पुस्तकें (लघुकथा)
शुभम वैष्णव
क्या पिताजी, आप भी रोज रोज शहर की प्रत्येक कॉलोनी में जाकर पुस्तकें मांग कर लाते हैं। आपको कितनी बार समझाया है कि- इस तरह से आपका घर घर जाकर पुस्तकें मांगना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता, आप घर पर रहकर आराम किया करें, कभी मेरी बात भी मान लिया कीजिए, अभिषेक ने अपने पिता लालचंद से नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा।
तुम्हें पता है बेटा तुम अफसर क्यों बने, क्योंकि तुम्हारे पास ज्ञानवर्धक पुस्तकें थीं। लेकिन कई ऐसे बच्चे भी हैं जिन्हें चाहते हुए भी पुस्तकें और पढ़ाई दोनों ही नसीब नहीं हो पातीं या फिर अनेक कारणों से छूट जाती हैं। … और बेटा, जब किसी बच्चे के हाथ से किताब छूट जाती है, उसकी किस्मत भी उससे रूठ जाती है और ऐसे बच्चों का जीवन अशिक्षा के कारण गरीबी में ही व्यतीत हो जाता है और एक पूरी पीढ़ी इसका दंश झेलती है। मैं बस ऐसे बच्चों की सहायता के लिए ही घर-घर जाकर पुस्तकें एकत्रित करता हूं। वैसे भी हमारे देश के अधिकांश घरों में रखी पुस्तकें रद्दी में ही बेच दी जाती हैं। मैं बस उन पुस्तकों को रद्दी में जाने से बचा रहा हूं ताकि उनका सही उपयोग हो सके।
अपने शिक्षक पिता के समर्पण के भाव को देखकर अभिषेक का मन गदगद हो गया और उसे अब अपने बेतुके सवाल पर शर्मिंदगी महसूस हो रही थी।