्य को उद्धत करते हुए लिखा, जिसमें उन्होंने कहा था- “जातिगत भेदभाव को नष्ट करने हेतु नेहरू-गांधी की तस्वीरें और भारतीय संविधान की प्रति को जलाएं। यदि इससे कोई फल नहीं मिलता, तो हमें ब्राह्मणों को मारना-पीटना शुरू कर देना चाहिए और हमें उनके घरों को जलाना शुरू कर देना चाहिए।” क्या इस प्रकार की जातीय हिंसा और वैमनस्य “सामाजिक न्याय” की परिभाषा हो सकते है?
“सामाजिक न्याय” के संदर्भ में द्रविड़-चिंतन के समर्थक अक्सर पेरियार और संविधान निर्माता डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर को एक ही पंक्ति में खड़ा करने का प्रयास करते है। स्वयंभू अंबेडकरवादी भी अपने निहित एजेंडे के लिए इसका समर्थन करते है। विडंबना है कि यह कुनबा उन वक्तव्यों-विचारों को सुविधाजनक रूप से सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा नहीं बनने नहीं देते या भ्रामक बताते है, जिससे पेरियार का अंबेडकर-विरोध प्रत्यक्ष होता है।
पेरियार ने 8 जुलाई 1947 को अपनी पत्रिका ‘कुडी-अरासु’ में पृथक द्रविड़नाडु राष्ट्र की वकालत और डॉ. अंबेडकर की आलोचना करते हुए लिखा था, “डॉ. अंबेडकर उत्तर-भारतीयों का पक्ष ले रहे है कि इस राष्ट्र का विभाजन नहीं होना चाहिए। मुझे डर है कि आने वाले दिनों में वे हमारी द्रविड़स्तान की मांग का भी विरोध कर देंगे।” जब देश में आरक्षण व्यवस्था लागू हुई, तब पेरियार ने 11 नवंबर 1957 को ‘विदुथलाई’ में बाबा साहेब के लिए अपमानजनक रूप से लिखा था, “ब्राह्मणों ने आरक्षण के रूप में अंबेडकर की एक कीमत तय की थी। अंबेडकर ने अपने लोगों के लिए शिक्षा और सरकारी नौकरियों में 10 प्रतिशत आरक्षण मांगा। उन्होंने (ब्राह्मणों) कहा, ‘हम इसे 15 प्रतिशत कर देंगे’। ब्राह्मण जानते थे कि यदि 25 प्रतिशत भी दिया जाए, तो भी अनुसूचित जाति समाज के तीन या चार व्यक्ति नहीं आएंगे। और अंबेडकर ने बस उस कानून में हस्ताक्षर कर दिया और दूसरों की समस्याओं की परवाह नहीं की।”
वास्तव में, पेरियार का अंबेडकर के प्रति यह दुर्भाव एकाएक पैदा नहीं हुआ था। इसके पीछे बाबा साहेब के वे विचार थे, जो पेरियार के विभाजनकारी एजेंडे में अवरोधक बन रहे थे। जाति आधारित रचना में बाबासाहेब अंबेडकर ने लिखा था, “…मनु ने जाति-नियम नहीं बनाया और ना ही वह ऐसा कर सकते थे। मनु से बहुत पहले ही जातियां विद्यमान थीं। …तर्क दिया जाता है कि ब्राह्मणों ने जाति का निर्माण किया। मनु के संबंध में मैंने जो कहा, उसके बाद मुझे कुछ और कहने की आवश्यकता नहीं, सिवाय इसके कि यह विचार गलत है और दुर्भावनापूर्ण नीयत से उपजा है। ब्राह्मण कई चीजों के दोषी हो सकते हैं… किंतु गैर-ब्राह्मण आबादी पर जाति व्यवस्था थोपना, उनकी क्षमता से परे था।” यही नहीं, डॉ.अंबेडकर आर्य आक्रमणकारी सिद्धांत को ब्रितानियों की मनगढंत झूठी कहानी तक बता चुके थे।
अपने लेखन-भाषणों के सातवें खंड में बाबासाहेब लिखते हैं, “शूद्र आर्य समुदायों में से एक थे। एक समय था, जब आर्य समाज केवल तीन वर्णों को मान्यता देता था- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य। शूद्रों के लिए अलग वर्ण नहीं था, उन्हें क्षत्रिय ही हिस्सा माना जाता था। शूद्र राजाओं और ब्राह्मणों के बीच निरंतर झगड़ा होता था, जिसमें ब्राह्मण अत्याचार और अपमान का शिकार होते थे। इसके परिणामस्वरूप, ब्राह्मणों ने शूद्रों का उपनयन (जनेऊ धारण करने की विधि) करने से मना कर दिया। इसके कारण शूद्र- जोकि क्षत्रिय थे, सामाजिक रूप से अपमानित और बहिष्कृत हो गए और वैश्य वर्ण से नीचे चले गए। इस तरह चौथे वर्ण (शूद्र) का निर्माण हुआ।”
इस पृष्ठभूमि में पेरियार को “समाज-सुधारक” कहना उन राष्ट्रभक्तों का घोर अपमान है, जिन्होंने भारत को ब्रितानी बेड़ियों से मुक्त कराने हेतु अंग्रेजों की यातनाओं (कालापानी सजा सहित) को भुगता, फांसी पर चढ़कर अपने प्राणों का बलिदान दिया और अपना समस्त जीवन देश की स्वाधीनता हेतु झोंक दिया। वामपंथियों की भांति नायकर उन चुनिंदा लोगों में से एक थे, जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता पर शोक जताकर देश के विखंडन और उसे टुकड़ों (द्रविड़स्थान) में बांटने की पैरवी की थी। सच तो यह है कि नायकर की जयंती को ‘सामाजिक न्याय दिवस’ के रूप में मनाना पुराने जख्मों को कुरेदने जैसा है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)