पगलैट नहीं समझदार है संध्या (फिल्म समीक्षा : पगलैट)

पगलैट नहीं समझदार है संध्या (फिल्म समीक्षा : पगलैट)

डा. अरुण सिंह

पगलैट नहीं समझदार है संध्या (फिल्म समीक्षा : पगलैट)

26 मार्च को नेटफ्लिक्स पर उमेश बिष्ट द्वारा निर्देशित फिल्म प्रदर्शित हुई है : पगलैट। फिल्म में नायिका के संवाद अपेक्षाकृत रूप से अल्प हैं। नायिका मन से स्वच्छ है। कोई मलीनता नहीं। जैसी है, वैसा ही व्यवहार करती है। पति की मृत्यु हो गई है और वह शोक नहीं मनाती। वस्तुत: शोक भीतर का भाव है। और संध्या अपने भीतर के भाव निकालने में किसी प्रकार का प्रपंच नहीं रचती। अपने पति के प्रति प्रेम की अनुभूति हेतु उसे अवसर ही नहीं मिला, अतः तत्काल तो उसके भीतर शोक का सोता फूटना संभव नहीं हो पाता। असल में संध्या स्वयं को खोज रही है और प्रेम को भी। वह इस प्रक्रिया में है। वह रिश्तों का महत्व और मूल्य भली-भांति समझती है। अपने सास – श्वसुर के उसके प्रति समर्पण और निश्छल भाव को भी वह जानती है। आकांक्षा का फोटो उसे स्वयं की खोज की ओर अग्रसर करता है। आकांक्षा उसे आश्वस्त करती है और वह निकल पड़ती है अपनी यात्रा पर! संध्या अपने माता – पिता के लालच भरे मोह पाश में भी नहीं बंधती। वह विद्रोही नहीं है, बस सहज और पारदर्शी है। आस्तिक की मृत्यु पश्चात सारे अनुष्ठान वह बड़ी स्वीकार्यता के साथ पूर्ण करती है। दादी की सेवा भी बड़े मन से करती है। अपना पारिवारिक दायित्व समर्पण से निभाती है। संबंधियों का सम्मान भी करती है। परन्तु ‘स्व’ की खोज में निर्मोहिनी संध्या अपने कर्म के रास्ते पर निकल पड़ती है। आदित्य उसे मूर्ख नहीं बना पाता। अपनी यात्रा पर निकलने से पहले बीमा का धन वह अपने श्वसुर, शिवेंद्र गिरी को सुपुर्द कर देती है और बड़े आत्मविश्वास से यह भरोसा दिलाती करती है कि वह उनके पुत्र की तरह ही धनार्जन करके उनके प्रति अपना दायित्व निर्वहन करेगी। संध्या आधुनिक युवती है, अंग्रेज़ी विषय में परास्नातक है, पर व्यक्तित्व और स्वभाव में पूर्णतः भारतीय है।

कलाकारों का अभिनय बहुत ही सहज बन पड़ा है। विषय की बात की जाए तो वह एकदम अद्वितीय और मौलिक है। बच्चों को जिस तरह आजकल अतिआत्मविश्वासी और स्वच्छंद तरीके से प्रस्तुत किया जाता है, वह खटकता है। भारतीय ज्योतिष और पारंपरिक शास्त्रीय ज्ञान का हास्य बनाया जाना भी सर्वथा अनुचित है।

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