फिल्म समीक्षा – राज कपूर द्वारा अभिनीत फिल्म जागते रहो
फिल्म जागते रहो सन् 1956 में राज कपूर द्वारा अभिनीत व आर.के. फिल्म्स के बैनर तले बनी भारतीय सिनेमा की श्रेष्ठ फिल्मों में से एक है। जागते रहो सामाजिक व्यंग्य की नदी पर हास्य की लहरें बहाती हुई लाती है और भ्रष्टाचार की खम ठोक कर जम चुकी चट्टानों को परत दर परत खुरचने और रेत बनाने का काम करती जाती है।
फिल्म जागते रहो में राज कपूर ने गांव के भोले भाले युवक के रूप में कमाल का अभिनय किया है। यथार्थ के साथ आदर्श का चित्रण इस फ़िल्म की अनन्यतम विशेषता है। घृणित व्यवस्था कैसे सीधे-साधे युवक को चोर बनाने का प्रयास करती है, इस फिल्म में बहुत ही मनोरंजक तरीके से प्रस्तुत किया गया है।
बड़े शहर में बसी एक इमारत में गॉंव से आया एक युवक पुलिस के डर से घुस जाता है और इस ऊँची इमारत में रहने वाले लोगों के काले कारनामे अपनी आँखों से देख पाने का मौका अनायास ही पा जाता है। यह सफेदपोशों के शान से रहने की इमारत है। यहाँ अवैध शराब बनाने वाले रहते हैं, यहाँ नकली नोटों को छापने वाले सेठ रहते हैं, यहाँ काला बाजारिये भी रहते हैं और नकली दवाइयाँ बनाने वाले भी। युवक न चाहते हुये भी इस इमारत में भिन्न भिन्न लोगों की कारगुजारियों का गवाह बनता है।
हमारा जीवन कितनी विडम्बनाओं से भरा है। “सबकी अंतरात्मा में छिद्र है… ” फिर भी दोषारोपण दूसरों पर किया जाता है। जो नहीं है उसका भय और जो है उसके प्रति लापरवाही, तभी दुनिया गोल है शायद… । व्यक्ति चाहे तो स्वयं अपनी राह चुन सकता है क्योंकि अंतरात्मा भी सही राह दिखाती है लेकिन हम उसे अनदेखा कर देते हैं। यह युवक भी हताश होने लगता है तभी उसे एक मासूम सी आवाज बचा लेती है …डर कैसा? जब उसने चोरी की ही नहीं …। यह विचार उसे गर्त में गिरने से बचा लेता है। आज के दौर में यह फिल्म प्रेरणादायी प्रतीत होती है।
सलिल चौधरी का संगीत कहानी के साथ प्रेरणात्मक रूप में चला है। गाने रंगी को नारंगी कहें… व जागो मोहन प्यारे..विशेष रूप से मधुर व कर्णप्रिय हैं। फिल्म को अमित मैत्रा व शम्भू मैत्रा ने डायरेक्ट किया है।
मीनू गेरा भसीन